Friday, November 13, 2009

घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
बेहतर जिंदगी और श्रेष्ठ समाज के लिए सबसे जरूरी चीज है संवेदना । संवेदना यानी दूसरे की वेदना को खुद भी महसूस कर पाना । संवेदना ही मनुष्यता को विस्तार देती है । पारिवारिक सदस्यों में परस्पर संवेदनशीलता जितनी ज्यादा होगी, रिश्ते उतने ही गहरे और मजबूत होंगे । मनुष्य संवेदनशील हो, परिवार संवेदनशील हो और समाज संवेदनशील हो, तो काफी कुछ परेशानियां और दुख खुदबखुद खत्म हो जाएंगे । लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है । घरेलू हिंसा को लेकर जो ताजा सर्वेक्षण हुआ है, उसने परिवारों खास तौर से पति-पत्नी के रिश्तों में पैदा हो रही संवेदनशीलता की बड़ी खौफनाक तस्वीर पेश की है ।
वर्ष २००५ में बने घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम को लेकर राष्ट्रीय महिला आयोग और लॉयर्स कलेक्टिव नामक संस्था ने एक सर्वे कराया । इस सर्वे के मुताबिक कोई भी राज्य ऐसा नहीं है, जहां घरेलू हिंसा से संबंधित मामले सामने नहीं आए हों । घरेलू हिंसा के उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक ३,८९२ मामले दर्ज किए गए, जबकि दिल्ली में ३,४६३ और केरल में ३,१९० मामले सामने आए। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी घरेलू हिंसा से संबंधित काफी मामले दर्ज हुए हैं ।
घरेलू हिंसा कोई नई नहीं है । सदियों से यह भारतीय समाज में प्रचलित है । घर की चाहरदीवारी में कैद महिलाएं तमाम जुल्म और ज्यादतियों को चुपचाप सह जाती हैं । वह इसे अपने जीवन की नियति मान लेती हैं । मारपीट करने वाला पति उनके लिए देवता बना रहता है । इन स्थितियों के बीच क्यों घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम की जरूरत पड़ी ? दरअसल वक्त बदल रहा है । पहले महिलाएं इसलिए जुल्म सहती थीं क्योंकि उनका आर्थिक आधार होता ही नहीं था । पति की उनकी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का माध्यम था । अब महिलाएं स्वाबलंबी हो रही हैं । खुद अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं तो फिर क्यों पति का जुल्म बरदाश्त करें ? पहले शिक्षित लड़कियों और महिलाओं की संख्या कम थी ? लड़कियों को बाहर जाकर पढऩे लिखने की आजादी बहुत कम थी । अशिक्षा उनके आत्मविश्वास को इतना कमजोर कर देती थी कि वह कोई आवाज ही नहीं उठा पाती थीं । पति का जुल्म भी इसीलिए चुपचाप बरदाश्त करती थीं ।
अब लड़कियों और महिलाओं की जिंदगी में व्यापक बदलाव आ रहा है । वह पढ़ाई के लिए मनपसंद स्कूल-कालेजों में जा रही हैं । घर की दहलीज लांघकर नौकरी करने के लिए बाहर निकल रही हैं । आर्थिक रूप से भी मजबूत हो रही हैं। ऐसे में वह घरेलू हिंसा को क्यों सहन करें ?
गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि घरेलू हिंसा के मामलों का दर्ज होना अच्छा भी है और खराब भी । अच्छा इसलिए क्योंकि यह महिलाओं के साहस का भी प्रतीक है कि वह पति की ज्यादतियों का प्रतिकार कर रही हैं । अपने हक की लड़ाई के लिए आवाज बुलंद कर रही हैं । खराब इसलिए कि तमाम सामाजिक जागरूकता और शिक्षा के बाद भी घरों के अंदर ही अच्छा माहौल नहीं बन पा रहा। महिलाओं को यथोचित सम्मान नहीं मिल पा रहा । इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं। वह हिंसा जो महिला के तन को ही नहीं मन को भी घायल कर देती है । सभ्य समाज के लिए घरेलू हिंसा कलंक की ही तरह है। इसे रोकने के लिए गंभीरता से प्रयास होने चाहिए ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, October 4, 2009

