Monday, April 25, 2011

शब्दों की सत्ता

-डॉ. अशोक प्रियरंजन

आवाज जगाती है अहसास
शब्द रच देते हैं
सपनों का नया संसार।

सपने जिंदगी के
सपने अपनों के
सपने सोती आंखों के
सपने जागती आंखों के।
सपनों केमूल में है
शब्दों की अनंत सत्ता।

शब्दों से ही आकार
लेता है ब्रह्म।

शब्दों से ही आकार लेती है जिंदगी
शब्दों संग चलती जिंदगी
शब्द बन जाते हैं अर्थवान
कर देते हैं जिंदगी को सार्थक
शब्द जब हो जाते हैं निरर्थक
जिंदगी में भर देते हैं मायूसी।

शब्द हो जाते हैं मौन
तब भी देते हैं नया अर्थ
जिंदगी के लिए।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

Friday, April 22, 2011

पति-पत्नी के झगड़ों में बच्चों को क्यों दे रहे मौत?

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
मौजूदा दौर में देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी बहुत सी घटनाएं हो रही हैं जिनमें पति-पत्नी के झगड़ों में बच्चों को मौत मिल रही है। गृहकलह के चलते पहले बच्चों को मौत की नींद सुलाकर खुद भी आत्महत्या करने की घटनाएं किसी भी संवेदनशील मनुष्य को झकझोर जाती हैं। सहज ही मन में यह सवाल उठता है कि इन निर्दोष मासूम बच्चों का क्या कुसूर था? इन्हें क्यों जिंदगी शुरू होने से पहले ही मौत दे दी गई? चिंता की सबसे बड़ी बात यह है कि ऐसी घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं? संभवतया बच्चों की परवरिश कौन करेगा, जैसे सवालके चलते ही खुदकुशी से पहले बच्चों को मार डालने की घटनाएं हो रही हैं। पिछले एक हफ्ते में अगर यूपी में ही ऐसी चार घटनाएं हुई हैं तो संख्या निश्चित रूप से पूरे देश के लिए चौंकाने वाली है जिसकी ओर सभी का ध्यान जाना चाहिए। जरा इन घटनाओं पर गौर करें।
२२ अप्रैल को ऐसी ही दो घटनाएं हुईं। गाजीपुर जिले के सैदपुर इलाके में दहेज केे लिए प्रताडि़त किए जाने से तंग आकर एक विवाहिता ने अपने दो मासूम बच्चों के साथ ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी। मामला खानपुर थाना क्षेत्र के रामपुर गांव का है। यहां के निवासी युवक की शादी वर्ष २००६ में वाराणसी के चोलापुर थाना क्षेत्र स्थित नियार गांव की २४ वर्षीया रजनी के साथ हुई थी। शुक्रवार की सुबह रजनी अपने पुत्री खुशी (०३) और पुत्र युवराज (०१) के साथ सिंधौना आई और वाराणसी से औडि़हार जा रही एक यात्री ट्रेन के आगे कूद गई। तीनों की घटनास्थल पर ही मौत हो गई। हालांकि ससुराल वाले घटना की वजह मामूली पारिवारिक खटपट बता रहे थे, जबकि मृतका के मायके वालों का कहना था कि दहेज में मोटरसाइकिल लाने की मांग को लेकर रजनी को प्रताडि़त किया जा रहा था। इसी कारण वह दोनों बच्चों संग खुुदकुशी करने को मजबूर हुई। मृतका के पिता रामदुलार की ओर से दी गई तहरीर केआधार पर मृतका के पति तथा सास के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लिया गया है।
दूसरी घटना बहराइच जिले के तुलसीपुर इलाके की है। यहां शादी के 22 साल बाद एक व्यक्ति ने पहली पत्नी के रहते दूसरी शादी रचा ली। पहली पत्नी से छुटकारा पाने के लिए वह अक्सर उसे मारता पीटता। चार बच्चों की मां शकुंतला अपने पति की बेवफाई तो सहन कर गई लेकिन प्रताडऩा बर्दाश्त नहीं कर सकी। उसने पहले अपने बच्चों को जहर मिला कर भोजन खिलाया फिर बाद में वही भोजन खुद भी खा लिया। इलाज के दौरान शकुंतला व उसकी पुत्री उमा देवी (१२) की मौत हो गई। जबकि जबकि तीन बच्चों की हालत नाजुक बनी हुई है। रुपईडीहा पुलिस ने आरोपी पति रामचंदर मिश्रा और उसकी पत्नी ऊषा देवी को गिरफ्तार कर लिया है।
१६ अप्रैल को भी ऐसी ही दो घटनाएं हुईं। मेरठ जिले के परीक्षितगढ़ कसबे में एक महिला ने अपने दो मासूमों को फांसी पर लटका कर खुद भी फांसी लगा ली। गंधार गेट पर रहने वाले प्रवीण की बीवी कविता ने तीन साल के बेटे आदित्य और एक साल की बेटी भावना को छत के कुंडे पर लटका दिया। बाद में खुद भी पंखे से लटककर जान दे दी। पड़ोसियों ने कमरे का दरवाजा तोडक़र शवों को निकाला।
इसी दिन सीतापुर के तालगांव थाना क्षेत्र में पत्नी से विवाद के बाद एक युवक ने अपनी दो बेटियों के साथ शारदा सहायक नहर में छलांग लगा दी। तीनों नहर में बह गए। बहादुरापुर मजरा कल्याणपुर निवासी शमशाद (२५) पुत्र अख्तर अपनी पत्नी रोजनी, दो साल की बेटी सोनी व छह माह की बेटी मोनी के साथ बस से बिसवां जा रहा था। वह तालगांव क्षेत्र के जीतामऊ चौराहे पर बस से उतर गया। इस बीच शमशाद व उसकी पत्नी में किसी बात को लेकर विवाद हो गया। विवाद के बाद शमशाद की पत्नी वापस घर चली गई। इससे नाराज शमशाद ने अपनी दोनों बेटियों के साथ मोहम्मदीपुर गांव के पास नहर में छलांग लगा दी। बिसवां क्षेत्र में बड़ी बेटी सोनी की लाश बरामद हो गई है।
ये घटनाएं इस बात की ओर संकेत कर रही हैं कि पति-पत्नी की कलह के चलते न केवल परिवार बिखर रहे हैं बल्कि बहुत बड़ी संख्या में बच्चों को जिंदगी से मुंह मोडऩे को मजबूर कर दिया जाता है? यह और कोई नहीं करता बल्कि उनके माता-पिता ही कर रहे हैं। सवाल पैदा होता है कि क्या जन्म देने वाले को यह हक है कि वह मौत भी दे दे? यह भी एक बड़ा सवाल है कि कैसे ऐसी दर्दनाक घटनाओं को रोका जाए। इस गंभीर मुद्दे पर समाजशास्त्रियों को भी विचार करने की जरूरत है। किसी भी तरह से बढ़ती हुई ऐसी घटनाओं पर तुरंत रोक लगाना जरूरी है।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

