-डॉ. अशोक प्रियरंजन
आत्मविश्वास की कमी के चलते अब हजारों लोग जिंदगी की जंग हारकर मौत को गले लगा लेते हैं । आत्महत्या की बढती घटनाएं समाज के विविध वर्ग के लोगों के जीवन में बढ़ रही निराशा, संघर्ष करने की घटती क्षमता और जीने की इच्छाशक्ति की कमी की ओर संकेत करती हैं। २००७ में करीब २७५० लोगों ने खुदकुशी की जबकि २००६ में ३०९९ लोगों ने मौत को गले लगा लिया । बीते छह सालों में अकेले उत्तर प्रदेश में आत्महत्या का औसत ३४०० रहा है ।
मौजूदा समय के भौतिकवादी माहौल ने लोगों की महत्वाकांक्षाओं और अपेक्षाओं को काफी बढा दिया है। अब आदमी के अंदर अच्छा घर, कार और आधुनिक जीवन की सभी सुख सुविधाएं हासिल करने की लालसा बढती जा रही है । वह अपने सपनों को जल्द पूरा करना चाहता है । सपने टूटते हैं और अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं तो आत्मविश्वास की कमी के चलते लोग जिंदगी से मायूस हो जाते हैं । बडी संख्या में युवाओं का जीवन के प्रति मोहभंग होना पूरे समाज के लिए चिंता का विषय है । देश में हर साल करीब २४०० छात्र परीक्षा के तनाव या फिर फेल होने पर खुदकुशी कर लेते हैं । कभी प्रेम में निराशा मिलने पर तो कभी अर्थिक तंगी या गृहकलह आत्महत्या की वजह बन जाती है ।
दरअसल, जीवन में सफलता प्राप्त करने के लिए आत्मविश्वास की शक्ति सर्वाधिक आवश्यक है । आत्मविश्वास के अभाव में किसी कामयाबी की कल्पना नहीं की जा सकती है । आत्मविश्वास के सहारे कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त करना भी सरल हो जाता है । राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आत्मविश्वास के सहारे ही ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष किया । यह उनका आत्मविश्वास ही था जिसके सहारे उन्होंने अहिंसा के रास्ते पर चलकर देश को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराया । आत्मविश्वास शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है-आत्म और विश्वास । यहां आत्मा से आशय अंतर्मन से है । विश्वास का अर्थ भरोसा होता है । वस्तुत: अंतर्मन के भरोसे को ही आत्मविश्वास कहते है ं। आत्मविश्वास मनुष्य के अंदर ही समाहित होता है । आंतरिक शक्तियों को एकीकृत करके आत्मविश्वास को मजबूत किया जा सकता है।
आत्मविश्वास को जागृत करके और मजबूत बनाकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता अर्जित की जा सकती है । सत्य, सदाचार, ईमानदारी, सहृदयता आदि मानवीय गुणों को धारण करके आत्मविश्वास का संचार किया जा सकता है । आत्मविश्वास से भरे विद्यार्थी परीक्षा में सफलता प्राप्त करते हैं । रोजगार और व्यवसाय में भी उन्नति के शिखर पर पहुंचने का आधार आत्मविश्वास ही होता है । बडी से बडी समस्या भी उन्हें जिंदगी में आगे बढऩे से नहीं रोक सकती। आत्मविश्वास से दैदीप्य व्यक्तित्व ही समाज को नई दिशा देने में समर्थ होता है । वास्तव में आत्मविश्वास की शक्ति अद्भुत होती है ।
प्रत्येक मनुष्य को सदैव आत्मविश्वास को मजबूत बनाए रखना चाहिए तभी वह जीवन में उन्नति कर सकता है । जिंदगी से मायूस हुए लोगों को ढाढस बंधाने का काम परिजनों अथवा उनके निकट के लोगों को करना चाहिए । बातचीत के माध्यम से निराशाजनक स्थितियों से गुजर रहे मनुष्य के अंदर जीने की इच्छाशक्ति को मजबूत किया जाना चाहिए । विविध प्रेरणादायक प्रसंगों की जानकारी देकर उन्हें जीवन के संघर्ष से घबराने के बजाय मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए । उनके मन से निराशा का अंधेरा छंट गया तो निश्चित रूप से उनमें जीवन के प्रति ललक जागृत होगी । उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा तो वह वह भविष्य में जिम्मेदार नागरिक बनकर देश के विकास में अपना योगदान दे पाएंगे ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
Friday, December 12, 2008
Sunday, November 30, 2008
उर्दू की जमीन से फूटी हिंदी गजल की काव्य धारा