संस्कृत को रोजगार से जोड़ें

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
सोमवार पांच अक्टूबर को संस्कृत दिवस है । वही संस्कृत जिसे देवभाषा माना गया । समस्त भाषाओं की जननी भी संस्कृत को ही कहा जाता है । इसी भाषा समस्त वेदों का ज्ञान समाहित है । संस्कृत भाषाओं के अनेक श्लोक जीवन का मार्गदर्शन करने में महती भूमिका निभाते हैं । 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताÓ श्लोक भारतीय समाज में नारी की उच्चता को स्थापित करता है । 'परित्राणाय साधुनाम् विनाशाय च दुष्कृतांÓ श्लोक में संपूर्ण जीवन जीने का तरीका समाहित है । वेदों की ऋचाएं युगों-युगों से संपूर्ण मानव जाति के जीवन को दिशाबोध कराती हैं । संस्कृत का मूषक: शब्द हिंदी में मूस और अंग्रेजी में माऊस हो गया । यह तो महज एक उदाहरण है । ऐसे अनेक शब्द हैं जो संस्कृत से दूसरी भाषाओं ने अंगीकार किए ।
इतनी अर्थवत्ता वाली भाषा कैसे पिछड़ती चली गई ? इस पर चिंतन करके इसके विकास के बारे में विचार करना ही संस्कृत दिवस की सार्थकता होगी । दरअसल, जो भाषा रोजगार न दे सके, वह समाज के लिए अधिक उपयोगी नहीं रह पाती । संस्कृत के साथ यही हुआ । संस्कृत सिर्फ विद्यालीय अथवा विश्वविद्यालीय पठन-पाठन का हिस्सा बनकर रह गई । उसकी पुस्तकें शोध का विषय तो बनी पर आम जनता में अपनी जगह नहीं बना पाई । इसकी वजह यह रही कि संस्कृत की उच्च स्तर तक की पढ़ाई करने पर रोजगार के व्यापक अवसर सुलभ नहीं है । सिर्फ शिक्षक के रूप में ही सर्वाधिक रोजगार संस्कृत पढऩे वालों को मिलता है । कंप्यूटर पर भी संस्कृत भाषा का काम नहीं हो पाता है । यही वजह रही कि संस्कृत दुर्दशा का शिकार होती गई । अधिकतर संस्कृत विद्यालय भी बदहाल हैं ।
ऐसी स्थिति में जरूरी है कि इस वैज्ञानिक युग में संस्कृत भाषा में विज्ञान, तकनीक, कंप्यूटर, वाणिज्य संबंधी पुस्तकें होनी चाहिए ताकि संस्कृत के विद्यार्थी उनका अध्ययन कर श्रेष्ठ वैज्ञानिक और व्यवसायी बन सकें । संस्कृत में रोजगार केअवसर बढ़ाने की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए । इस तरह के प्रयास होंगे तो संस्कृत अपनी खोयी प्रतिष्ठा दोबारा हासिल कर लेगी ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Tuesday, September 22, 2009