Wednesday, April 20, 2011

रात में रोशन रहने का इतिहास रचता गांव

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
मेरठ जिले के सरधना क्षेत्र के गांव ईकड़ी ने एक नया इतिहास रच दिया है। इक्कीसवीं सदी में जिस देश के बहुत सारे गांव अभी भी विद्युतीकरण से वंचित हों, वहां ईकड़ी ऐसा गांव है जहां रात में बिजली जाने पर भी अब मुख्य मार्गों पर अंधेरा नहीं रहता है। रात में रोशन रहने के मायने में यह गांव देश के लिए मिसाल बनकर उभर रहा है। यूं तो मेरठ जिला कई चीजों केलिए मशहूर रहा है, कभी नौचंदी मेले के लिए, कभी कैंची तो कभी खेल के सामान केलिए। लेकिन पिछले कुछ समय से यह जिला अपराधों केलिए भी जाना जा रहा है। अपराधियों केलिए रात का अंधेरा वारदातों को अंजाम देने केलिए सबसे मुफीद समय होता है। गांवों में रात में बिजली न होने केकारण अपराधियों केहौसले बुलंद रहते हैं। वारदात के बाद अंधेरे का फायदा उठाकर अपराधी बेखौफ फरार हो जाते हैं। लेकिन ईकड़ी गांव में हुआ प्रयोग कामयाब रहा तो बदमाशों केलिए अब रात में वहां भागना मुश्किल होगा। इसकी वजह यह है कि गांव की स्ट्रीट लाइट बिजली गुल होने के बाद भी इन्वर्टर और बैटरी से जगमग रहेंगी। ईकड़ी शायद हिंदुस्तान का अकेला पहला ऐसा गांव है जहां स्ट्रीट लाइट केलिए इन्वर्टर और बैटरी का इंतजाम किया गया है। ग्राम प्रधान अंजना त्यागी ने फिलहाल मुख्य मार्गों पर तीन-तीन इमरजेंसी स्ट्रीट लाइटों के पांच सैट गांव में लगवाए हैं। अगर यह प्रयोग कामयाब रहा तो इनकी संख्या बढ़ा दी जाएगी। इससे गांव को एक फायदा यह भी होगा कि रात में ग्रामीणों को आवागमन में कोई परेशानी नहीं होगी। गांव के बाशिंदों में जहां सुरक्षा की भावना बढ़ेगी, वहीं उनकी जिंदगी की रफ्तार रात में भी सुस्त नहीं होगी। रोजमर्रा के कामकाज निपटाने में भी सहूलियत होगी। रात में पूरे गांव का हमेशा रोशन रहना और एक शानदार मिसाल बनकर उभरना दूसरे गांवों के लिए प्रेरणा का माध्यम बन सकता है।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

