भारत ऐसा देश रहा है जहां सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को विशेष महत्व दिया जाता रहा है । रिश्तों की आत्मीयता भारतीय संस्कृति में रची बसी है । भारतीय संस्ृति में जीवित होने पर ही नहीं बल्कि मृत्यु होने के बाद भी रिश्ते का निर्वाह किया जाता है । यह संबंधों के प्रति लगाव ही है कि भारत में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पितृपक्ष पर तर्पण की परंपरा है । भारतवासियों को सदैव रिश्ते निभाने की गौरवशाली परंपरा पर गर्व रहा है । विदेशियों के लिए भी भारतीय संसकिरिति का यह पक्ष बडा आकर्षित करता रहा है । लेकिन पिछले कुछ समय से स्थितियां बदली है ।
भौतिकतावाद, उपभोक्तावाद, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण, बाजारवाद, बदलते जीवन मूल्यों, नैतिक मूल्यों के पतन, संयुक्त परिवार के विघटन और नित नए आकार लेती महत्वाकांक्षाओं ने व्यक्ति की मानसिकता को गहराई से प्रभावित किया है । यही वजह है रिश्तों की आत्मीयता में जो गरमाहट थी, वह कुछ कम होने लगी है । सामाजिक संबंधों में जो निकटता थी, वह घटने लगी है । कई बार ऐसा लगता है कि मौजूदा समय में रिश्ते टूटने लगे हैं और संबंध दरकने लगे हैं।
२० सितंबर को बिजनौर जिले में एक व्यक्ति ने दो सगे भाइयों के साथ अपनी मां और १० वर्षीय पुत्री की धारदार हथियारों से हत्या कर दी । वजह थी सिर्फ १४ बीघा जमीन जो मां के नाम थी । यह जमीन बेेटे हथियाना चाहते थे । इस घटना के संदर्भ बडे व्यापक हैं और पूरे समाज के सामने कई सवाल खडे करते है ं। क्या आज संपत्ति मां और पुत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगी है? क्या समाज में हिंसक प्रवृत्तियां अधिक प्रभावशाली होने लगी हैं? क्या हम भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों को भूलने लगे हैं? इन सवालों पर विचार करना जरूरी है । अगर भारतीय समाज में संबंधों की जडें़कमजोर हुईं तो इसका असर सीधा संस्कृति पर पडेगा ।
दरअसल बदले भौतिकवादी परिवेश ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत गहराई से प्रभावित किया है । रोजगार के सिलसिले और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन की इच्छाओं ने एकल परिवार की परंपरा को बढावा दिया । इसका परिणाम यह हो गया कि अब सिर्फ पति, पत्नी और बच्चों को ही परिवार का हिस्सा माना जाने लगा है । अन्य रिश्तों के प्रति लगाव घटता जा रहा है । उनमें परस्पर आत्मीयता भी घटती जा रही है । तीज त्योहारों और विवाह आदि अवसरों पर ही संयुक्त परिवार की झलक दिखाई देती है । पारिवारिक सदस्यों में दूरियां बढऩे से परस्पर संबंधों में दरार पडऩे लगी । ऐसे में कई बार रिश्ता गौण और स्वार्थ प्रमुख हो जाता है ।
पहले आर्थिक समृद्धि जिन रिश्तों को जोडती थी आज उनमें ईष्र्या पैदा कर रही है । एक भाई अगर अमीर है और दूसरा गरीब तो फिर उनमें रिश्तों की आत्मीयता की जगह एक खास किस्म की दूरी महसूस की जा सकती है । भारतीय समाज और संस्कृति के लिए यह अच्छे संकेत नहीं है ं। इस बदलाव की अभिव्यक्ति भी अब विविध माध्यमों से होने लगी है । बागवान फिल्म में रिश्तों में आ रहे इस बदलाव को बडी कलात्मकता के साथ परदे पर उतारा गया है । सचमुच बदलते परिवेश में अब बच्चे दादा-दादी के प्यार, ताऊ-ताई के दुलार से वंचित होने लगे हैं । अपनी जिद पूरी कराने के लिए अब उन्हें चाचा-चाची नहीं मिल पाते हैं । बुआ-फूफा, मामा-मामी, मौसा-मौसी से भी खास मौके पर ही मुलाकात हो पाती है । अब कहानियां सुनाने के लिए उनके पास बुजुर्ग होते ही नहीं है ं। इन स्थितियों पर वैचारिक मंथन की जरूरत है । हमें इस ओर ध्यान देना होगा । नई पीढ़ी को रिश्तों का अहसास कराना होगा । ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते मजबूत हों । रिश्तों की आत्मीयता, संवेदनशीलता और प्रेम गहरा होगा, तभी समाज मजबूत होगा ।
Sunday, September 21, 2008
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3 comments:
रिश्तों की आत्मीयता, संवेदनशीलता और प्रेम गहरा होगा, तभी समाज मजबूत होगा- अक्षरशः सहमत हूँ आपसे!!!
very nice sir
क्या आज संपत्ति मां और पुत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगी है? क्या समाज में हिंसक प्रवृत्तियां अधिक प्रभावशाली होने लगी हैं? क्या हम भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों को भूलने लगे हैं? इन सवालों पर विचार करना जरूरी है ।
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