उच्च शिक्षा में उपजे सवाल

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर में नौ सितंबर को छात्रों ने जो तांडव मचाया वह शिक्षा और राजनीति के समीकरणों से जुड़े कई सवालों पर मंथन करने के लिए विवश करता है। छात्रसंघ बहाली की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे उग्र छात्रों ने वीसी दफ्तर पर पथराव किया, कई स्थानों पर तोडफ़ोड़ की। पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। विश्वविद्यालय के आसपास के इलाकों में करीब डेढ़ घंटे तक छात्रों का यह तांडव चलता रहा। कई लोग घायल हुए। रैगिंग से परेशान होकर १५ सितंबर को लखनऊ के आजाद इंस्टीट्ïयूट ऑफ इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी में बीटेक प्रथम वर्ष की छात्रा पूनम ने कैंपस में छत से कूदकर जान दे दी। वास्तव में यह अराजक स्थिति है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग लगातार परिसरों में शैक्षिक वातावरण सृजन पर जोर दे रहा है लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों से विश्वविद्यालय परिसरों में हो रही ऐसी अराजक घटनाएं उसके मंसूबों पर पानी फेरती लगती हैं। बेहतर पढ़ाई के लिए पहली शर्त अनुशासन की होती है लेकिन परिसरों में इसकी कमी दिखाई देती है।
कभी छात्र राजनीति के चलते तो कभी शिक्षकों अथवा कर्मचारियों के आंदोलन के कारण विद्यार्थियों की पढ़ाई में बाधा पैदा हो जाती है। कुछ स्थानों पर शिक्षकों की कमी विद्यार्थियों केलिए परेशानी का सबब बन जाती है। कई विश्वविद्यालयों के छात्रावास भी असामाजिक गतिविधियों संचालित होने के कारण चर्चा में आए हैं। इन हॉस्टलों में पढ़ाई पूरी करने के बाद भी दबंग छात्र कई कई सालों तक जमे रहतेे हैं। नए छात्रों पर रौब गांठना, रैगिंग करना और उल्टे-सीधे काम करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना ऐसे छात्रों का उद्देश्य होता है। मेधावी छात्र ऐसी स्थिति में हॉस्टल में अपनी पढ़ाई ढंग से नहीं कर पाते हैं।
वजह कुछ भी रही हो, लेकिन इन घटनाओं के संदर्भ और सूबे में विश्वविद्यालयों की स्थितियों को देखते हुए आज यह विचार करना नितांत जरूरी है कि कैसे परिसरों का माहौल ऐसा बनाया जाए जिससे विद्यार्थी पूरे मनोयोग से वहां पढ़ाई कर पाएं। आज ऐसी घटनाएं भी बढ़ी हैं जो ज्ञान केमंदिरों का माहौल दूषित कर रही हैं, उन्हें कैसे रोका जाए। मौजूदा दौर में उच्च शिक्षा में उपज रही चुनौतियों से जुड़े सवालों के जवाब तलाशने होंगे। यह विचार करना होगा कि क्या उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का बेहतर माहौल है? क्या छात्रों की मानसिकता पढऩे की है या उसमें कुछ भटकाव भी शामिल हो गया है? क्या शिक्षक वर्ग अपने दायित्वों का सही प्रकार निर्वाह कर रहे हैं? क्या मोटा वेतन लेने के बदले वह विद्यार्थियों को अच्छी तरह पढ़ा रहे हैं? क्या छात्र राजनीति विश्वविद्यालयों का माहौल बना रही है या बिगाड़ रही है? अभिभावक अपनी मेहनत की कमाई से जो मोटी फीस अपने बच्चों की पढ़ाई केलिए विश्वविद्यालय को देते हैं क्या उसके बदले में विश्वविद्यालय उन्हें वह ज्ञान दे पाता है जिसकी आकांक्षा लेकर वह आते हैं? क्यों नई पीढ़ी में कई बार डिग्री लेने के बाद भी निराशा की अधिकता और आत्मïिवश्वास की कमी होती है?
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, September 13, 2009