Saturday, April 16, 2011

कब तक धोखे और अत्याचार का शिकार होंगी महिलाएं


-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
पूरी दुनिया में जब यह माना जा रहा हो कि मौजूदा दौर में महिलाएं तेजी से तरक्की कर रही हैं, वह अधिकारों के प्रति जागरूक हो रही हैं, हर क्षेत्र में वह पुरुषों के संग कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, तभी देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसी घटनाएं भी सामने आ रही हैं जो न केवल इन दावों पर सवालिया निशान लगा देती हैं, बल्कि सच्चाई की एक ऐसी तस्वीर पेश करती है जो हर आदमी के रोंगटे खड़े कर देती है। यह घटनाएं मौजूदा समाज में महिलाओं की हालत के बारे में सोचने केलिए विवश कर देती हैं। यह घटनाएं बताती हैं कि कैसे हर कदम पर महिलाएं धोखे और अत्याचार का शिकार होती हैं। कैसे उनके अस्तित्व से खिलवाड़ किया जा रहा है और उनकी अस्मिता को रौंदा जा रहा है?
पहली घटना राजस्थान के दौसा जिले से है। यहां तीन निजी अस्पतालों ने मोटी कमाई के चक्कर में पिछले वर्ष २२६ महिलाओं का गर्भाशय ही निकाल दिया। एक गैरसरकारी संगठन अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत की ओर से दाखिल आरटीआई आवेदन में यह खुलासा हुआ है। पंचायत के महासचिव दुर्गाप्रसाद ने दावा किया है कि अस्पतालों ने इसके लिए हर मरीज से नकदी भी वसूली। ये अस्पताल सरकारी स्कीम ‘जननी सुरक्षा योजना’ के तहत प्रसव कराने के लिए मान्यता प्राप्त हैं। जिला प्रशासन ने जांच के लिए दौसा की सीएमओ ओपी मीणा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति का गठन किया है। इतनी बड़ी संख्या में गर्भाशय तब निकाले गए जब इनकी जरूरत नहीं थी। अस्पताल की ओर से मरीजों को डराया गया कि अगर गर्भाशय नहीं निकाला गया तो मरीज के शरीर में इनफेक्शन फैलने का खतरा है।
दूसरी घटना, गाजियाबाद जिले केमोदीनगर इलाके के सीकरी खुर्द में हुई। यहां शनिवार को एक व्यक्ति ने इज्जत की खातिर एमबीए की पढ़ाई कर रही अपनी बेटी का गला घोटने के बाद शव को फांसी के फंदे पर लटका दिया और खुद कोतवाली में पहुंचकर समर्पण कर दिया। पिता में बेटी के प्रति नफरत की वजह यह थी कि उसके दूसरे संप्रदाय के युवक से प्रेम संबंध थे। आरोपी के बेटे ने पिता पर बहन की हत्या करने का आरोप लगाते हुए घटना की रिपोर्ट दर्ज कराई है।
तीसरी घटना, बाराबंकी जिले के हैदरगढ़ थाना क्षेत्र के दतौली गांव की है। यहां भूमि विवाद के चलते बदचलनी का आरोप लगाकर जेठ व चचेरे ससुर ने एक महिला को पेड़ से बांधकर निर्ममता से पिटाई की। मां को बचाने आयी १४ वर्षीय पुत्री की भी जमकर धुनाई कर दी। तमाशबीन बने ग्रामीणों की मौजूदगी में करीब तीन घंटे तक अत्याचार का सिलसिला चला। बाद में पुलिस ने महिला को दबंगों के चंगुल से मुक्त कराया और दो लोगों को गिरफ्तार किया।
चौथी घटना, अलीगढ़ की है। यहां-समस्या दो समाधान लो-जैसे कार्ड, पंफलेट छपवाकर एक कथित तांत्रिक ने दर्जनभर से अधिक महिलाओं के लाखों के जेवर ठग लिए। बन्नादेवी के रघुवीरपुरी (मसूदाबाद बस स्टैंड वाली गली) स्थित मार्केट में हुई इस घटना के बाद महिलाओं ने हंगामा शुरू किया तो पुलिस ने तांत्रिक की रिसेप्शनिस्ट को हिरासत में ले लिया है।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