रोजगार और बाजार से जुड़ी हिंदी, जगा रही अपार संभावनाएं

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
हिंदी के प्रति अब नजरिया बदल रहा है । अब तक अंग्रेजी इसलिए ज्यादा पढ़ी जाती थी क्योंकि उसे रोजगार दिलाने में सहायक माना जाता था । अब हिंदी भी रोजगार और बाजार से जुड़ रही है। ऐसे में हिंदी के विस्तार की अपार संभावनाएं पैदा हो रही हैं । इसलिए समय आ गया है कि अब हम हिंदी दिवस पर इस गौरवशाली भाषा की दुर्दशा को रेखांकित करने की बजाय इसके प्रयोग में शुद्धिकरण और मानकीकरण पर विचार करें । मौजूदा दौर में सर्वाधिक अखबार हिंदी के बिक रहे हैं । हिंदी चैनल देखने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है । रेडियो सुदूर अंचलों में हिंदी माध्यम से ही अपनी बात जनमानस तक पहुंचाता है । इन तीनों माध्यमों में बड़ी संख्या में हिंदी वाले रोजगार हासिल कर रहे हैं । पहले की तरह वे अल्पवेतनभोगी नहीं हैं बल्कि अच्छा वेतन प्राप्त कर रहे हैं । सरकारी विभागों में हिंदी अधिकारी और अनुवादक जैसे पद सृजित हुए हैं । प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी के माध्यम से कामयाबी की कहानी लिखी जा रही है । भारतीय प्रशासनिक सेवा में हिंदी विषय ने अनेक प्रतियोगियों का बेड़ा पार किया। विदेशों में हिंदी के प्रति रुझान बढ़ रहा है। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है ।
हिंदी भाषी बाजार भी संभावनाएं जगा रहा है । विदेशी कंपनियों को अपने उत्पाद भारत में बेचने केलिए हिंदी में विज्ञापन बनाना मजबूरी है । हिंदीभाषियों तक उत्पाद की गुणवत्ता बताने के लिए उन्हें वही अधिकारी तैनात करने पड़ रहे हैं जो हिंदी जानते हैं । कई टेलीविजन चैनलों ने इसी बाजार के दबाव में अंग्रेजी का चोला बदलकर हिंदी को अपनाया। सरकारी कामकाज में भी हिंदी का बोलबाला बढ़ रहा है ।
ऐसे में हिंदी को और विस्तार देने के लिए प्रयास करने होंगे । उसे सिर्फ साहित्य की भाषा के दायरे से बाहर निकालकर विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य आदि विषयों से जोडऩा होगा । ऐसे तमाम विषयों का पठन-पाठन हिंदी में होने लगे तो हिंदी का परचम पूरे देश में लहराने लगेगा। हिंदी की पुस्तकें पढऩे और खरीदने की प्रवृत्ति भी विकसित करनी होगी । हिंदी पुस्तकें पढऩे का संस्कार विकसित हो गया तो भाषा का पक्ष काफी मजबूत होने लगेगा ।
अव वक्त है कि हिंदी भाषा को शुद्ध लिखने, पढऩे और बोलने की ओर ध्यान केंद्रित किया जाए । ईमेल, एसएमएस और इंटरनेट पर हिंदी लेखन में बढ़ रही अशुद्धियों को रोकने पर विचार किया जाए । हिंदी को रोमन लिपि में लिखने की बढ़ती प्रवृत्ति नहीं रोकी गई तो देवनागरी लिपि को खतरा पैदा हो जाएगा । हिंदी को राष्ट्रीय भाषा मानकर इसके प्रति समर्पण भाव जागृत करने की दिशा में काम किया जाए । ऐसा होने पर हिंदी पढऩा लिखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्मान का विषय होगा । हिंदी जनमानस के जीवन और कर्म से जुड़ेगी,तभी हिंदी अपना वास्तविक गौरव हासिल कर पाएगी ।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)