Sunday, April 10, 2011

भ्रष्टाचारी करें कीर्तन


-डॉ. अशोक प्रियरंजन

अन्ना ने जब त्यागा अन्न,
पूरा देश रह गया सन्न ।

जनता ने जो दिया समर्थन,
भ्रष्टाचारी करें कीर्तन।

सत्ता हिल गई, नेता हिल गए,
राजनीति के अभिनेता हिल गए।

जनमानस में भर गया जोश,
देशद्रोहियों के उड़ गए होश।

जागृति की अलख जगा दी
गांधीजी की याद दिला दी।

चलती रहें जो ऐसी तदबीर,
देश की फिर बदले तकदीर।

Wednesday, April 6, 2011

ऐसे चलते हैं हिंदी के संस्थान

-एक संवाददाता
केंद्रीय हिंदी संस्थन, आगरा जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है पिछले दो वर्ष से बिना निदेशक के है और अब भी इस पद पर नियुक्ति हो पाने के आसार नहीं हैं, क्यों ?
हिंदी की सरकारी संस्थाएं किस तरह से काम करती हैं और किस हद तक चमचों, दरबारियों और छुटभइयों का अभयारण्य बन गई हैं इसका उदाहरण केंद्रीय हिंदी संस्थान है जो इस वर्ष अपनी स्थापना के 50 वर्ष मना रहा है।
संस्थान में पिछले दो वर्ष से कोई स्थायी निदेशक नहीं है। इस बीच तीन बार निदेशक के पद के लिए विज्ञापन निकाला गया। पहली बार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के सुधाकर सिंह का चुनाव भी हो चुका था पर बीच में ही मानव संसाधन विकास मंत्री के बदल जाने से सुधाकर सिंह की नियुक्ति इस तर्क पर नहीं हुई या होने दी गई कि वह अर्जुन सिंह के आदमी थे।
दूसरे व तीसरे विज्ञापन पर आये आवेदनों में चयन समिति को कोई ऐसा आदमी ही नहीं मिला जो इस पद के लायक हो। इसलिए केंन्द्रीय हिंदी संस्थान के वरिष्ठतम प्रोफेसर रामवीर सिंह को अस्थायी निदेशक बना दिया गया। ईमानदार रामवीर सिंह के लिए नये अध्यक्ष अशोक चक्रधर के चलते काम करना आसान नहीं हुआ (उदाहरण के लिए उनके फाइव स्टार होटलों के बिलों पर आपत्ति करना)। इसके अलावा यह भी कहा जाता है कि मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव की भी यह कोशिश रही कि संस्थान में कोई निदेशक आए ही नहीं और वह सीधे-सीधे मंत्रालय से नियंत्रित होता रहे। जो भी हो, अंततः कपिल सिब्बल के छायानुवादक (?) और कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार सामग्री तैयार करने वाले अशोक चक्रधर में मंत्री से अपनी नददीकी के चलते रामवीर सिंह को हटवा दिया और उनकी जगह तात्कालिक कार्यभार के. बिजय कुमार को सौंप दिया।
बिजय कुमार की हालत यह है कि वह पहले ही दो संस्थानों को संभाले हुए हैं। वैज्ञानिक तथा तकनीकी आयोग के अध्यक्ष के अलावा वह केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली के निदेशक का अतिरिक्त भार भी संभाले हुए हैं। मजे की बात यह है कि वह हिंदी के आदमी ही नहीं है और पहले ही अपने काम से बेजार और रिटायरमेंट के कगार पर हैं। सवाल यह है कि जब नये निदेशक का चुनाव होने ही वाला था तो फिर रामवीर सिंह को क्यों हटाया गया ? (क्या इसलिए भी कि वह अनुसूचित जनजाति के हैं ?) साफ है कि उपाध्यक्ष महोदय किसी ऐसे ही आदमी की तलाश में थे जिसकी और जो हो, हिंदी में कोई रूचि न हो। बिजय कुमार से बेहतर ऐसा आदमी कौन हो सकता था जो उपाध्यक्ष के मनोनुकूल निदेशक की नियुक्ति तक इस पद की पहरेदारी कर सके। इससे यह बात फिर से साफ हो जाती है कि सरकार हिंदी और हिंदी की संस्थाओं के लिए कितना चिंतित है। एक आदमी जिसे एक संस्था का चलाना ही कठिन हो रहा हो, उस पर तीन संस्थाओं को थोपना सरकार की मंशा को स्पष्ट कर देता है। स्पष्ट है कि वृहत्तर हिंदी समाज की बात तो छोड़िये, हिंदी के बुद्विजीवियों को भी इससे कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए यह अचानक नहीं है कि हिंदी की संस्थाओं पर मीडयाकरों का पूरी तरह कब्जा हो चुका है। इस संस्थाओं में हो क्या रहा है, इनकी क्या उपयोगिता है, यह सवाल शायद ही कभी पूछे जाते हों। जहां तक बुढा़पे में कवि बने कपिल सिब्बल का सवाल है उनकी रूचि हिंदी व उसकी संस्थाओं में तब हो जब उन्हें 2 जी स्पेक्ट्रम और अपने हमपेशेवर वकील अरूण जेटली से वाक्युद्ध करने से फुर्सत मिले। वैसे 2 जी स्पैक्ट्रम है तो दुधारी गाय पर फिलहाल इसकी हड्डी सरकार के गले में फंसी हुई है।
पर असली किस्सा है संस्थान के नये निदेशक की नियुक्ति को लेकर। गत जनवरी में इस पद के लिए पहला विज्ञापन निकाला गया था। 15 जून, 2010 को तीन सदस्यों की सर्च कमेटी, जिसमें श्याम सिंह शशि (प्रकाशन विभाग प्रसिद्धि के), नासिरा शर्मा और रहमतुल्ला थे, मीटिंग हुई। पर किसी उम्मीदवार को उपयुक्त नही पाया गया। अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में दोबारा से इस पद के लिए संशोधित विज्ञापन निकाला। इस में पीएच0डी0 आदि के अलावा, जो अनिवार्य योग्यताएं मांगी गई थी उनमेंः - प्रसिद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित कार्य और पुस्तकों के लेखन में प्रमाण के रूप में प्रकाशित कार्य - प्रशासनिक अनुभव के तौर पर: संकायाध्यक्ष/ स्नातकोत्तर काॅलेज के प्रिंसिपल/ विश्वविद्यालय का रेक्टर/पीवीसी/कुलपति/विश्वविद्यालय विभाग के अध्यक्ष के रूप में पांच वर्ष का प्रशासनिक अनुभव।
आवेदन आए। उसी पुरानी सर्च कमेटी की मीटिंग 21 फरवरी को रखी गई। कहा जाता है कि उपाध्यक्ष महोदय की रूचि अपने एक निकट के व्यक्ति/संबंधी की नियुक्त करने में थी। पर जिस व्यक्ति को अंततः चुना गया, वह थे दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर काम कर रहे मोहन (शर्मा) नाम के सज्जन, जो छह वर्ष पूर्व अचानक बर्धवान से सीधे दिल्ली में प्रकट हुए थे। मंत्रालय को भेजे गए एक गुमनाम पत्र मंे आरोप है कि इन्होंने दिल्ली में नौकरी पाने के लिए सीपीएम के दरवाजे खटखटाए थे। इस बार बतलाया जा रहा है कि इनकी सिफारिश ठोस कांग्रेस खेमे से सीधे हैदराबाद से होती हुई राज्य मंत्री की ओर से थी। जो भी हो फिलहाल जिन मोहन जी का चुनाव किया गया था वह चूंकि उपाध्यक्ष और दिल्ली विश्वविद्यालय के आचार्यो की विख्यात टोली के निकट थे और उनका लचीलापन अब तक जग जाहिर है, इसलिए उपाध्यक्ष को उन्हें स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई। मंत्रालय को भेजे गए इस गुमनाम पत्र लेखक ने मोहन जी की विशेषता कुछ इस प्रकार बतलाई है कि यह ‘‘प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन के कारण या किसी प्रतिष्ठित लेखक के रूप में भी नहीं जाने जाते हैं।‘‘ बल्कि ‘‘इनको दिल्ली विश्वविद्यालय में ंिहंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष (यानी सुधीश पचैरी) के क्लर्क के रूप में जाना जाता है।‘‘ साफ है कि जो आदमी जुगाड़ का ही माहिर हो और दिल्ली -कोलकाता-हैदराबाद को चुटकियों में साध सकता हो, उस बेचारे के पास लिखने-पढने की फुर्सत ही कहां होगी। फिर पढ़ने से हिंदी में होने वाला भी क्या है, यहां तो जो होता है वह जुगाड़ से ही तो होता है। वह स्वयं इसके साक्षात उदाहरण हैं ही।
पर इस आदमी को चुनने के लिए जो तरीके अपनाए गए वे अपने आप में खासे आपत्तिजनक थे। उदाहरण के लिए सबसे पहले तो सर्च कमेटी की सदस्य नासिरा शर्मा को, जो अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व व निर्णयों के लिए जानी जाती हैं, कमेटी की मीटिंग की जानकारी ही नहीं दी गई। जब उन्हें यह बात पता चली तो इस वर्ष 22 फरवरी को उन्होंने एक पत्र मंत्रालय में संबंधित संयुक्त सचिव को यह जानने के लिए लिखा कि क्या जिस सर्च कमेटी में मेरा नाम है उसकी मीटिंग 15 फरवरी को हो चुकी हैं ? इसके बाद 27 फरवरी को नासिरा जी ने दूसरा पत्र मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल को अपना विरोध प्रकट करते हुए पत्र लिख दिया।
इस पर संस्थान ने तर्क दिया कि हमने तो नासिरा जी को पत्र लिखा था अगर उन्हें नहीं मिला तो हम क्या कर सकते हैं। यह गैरजिम्मेदाराना हरकत की इंतहा है। इस पर संबंधित अधिकारी को निलंबित किया जा सकता है। सरकार का इस संबंध में नियम यह है कि तब तक किसी भी सर्च कमेटी की बैठक नहीं की जा सकती जब तक कि उसके सभी सदस्यों को यथा समय सूचित कर उनकी सहमति नहीं ले ली जाती। अगर कोई सदस्य नहीं आना चाहता, यह भी उससे लिखित में लेने के बाद ही, उसके बगैर कमेटी की मीटिंग हो सकती है। नासिरा जी दिल्ली में ही रहती हैं। आखिर ऐसा क्या था कि उन्हें हाथों-हाथ मीटिंग के बारे में सूचित न किया जा सकता हो ? साफ है कि विभाग की मंशाही कुछ और थी और यह जानबूझ कर किया गया था।
जहां तक उपाध्यक्ष का सवाल है वह सारे मामले को स्वर्ण जयंती का बहाना बना कर अपनी ओर से आनन-फानन में निपटा, फरवरी में ही हिंदी का प्रचार करने अपनी टोली के साथ इंग्लैण्ड चले गए थे। फाइल मंत्री महोदय के पास पहुंच भी गई। पर तब तक नासिरा शर्मा का पत्र मंत्री महोदय को मिलने के अलावा विभिन्न अखबारांे में भी छप गया। इस पर मंत्री ने उस फाइल को कैबिनेट कमेटी के पास स्वीकृति लेने के लिए नहीं भेजा। पर इस बीच मधु भारद्वाज नाम की एक उम्मीदवार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर कर दी। इसमें आरोप है कि संस्थान ने अपने विज्ञापन मंे हिंदी की एक संस्था के निदेशक के पद के लिए हिंदी एम0एक ही शैक्षणिक योग्यता ही नहीं मांगी। इसके कारण कई लोग आवेदन ही नहीं कर पाए। उनका कहना है कि यह जानबूझ कर भ्रम फैलाने के किया गया, क्योंकि मंत्रालय ने किसे लेना इस बाबत पहले से ही मन बना लिया था। कोर्ट ने मंत्रालय से चार सप्ताह के अंदर जवाब मांगा है।
इसी का नतीजा है कि केंद्रीय हिंदी संस्थान के स्वर्ण जयंती कार्यक्रम के निमंत्रण पत्र में, निदेशक के तौर पर के, बिजय कुमार का नाम छपा था। यानी मंत्री उस फाइल को आगे नहीं बढ़ा पाए हैं। देखना होगा कि क्या इस बार भी निदेशक की नियुक्ति हो पाएगी ?
फिलहाल हिंदी संस्थान आगरा को लेकर दो समाचार हैं। पहला, इसके स्वर्ण जयंती कार्यक्रमों की शुरूआत 28 मार्च से, आगरा में नहीं, दिल्ली में हो गई है। पर जैसा कि निमंत्रण पत्र में लिखा था यह सिब्बल के करकमलों से नही हो पाया है। संस्थान ने मंत्री महोदय के लिए सुबह साढ़े दस के समय को दस भी किया पर मंत्री महोदय ने न आना था न आए। यह दूसरी बार है जबकि मानव संसाधन विकास मंत्री ने संस्थान को ऐन वक्त पर गच्चा दिया था। नृत्यांगना राज्य मंत्री डी पुरंदेश्वरी ने भी हिन्दी को इस लायक नहीं समझा की दर्शन देतीं। इन लोगों की नजरों में हिंदी संस्थानों का महत्व अपने नाकारा लगुवे को चिपका सकने की जगहों से ज्यादा कुछ है भी नहीं।
दूसरा समाचार, जो जरा पुराना है, अशोक चक्रधर को मंत्री की सेवा करने के कारण उचित पुरस्कार मिल गया है। वह अगले तीन वर्ष के लिए उपध्यक्ष बना दिए गए हैं। पिछला एक वर्ष वह था जो रामशरण जोशी ने नये मंत्री के आ जाने के कारण नैतिक आधार पर छोड़ दिया था। कौन पूछने वाला है कि चक्रधर ने पिछले एक साल में केंद्रीय हिंदी संस्थान में पांच सितारा होटलों में ठहरने के अलावा क्या किया ? महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने सिब्बल को साधा और छायानुवाद की ‘जय हो‘ विधा को फिर से पुनर्जीवित किया।
(समयांतर के अप्रैल २०११ के अंक से साभार)