Monday, August 10, 2009

रचनात्मकता को विस्तार देते ब्लाग

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
चंडीगढ की डीएवी कॉलेज मैनेजिंग कमेटी ने ब्लाग का जिस तरह से उपयोग करने की योजना बनाई है, वह दूसरे विद्यालयों के लिए अनुकरणीय हो सकता है । कमेटी ने तय किया है कि अब शिक्षक क्लास में तो पढ़ाएंगे ही, साथ ही रोजाना ब्लाग के माध्यम से छात्रों केसंपर्क में रहेंगे । इससे छुट्टी के बाद भी छात्रों की हर समस्या चुटकियों में हल होगी और बच्चों के मन से परीक्षा का डर भी खत्म होगा । ब्लाग जहां बच्चों को कोचिंग देगा वहीं उन्हें शिक्षकों का उचित मार्गदर्शन भी मिलेगा । शिक्षक भावनात्मक रूप से भी बच्चों से जुड़ सकेंगें। इससे बच्चों में निराशा का भाव पैदा नहीं होगा और आत्मविश्वास बढ़ेगा ।
दरअसल, इंटरनेट की उपलब्धि से उपजे ब्लाग ने रचनात्मकता के विस्तार की अपार संभावनाओं को जागृत किया है । ब्लाग अर्थात बेब लॉग को इंटरनेट पर लिखी डायरी के तौर पर समझा जा सकता है। यह व्यक्ति के निजी विचारों को पूरी दुनिया तक पहुंचाने का माध्यम है। अनेक बेबसाइट निशुल्क ब्लाग बनाने और उसे संवारने की सुविधा उपलब्ध कराती हैं। ब्लाग में व्यक्ति स्वयं लेखक, प्रकाशक, संपादक और प्रसारक है। अपनी लिखी सामग्री को वह एग्रीगेटर्स के माध्यम से पूरी दुुनिया तक पहुंचाता है। एग्रीगेटर ब्लाग की जानकारी देने का प्लेटफार्म है। ब्लाग की खासियत यह भी है कि इसे किसी भी समय और कहीं भी सचित्र पब्लिश किया जा सकता है और पढ़ा जा सकता है । पाठक को इसमें कमेंट करने की सुविधा होती है । कमेंट करने वाले का फोटो भी प्रकाशित होता है । यह कमेंट ब्लाग लेखक के लिए प्रोत्साहन का माध्यम बनते हैं और उसे कुछ और लिखने की प्रेरणा देेते हैं।
ब्लाग ने पूरी दुनिया के रचनाकारों को एक सूत्र में बांधने का काम किया है। इसके माध्यम से उन लोगों को भी पहचान मिली है जो किन्हीं कारणोंवश अपनी रचनात्मकता को जनता तक नहीं पहुंचा पाए। रचनात्मकता को विस्तार देने, उसे निखारने और व्यापक फलक पर प्रदर्शित करने का यह माध्यम निसंदेह अनेक प्रतिभाओं को सामने भी लाया है ।
विभिन्न क्षेत्रों के जुड़े व्यक्ति अपने दृष्टिकोण से इसका उपयोग कर रहे हैं । पिछले कुछ समय से हिंदीभाषी क्षेत्रों में भी ब्लाग की लोकप्रियता लगातार बढ़ती जा रही है हालांकि यह संख्या में अंग्रेजी की अपेक्षा काफी कम हंै। अंग्रेजी में पूरी दुनिया में पांच करोड से ज्यादा ब्लाग हैं जबकि हिंदी में अभी लगभग दस हजार ही ब्लाग हैं । रोजाना लगभग २०-३० नए ब्लाग हिंदी के बन रहे हैं। युवाओं में ब्लाग बहुत लोकप्रिय हो रहे हैं। साथ ही साहित्य, मीडिया, चिकित्सा, कला समेत विविध क्षेत्रों से जुड़ी प्रतिभाएं ब्लाग पर अपनी रचनात्मकता के आकार दे रही हैं । बहुत सुंदर और सार्थक चित्रों का उपयोग ब्लाग को मोहक बना रहा है।
साहित्यकारों की समग्र रचनाएं भी ब्लाग पर उपलब्ध हैं । गीत, गजल, कविता, कहानी, लघुकथा लेखन भी ब्लाग पर खूब हो रहा है । मीडिया पर मंथन और विश्लेषण का काम भी ब्लाग जगत में चलता है । कोई ब्लागर विधि संबंधी जानकारी दे रहा है तो कोई चिकित्सा संबंधी समस्याओं के निदान बता रहा है । ज्वलंत विषयों पर समसामयिक टिप्पणी भी ब्लाग पर मौैजूद हैं । युवाओं की चिंताओं और समस्याओं को भी अभिव्यक्त किया जा रहा है ।
निजी भावनाओं को कलात्मक अभिव्यक्ति भी ब्लाग पर मिल रही है । भावनात्मक संबंधों का अनूठा संसार ब्लाग पर बन रहा है। हजारों मील दूर बैठे ब्लागर परस्पर भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं । हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार का काम भी इस विधा के माध्यम से हो रहा है । देश की सीमा ब्लाग लेखन में बाधा नहीं बनती । यही वजह है कि अनेक नामचीन लोग अब ब्लाग लेखन में रुचि ले रहे हैं । पिछले लोकसभा चुनाव में अनेक प्रत्याशियों ने अपनी बात जनता तक पहुंचाने का माध्यम ब्लाग को भी बनाया ।
वास्तव में ब्लाग का अगर सही दिशा में सार्थक उपयोग किया जाए तो यह ज्ञान के विस्तार, रचनात्मकता की अभिव्यक्ति और अपनी भावनाएं जनमानस तक पहुंचाने का तीव्र और प्रभावशाली माध्यम है । भारत में जिस तरह से कंप्यूटर और इंटरनेट का उपयोग बढ़ रहा है, उससे ब्लाग लेखन में अपार संभावनाएं जागृत हो रही हैं। चंडीगढ़ जैसे और भी कई सकारात्मक प्रयोग ब्लाग के माध्यम से संभव होंगे ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, July 26, 2009