Monday, March 14, 2011

ब्लाग पर शोध और ब्लागरों को एकजुट करने को भी हो पुरस्कार

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
ब्लाग के संदर्भ में इधर एक अच्छी बात हुई है कि इसके विकास में बेहतर योगदान देने वालों को पुरस्कृत भी किया जाने लगा है। इस बहाने लोगों को प्रोत्साहित करके ब्लाग की लोकप्रियता और महत्ता बढ़ाई जा सकती है। एक बार मशहूर साहित्यकार गिरिराज किशोर से मैने पूछा था पुरस्कारों की क्या महत्ता है? उन्होंने जवाब दिया जैसे लोग चले जा रहे हों और हम किसी पर टार्च से रोशनी डाल दें। पुरस्कृत करके ब्लागरों की रचनाधर्मिता को आलोकित करने के प्रयासों की निसंदेह प्रशंसा की जानी चाहिए और इसे किस तरह बेहतर बनाया जा सकता है, इस पर भी मंथन चलते रहना चाहिए। ब्लागरों के सम्मेलन हो रहे हैं, पुरस्कार वितरित किए जा रहे हैं, इससे कई नई संभवनाएं जागृत हो रही हैं।
कोई भी सृजनशीलता तब महत्वपूर्ण हो जाती है जब नई पीढ़ी उसके विषय में पढ़े और वह रोजगार से जुड़ जाए। इसीलिए विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में जो विषय शामिल हैं, वह सहजता से लोकप्रिय हो जाते हैं। कई नए क्षेत्रों में शोधकार्य भी चलते रहते हैं। ब्लाग पर भी पिछले वर्ष कई शोधपत्र लिखे गए जिनका प्रकाशन भी हुआ। इसका परिणाम यह हुआ कि जनसंचार के कुछ पाठ्यक्रमों में ब्लाग को जनसंचार के नए माध्यम के रूप में पढ़ाया जाने लगा। ब्लाग पर शोधकार्य होने से इसकी महत्ता में श्रीवृद्धि भी हुई है। इस कार्य और परंपरा को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए लेकिन ब्लाग से जुड़े पुरस्कारों की सूची में शोधकार्य को पुरस्कृत करने की ओर ध्यान नहीं गया है।
इसी तरह ऐसे लोग जिन्होंने ब्लागरों को एकजुट किया, विचार मंथन के लिए मंच प्रदान किया और उसकी गरिमा बढ़ाई, उन्हें भी पुरस्कृत किया जाना चाहिए। यह अलग बात है कि उन्होंने यह कार्य किसी पुरस्कार के लिए नहीं किया। ब्लाग के प्रति समर्पण भाव ही उनके कार्य के पीछे था लेकिन उन्हें पुरस्कृत करकेउनके काम को रेखांकित किया जाना चाहिए।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, March 6, 2011

पढऩे का घटता संस्कार, नई पीढ़ी का बड़ा संकट

- डॉ. अशोक कुमार मिश्र
मौजूदा दौर में नई पीढ़ी में पढऩे का संस्कार चिंताजनक स्थिति से घटता जा रहा है। पाठ्यक्रम से इतर किताबें पढऩे की प्रवृत्ति देश के भावी कर्णधारों में नहीं दिखाई देती। यही वजह है कि अब अभिभावक भी साहित्यिक पुस्तकों की खरीदारी को अपने महीने के बजट में शामिल नहीं करते। जो लोग बजट में किताबों को रखते भी हैं, वे कई बार आर्थिक दबाव बढऩे पर सबसे पहले पुस्तकों की खरीद में ही कटौती कर देते हैं। एक संकट यह भी है कि कई बार अच्छी पुस्तकें इतने महंगे दामों पर मिलती हैं कि उन्हें खरीदने में ही पसीने आने लगते हैं। पहले घरों में लोग पुस्तकालय बनाया करते थे जो अब घटते जा रहे हैं। इन सब बातों के चलते ही केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड ने पांचवीं से बारहवीं तक की कक्षाओं के लिए पाठ्यपुस्तकों से इतर पुस्तकों को भी पढ़ाने की सलाह दी है। इसके लिए सीबीएसई ने स्कूलों को पाठ्य सामग्री के रूप में पुरस्कार प्राप्त पुस्तकों की सूची भेजी है। बोर्ड की ओर से स्कूलों को फरमान दिया गया है कि फॉर्मेटिव मूल्यांकन करने के लिए रीडिंग प्रोजेक्ट्स का भी सहारा ले सकते हैं। बोर्ड का मानना है कि बच्चों को पाठ्यपुस्तकों के अलावा भी जानकारी दी जानी चाहिए जिससे कि उनका समग्र विकास हो सके। इसके लिए बोर्ड ने एसोसिएशन ऑफ राइटरस एंड इलिस्ट्रेटर के सहयोग से भारतीय लेखकों की ऐसी पुस्तकों की सूची तैयार की है। इस रीडिंग मैटीरियल में शामिल की गई पुस्तकों में साइंस फिक्शन, हिस्टोरिक्ल फिक्शन, मिस्ट्री, वास्तविक घटनाओं की कहानियां, प्ले, पर्यावरण आधारित पुस्तकों को शामिल किया गया है। प्रधानाचार्यों को दिए गए निर्देश में कहा गया है कि लाइब्रेरी में ही ऐसे संसाधन उपलब्ध कराएं जाएं जिससे बच्चे में स्वंय पढऩे की भावना जागृत हो। बच्चों को लाइब्रेरी जाने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाए। पाठ्येत्तर पुस्तक पढऩे की रुचि जागृत करने केलिए जरूरी है कि दूसरे बोर्ड भी इस तरह की पहल करें और अभिभावक भी शब्दों के संसार से बालकों को रूबरू कराने की ओर ध्यान दें।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Monday, January 17, 2011