इन देशभक्त महिलाओं के जज्बे को सलाम

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
२५ जुलाई को १७८ महिलाओं ने देश में नया इतिहास रच दिया। इस दिन पहली बार सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में शामिल होने के लिए १७८ महिला जवानों के फस्र्ट बैच ने होशियारपुर के गांव खड़कां स्थित सहायक प्रशिक्षण केंद्र में पास आउट किया । यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि अब इन महिला जवानों के केकंधों पर देश की सीमाओं की सुरक्षा करने की महती जिम्मेदारी होगी । पिछले साल ११ जून को जब सुरक्षा बल के जालंधर स्थित मुख्यालय में महिला जवानों भरती आयोजित की गई थी तब भी महिलाओं के देशभक्ति के जज्बे की मिसाल सामने आई थी । यह गौरव का विषय है कि विषम परिस्थितियों में फौजी दायित्वों को निभाने केलिए साढ़े आठ हजार महिलाओं ने आवेदन किया था । इनमें से ही ४८० का चयन किया गया था। इनका प्रशिक्षण गत वर्ष १० नवंबर से शुरू हुआ था और ३६ सप्ताह के कड़े प्रशिक्षण के बाद अब यह जवान तैनाती के लिए तैयार हैं । इन कांस्टेबल को मुख्यत: ५५३ किलोमीटर लंबी भारत-पाकिस्तान सीमा पर मौजूद ३०० गेटों पर गेट के आरपार आने जाने वाली महिलाओं की तलाशी के लिए तैनात किया जाएगा । इसके अलावा जरूरत के अनुसार बीएसएफ के सामान्य कामों, आंतरिक सुरक्षा ड्यूटी और आतंकवाद निरोधी आपरेशन में भी तैनात किया जाएगा ।
यह एक सुखद संकेत है कि फौज के प्रति लड़कियों का रुझान बढ़ रहा है । इसी केचलते अनेक छात्राएं एनसीसी कैडेट के रूप में प्रशिक्षण लेती हैं । सैन्य बलों में पिछले कुछ समय में बड़ी संख्या में हुई महिलाओं की भर्ती भी इसी का उदाहरण हैं । कुछ साल पहले तक सैन्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी नहीं होती थी। वे खुद भी इसे करियर के विकल्प के तौर पर नहीं लेती थीं। महिलाओं को शिक्षा, बैंकिग और सरकारी सेवा आदि क्षेत्र रोजगार केलिए बेहतर विकल्प लगते थे । लेकिन अब परिवेश बदला है। महिलाएं जोखिम भरे क्षेत्रों को भी सेवा और करियर केरूप में अपनाने लगी है। यही महिलाओं भविष्य में दुश्मनों केदांत खट्टे करके रानी झांसी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानियों की पुनरावृत्ति करेंगी । दरअसल, सैन्य बलों में वही महिलाएं भर्ती हो पाती हैं जिनमें देशसेवा का जज्बा होता है । बीएसएफ में भर्ती होने वाली इन महिलाओं में निसंदेह यह जज्बा है, इसीलिए ही उन्होंने करियर केरूप में यह विकल्प चुना है । इनके इस शानदार जज्बे को सलाम ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Monday, July 13, 2009