विश्वविद्यालयों में बहने लगी ब्लाग की बयार

डॉ. अशोक कुमार मिश्र
पिछले दो वर्षों के दौरान ब्लाग को अकादमिक क्षेत्रों में जिस गंभीरता से लिया जा रहा है, वह हिंदी ब्लागिंग के लिए नई संभावनाओं के द्वार खोलने में समर्थ है। पहले इलाहाबाद में ब्लागर सम्मेलन, वर्धा में ब्लागिंग की आचार संहिता पर राष्ट्रीय संगोष्ठी, दिल्ली ब्लागर मीट, खटीमा में ब्लागर संगोष्ठी, इंदौर की गायत्री शर्मा और धर्मशाला के केवलराम का हिंदी ब्लाग पर पीएचडी की उपाधि केलिए शोध करना इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि हिंदी ब्लाग अब इस स्थिति में पहुंच चुका है कि उस पर शोध कर निष्कर्ष निकाले जाएं ताकि भविष्य की दिशा और संभावनाएं रेखांकित की जा सकें। खुद मैने महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र में ०९-१० अक्टूबर को आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में ब्लागरी में नैतिकता का प्रश्न और आचार संहिता की परिकल्पना, हरियाणा के पलवल स्थित गोस्वामी गणेशदत्त सनातन धर्म स्नातकोत्तर महाविद्यालय, में २२-२३ अक्टूबर को आयोजित राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी में ब्लाग का विधायी स्वरूप और उसकी भाषा संरचना, मुरादादाबाद स्थित महाराजा हरिश्चंद्र कॉलेज में १४-१५ नवंबर को आयोजित राष्टï्रीय हिंदी संगोष्ठी में सूचना तकनीक और हिंदी पत्रकारिता विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत किया जिसमें ब्लाग पर वैचारिक मंथन किया गया। इसके साथ ही ब्लाग पर दो अन्य शोधपत्र मैने लिखे जो यमुनानगर और दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय संगोष्ठी में प्रस्तुत किए जाने हैं। इसी हफ्ते मुझे सूचना मिली कि कल्याण में अगले माह ब्लाग पर राष्ट्रीय संगोष्ठी होने जा रही है। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में बह रही ब्लाग की बयार उम्मीदों के नए झोंके लेकर आएगी, ऐसा विश्वास है। रोजाना हिंदी चिट्ठे बढ़ रहे हैं, यह भी सुखद संकेत हैं। ब्लाग पर प्रस्तुत लेखन में गुणवत्ता का समावेश करना समय की सबसे बड़ी चुनौती है।
इस बीच ब्लागवाणी और चिट्ठाजगत जैसे एग्रीगेटरों का बंद होना कुछ चिंतित करता है। एग्रीगेटर ब्लाग के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और वजह चाहे कुछ भी हो लेकिन इनका बंद होना तकलीफदेह है। ब्लाग को बेहतर और बहुआयामी बनाने की दिशा में काम किया जाना चाहिए तभी इसकी सार्थकता है।