शिवभक्ति और आस्था का प्रवाह है कांवड़ यात्रा

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
भगवान भोले शंकर की भक्ति, आस्था और श्रद्धा की प्रतीक है कांवड़ यात्रा । भोले के भक्त भगवान आशुतोष को प्रसन्न करने के लिए श्रावण माह में कांवड़ में पवित्र गंगाजल लाकर उससे भगवान आशुतोष का अभिषेक करते हैं । पिछले कुछ वर्षों में कांवड़ मेला विश्व के सबसे बड़े मेले के रूप में माना जाने लगा है । धार्मिक मान्यताओं के लिए पूरे विश्व में अलग पहचान रखने वाले भारतवर्ष के पश्चिमी उत्तरप्रदेश क्षेत्र में कांवड़ यात्रा के दौरान भोले के भक्तों में अद्भुत आस्था, उत्कट उत्साह और अगाध भक्ति के दिग्दर्शन होते हैं । कांवड़ यात्रा के दौरान राजमार्गों पर भगवा वस्त्रधारियों की अनंत श्रंखला बन जाती है । भोले बम के उद्घोष से राजमार्ग गूंजते रहते हैं । भीषण गर्मी में विषम परिस्थितियों कांवड़ लाने वालों में पुरुष, महिला और बच्चे सब शामिल रहते हैं । रंग-बिरंगी सजी कांवड़ों के संग भक्ति से झूमते श्रद्धालुओं का उत्साह देखते ही बनता है । कांवडिय़ों की सेवा के लिए लगने वाले शिविर जनमानस की सेवा भावना के प्रतीक हैं । कांवडिय़ों के लिए भोजन, जल, फल और रात्रि विश्राम की व्यवस्था इन शिविरों में होती है । विविध स्वयंसेवी संगठनों की ओर से आयोजित शिविरों में सेवा करके लोग स्वयं को धन्य महसूस करते हैं । कई बार लोगों के मन में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि कांवड़ क्यों लाई जाती है ? भगवान आशुतोष के जलाभिषेक का क्या महत्व है ?
यूं तो कांवड़ यात्रा का कोई पौराणिक संदर्भ नहीं मिलता, लेकिन कुछ किवंदतियां हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम दिग्विजय के बाद जब मयराष्ट्र (वर्तमान मेरठ)से होकर निकले तो उन्होंने पुरा में विश्राम किया और वह स्थल उनको अत्यंत मनमोहक लगा । उन्होंने वहां पर शिव मंदिर बनवाने का संकल्प लिया। इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना करने के लिए पत्थर लाने वह हरिद्वार गंगा तट पर पहुंचे । उन्होंने मां गंगा की आराधना की और मंतव्य बताते हुए उनसे एक पत्थर प्रदान करने का अनुरोध किया। यह अनुरोध सुनकर पत्थर रुदन करने लगे । वह देवी गंगा से अलग नहीं होना चाहते थे। गंगा मां की शीतलता त्यागने का विचार उनके लिए अत्यंत कष्टदायक था। इस पर भगवान परशुराम ने आश्वस्त किया कि जो पत्थर वह ले जाएंगे, उस पर शिवरात्रि को गंगाजल से अभिषेक किया जाएगा । इस दिन सदैव वह मंदिर परिसर में विराजमान रहेंगे । इस आश्वासन के बाद हरिद्वार के गंगातट से भगवान परशुराम पत्थर लेकर आए और उसे शिवलिंग के रूप में पुरेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित किया । तब से ऐसी मान्यता है कि शिवरात्रि पर यहां गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक करने से शिव की कृपा प्राप्त होती है । इसी मान्यता के कारण शिवभक्त कांवडिय़े तमाम कष्टों को सहते हुए हरिद्वार से गंगाजल लाकर पुरा महादेïव में शिवलिंग पर अर्पित करते हैं । इस दिन यहां कांवडिय़ों का सैलाब उमड़ पड़ता है ।
आस्था का यह पर्व अब विराट रूप धारण कर चुका है। प्रतिवर्ष करीब एक करोड़ शिवभक्त कांवडिये हरिद्वार से जल लेकर आते हैं । अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति केलिए कांवड़ लाने वाले भोले के भक्त पुरा महादेव ही नहीं, अनेक शिवालयों में शिवरात्रि पर जलाभिषेक करते हैं। पुरा महादेव के बाद मेरठ में औघडऩाथ मंदिर की सर्वाधिक मान्यता है ।
इसी संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि भगवान आशुतोष देवी गंगा को ज्येष्ठ दशहरा को इस पृथ्वी पर लेकर आए थे। गंगा उनकी जटाओं में विराजमान हुईं। इसलिए भगवान शंकर को गंगा अत्यंत प्रिय हैं । गंगाजल के अभिषेक से वह अत्यंत प्रसन्न होते हैं । इसी के साथ दुग्ध, बेलपत्र और धतूरा अर्पित करने से भगवान आशुतोष भक्त पर प्रसन्न होते हैं और उस पर कृपा करते हुए मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं । श्रावण मास भगवान शिव की साधना का सर्वश्रेष्ठ समय है । इसीलिए श्रद्धालु श्रावण मास में सोमवार के व्रत रखते हैं और भगवान भोलेशंकर की आराधना करते हुए उनके प्रिय पदार्थ उन्हें अर्पित करते हैं। उत्तर भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में श्रावण मास में शिवभक्ति का विराट रूप और आस्था का अनंत प्रवाह कांवड़ यात्रा के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Saturday, May 30, 2009

फेल होने पर खत्म नहीं हो जाती जिंदगी

डॉ. अशोक प्रियरंजन
ऐसा पहली बार नहीं हुआ। हर साल परीक्षाफल आने के दिनों में ऐसा ही होता है। फेल होने पर कई छात्र-छात्राएं जिंदगी से मुंह मोड़ लेते हैं। इस बार यह संख्या कुछ ज्यादा महसूस हुई। शनिवार ३० मई को हाईस्कूल में फेल होने पर मेरठ शहर में ही तीन छात्राओं ने अपनी जान दे दी। जिन आंखों ने अभी पूरी तरह सपने भी नहीं सजाए थे, वे हमेशा के लिए बंद हो गई। इन मासूमों की मौत उनके परिजनों के लिए कभी न मिटने वाला दर्द दे गईं। ऐसे में सहज ही यह सवाल खड़ा हो जाता है कि क्या जिंदगी से बड़ा है कैरियर का ग्राफ? क्या फेल हो जाने मात्र से ही बंद हो जाते हैं जिंदगी के सारे रास्ते? क्या फेल होना इतना अपमानजनक है कि जिंदगी ही दांव पर लगा दी जाए? इन सवालों के जवाब तलाश करने के लिए वैचारिक मंथन जरूरी है।
एक कड़वा सच यह है कि देश में हर साल करीब २४०० छात्र परीक्षा के तनाव या फिर फेल होने पर खुदकुशी कर लेते हैं। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह यह है कि आज अभिभावक बच्चों से पढ़ाई और करियर को लेकर बहुत अधिक उम्मीदें रखने लगे हैं। माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए वह जी-तोड़ मेहनत भी करते हैं लेकिन कई बार वह अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते हैं तो निराशा में आत्महत्या कर लेते हैं। परीक्षा में फेल होने वाले बच्चों की खुदकुशी केपीछे यही मानसिकता होती है।
अलबत्ता आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं विद्यार्थियों के जीवन में बढ़ रही निराशा, संघर्ष करने की घटती क्षमता और जीने की इच्छाशक्ति की कमी की ओर भी संकेत करती हैं। मौजूदा समय के भौतिकवादी माहौल ने लोगों की महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को काफी बढ़ा दिया है। अभिभावक परीक्षा के अंकों को जिंदगी से जोड़ देते हैं। अधिक अंक का पाने का सपना टूटता है और अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं तो विद्यार्थी जिंदगी से ही मायूस हो जाते हैं। इसीलिए छात्र-छात्राओं में आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं।
ऐसी स्थिति में अभिभावकों और शिक्षकों का दायित्व है कि वे बच्चों में आत्मविश्वास, जीवन के प्रति दायित्वबोध और आगे बढऩे का भाव जागृत करें। उन्हें बताएं कि अंक कम आने मात्र या फेल हो जाने से जिंदगी में आगे बढऩे की प्रक्रिया खत्म नहीं हो जाती। हर बच्चे में कुछ प्रतिभा होती है। शिक्षकों और अभिभावकों को बच्चे की उस प्रतिभा को पहचानकर उसके आगे बढऩे का रास्ता बताना चाहिए। इससे बच्चे में आत्मविश्वास पैदा होगा और यही आत्मविश्वास उसमें जिंदगी के प्रति मोह भी पैदा करेगा।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)