Wednesday, January 12, 2011

तीन घंटे की रिपोर्टिंग में कैसे हो सच का संधान

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
अखबारों में बदली कार्यप्रणाली के चलते सच की खोजबीन का काम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अखबार का बुनियादी काम सच को सामने लाने का है और इस काम को अंजाम देते हैं अखबार के रिपोर्टर। अब से करीब २० साल पहले रिपोर्टरों के पास मोबाइल नहीं थे। लैंडलाइन फोन भी चुनींदा रिपोर्टर के पास होते थे। इस कारण मौके पर जाक र रिपोर्टिंग करना उनकी मजबूरी होती थी। उस समय सुबह को अखबारों केदफ्तरों में मीटिंग की भी परंपरा नहीं थी। नतीजा यह कि संवाददाता मीटिंग के दबाव से मुक्त होकर समाचार तलाशने के दबाव में रहता था। इस कारण उसे अधिक समय फील्ड में बिताना पड़ता था और फिर इसका नतीजा यह होता था कि कुछ बेहतर खबरें उसके हाथ लग जाती थीं। यहीं वह खबरें होती थीं जो प्रिंट मीडिया को पहचान देती थीं। यह मिशनरी से व्यावसायिक पत्रकारिता की शुरुआत का दौर था।
अब मिशनरी भाव से मुक्त होकर पत्रकारिता पूरी तरह व्यावसायिक चोला अख्तियार कर चुकी है। इस दौरान कर कई बार पिं्रट मीडिया से जुड़े लोग शिकायत करते हैं कि अब अखबारनवीसी में सिर्फ रुटीन की खबरें हो कवर हो पाती हैं। अब संवाददाता धमाकेदार खबरें कम जुटा पाते हैं। पुराने पत्रकार अपनी समकालीन खबरों के उदाहरण अक्सर नए पत्रकारों को देते हैं। दरअसल, इसके लिए कुछ बदलाव भी जिम्मेदार है। पत्रकारिता के व्यवसाय बनने से पत्रकारों की कार्यप्रणाली भी प्रभावित हुई है। अब सुबह को रिपोर्टरों का सबसे पहला काम रिपोर्टिंग टीम की मीटिंग में शामिल होना होता है। यह मीटिंग आम तौर पर १०-११ बजे शुरू होती हैं और कम से कम एक घंटा चलती हैं। दोपहर तक मीटिंग में शामिल होने के कारण संवाददाता इस अवधि में होने वाले कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पाते। सबसे ज्यादा इस दौरान स्कूलों और धार्मिक स्थलों पर कार्यक्रम होते हैं। यह तमाम कार्यक्रम विज्ञप्ति के आधार पर ही प्रकाशित हो पाते हैं। दोपहर बाद करीब एक घंटे का समय संवाददाता को मिल पाता है। इसके बाद वह भोजन करने जाते हैं। फिर पांच बजे तक आफिस पहुंचने से पहले के दो घंटे उन्हें रिपोर्टिंग के लिए मिल पाते हैं। पूरे दिन में कुल जमा तीन घंटे की रिपोर्टिंग में कैसे सत्य के संधान किया जाए, यह यक्ष प्रश्न है।
एक संकट और है, कई बार संवाददाता बैठक में शामिल होने को ही अपने काम की इतिश्री मान लेते हैं। उन पर बैठक में शामिल होने का अधिक दबाव होता है, खबरों को लेकर कम। फील्ड में जाने की रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है। यही कारण है कि अखबारों में धारदार खबरें घटती जा रही हैं। उनमें तथ्यों से उपजे वह तेवर नहीं होते जो पाठकों को अधिक देर तक अखबार से बांधे रह सके। यही वजह है कि अखबार पढऩे का औसत समय घटकर सात मिनट पर आ गया है। इससे सबक लेना प्रिंट मीडिया की जरूरत है।

Tuesday, January 4, 2011

सबके रहे 'भाई साहबÓ , खूब दिया दुलार

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
'भाई साहबÓ ! पूरा अमर उजाला परिवार इसी आत्मीय संबोधन से पुकारता था अतुलजी के लिए। आगरा से शुरू हुए अमर उजाला के सफर का दूसरा पड़ाव था बरेली। यहीं से अतुल माहेश्वरी ने अखबार जगत में पहचान बनानी शुरू की। इसके बाद प्रकाशित हुए मेरठ संस्करण की तो नींव ही उन्होंने रखी और हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में अमर उजाला को शानदार मुकाम दिया। अतुलजी अत्यंत व्यवहारकुशल, मृदुभाषी, सहृदय और अद्भुत प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। उनका कर्मचारियों के साथ व्यवहार इतना आत्मीय था कि सभी को लगता था मानो वह उनके बड़े भाई हैं। यही वजह थी कि सहज ही हर व्यक्ति उन्हें 'भाई साहबÓ कहकर संबोधित करता था। यह संबोधन खुद उनके लिए भी बड़ा पसंद था। जब प्रबंध निदेशक के रूप में उनकी कामकाजी व्यस्तताएं बढ़ीं तो लंबे समय बाद संपादकीय सहयोगियों के साथ हुई एक मीटिंग में उन्होंने इस बात को दुहराया भी कि मैं तो आप लोगों के लिए 'भाईसाहबÓ ही हूं। चाहे व्यक्ति उम्र में बड़ा हो या छोटा उसके मुंह से सहज ही अतुलजी के लिए 'भाई साहबÓ ही निकलता। उन्होंने भी इस संबोधन का खूब मान रखा। १४ अप्रैल १९८७ को जब मेरठ में दंगे हुए तो देर रात तक संपादकीयकर्मी अखबार के दफ्तर में काम करते और आसपास के होटल बंद होने के कारण रात भोजन भी नहीं पाते थे। कई बार ऐसा हुआ कि अतुलजी खुद अपनी कार से संपादकीय कर्मियों को लेकर दूर स्थित होटल में रात को भोजन कराने लेकर गए। अमर उजाला परिवार के लोगों के बच्चों के जन्मदिन, विवाह समारोह व अन्य कार्यक्रमों में शामिल होकर वह अपनी आत्मीयता का अहसास भी कराते थे। कोई परेशानी हो, निसंकोच होकर लोग अतुल जी के सामने रखते और वह हर संभव उसका समाधान करते। शादी विवाह के लिए आर्थिक संकट हो या फिर बीमारी का इलाज कराने के लिए धन की जरूरत हो, वह कर्मचारियों के दिल की बात महसूस करते और कोई न कोई रास्ता निकाल ही देते थे। अपने कर्मचारियों के साथ संवाद का रास्ता उन्होंने सदैव खोले रखा। आम जनता की पीड़ा को भी वह गहराई से महसूस करते थे। यही वजह थी कि उत्तराखंड में जब भूकंप आया तो उनकी पहल पर पूरा अमर उजाला परिवार भूकंप पीडि़तों की मदद को आगे आया। निजी जीवन के साथ ही वह समाचारों में भी मानवीय मूल्यों के पक्षधर रहे और अमर उजाला के माध्यम से इसे सदैव अभिव्यक्त भी किया।