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
मेरठ
प्रिय नितिन,
कल एक साप्ताहिक पत्र में तुम्हारा एक गीत और एक गजल पढऩे को मिली । गीत मुझे बेहद अच्छा लगा लेकिन गजल नाम से जो पंक्तियां तुमने लिखी हैं, वे गजल के मिजाज से कोसों दूर लगीं । मुझे तुम्हारी रचनात्मक यात्रा से खासा लगाव रहा है इसलिए चाहता हूं कि अब गजल लिखने से पहले तुम इसके संपूर्ण विधात्मक स्वरूप को अध्ययन और मनन से दिमाग में पूरी तरह जज्ब कर लो । मैने गजल के बारे में जो कुछ पढा और बुजुर्ग शायरों से जो कुछ सुना है, उसे तुम्हारी सहूलियत के लिए यहां लिख रहा हूं । दरअसल हिंदी में गजल की काव्यधारा उर्दू की जमीन से फूटी । गजल भाषाई एकता की ऐसी मिसाल है जिसने हिंदी-उर्दू दोनों भाषा भाषी लोगों के दिलों में अपनी अलग जगह बनाई । गंगा जमुनी तहजीब के काव्यमंचों पर गजल ने खासी लोकप्रियता हासिल की ।
मुगल बादशाह शाहजहां के राज्यकाल में पंडित चंद्रभानु बरहमन नामक कवि हुए हैं जिन्हें उर्दू का प्रथम कवि होने का श्रेय प्राप्त है लेकिन उनमें काव्य मर्मज्ञता से अधिक वियोगी होगा पहला कवि वाली बात ही अधिक मुखर है । औरंगजेब के काल में वली ने उर्दू कविता को नपे तुले मार्ग पर चलाने में बडा योगदान दिया । आबरू, नाजी, हातिम तथा मजहर जाने-जाना आदि कवियों ने उर्दू कविता कुनबेे को स्थायी रूप प्रदान किया । इन्होने वाक्यों में फारसी की चाशनी प्रदान की और फारसी में प्रचलित लगभग सभी काव्यरूपों का उर्दू में प्रयोग किया ।
गजल उर्दू कविता का वह विशिष्ट रूप है जिसमें प्रेमिका से वार्तालाप, उसके रूप-सौंदर्य तथा यौवन का वर्णन और मुहब्बत संबंधी दुखों की चर्चा की जाती है । मौजूदा दौर में तो गजल के कथ्य का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है । आधुनिक जीवन की विसंगतियों और विडंबनाओं को गजल में बड़े यथार्थपरक ढंग से अभिव्यक्त किया जा रहा है । गजल की विशेषता इसकी भावोत्पादकता होती है । गजल का कलेवर अत्यधिक कोमल और सरस होता है । इसका प्रत्येक शेर स्वयं में पूर्ण होता है । शेर के दो बराबर टुकड़े होते हैं जिन्हें मिसरा कहा जाता है । हर शेर के अंत में जितने शब्द बार-बार आते हैं उन्हें रदीफ और रदीफ से पूर्व एक ही स्वर वाले शब्दों को काफिया कहा जाता है । गजल के पहले शेर के दोनो मिसरे एक ही काफिया और रदीफ में होते हैं । ऐसे शेर को मतला कहा जाता है । गजल के अंतिम शेर को मक्ता कहते हैं । इसमें प्राय शायर का उपनाम अर्थात तखल्लुस होता है ।
फारसी और भारतीय भाषाओं में गजल कहने वाले पहले शायर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती माने जाते है ं। १८वीं शताब्दी में गजल को नया रूप देने वालों में दर्द, मीर तथा सौदा के नाम प्रमुख हैं । नजीर अकबराबादी, इंशा, मुसहफी, नासिख, शाह नसीर तथा आतिश आदि की गजलें भी बड़ी मशहूर हुईं । इनके बाद गजल को माधुर्य, चमत्कार और वैचारिक प्रौढता प्रदान करने वाले शायरों में मोमिन, जौक और गालिब का नाम लिया जाता है । यह लोग उर्दू के उस्ताद शायर थे । बीसवीं शताब्दी में हसरत, फानी बदायूंनी, इकबाल, अकबर, जिगर मुरादाबादी, फिराक गोरखपुरी, असर लखनवी, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी कतील शिफाई, नूर, शकील बदायूंनी साहिर, कैफी आजमी, मजरूह, जोश मलीहाबादी और बशीर बद्र जैसे अनेक नाम उल्लेखनीय हैं ।
हिंदी में भी गजल कहने वालों की सुदीर्घ परंपरा रहा है । आजादी के बाद हिंदी काव्य मंचों पर बलवीर सिंह रंग की गजलों ने लोगों की खूब वाहवाही लूटी । इसीलिए उन्हें गजल सम्राट कहा गया । दुष्यंत ने हिंदी गजल में आम आदमी की पीडा को अभिव्यक्त करके इसे एक नई पहचान दी । उनके शेर-कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए-ने हिंदुस्तान के हालात को बखूबी बयान किया । यह दुष्यंत ही थे जिनकी दी जमीन पर बाद में अनेक शायरों ने गजल कही । उन्होंने गजल में समकालीन विसंगतियों को रेखांकित किया । गजल को हिंदी में गीतिका जैसे कुछ दूसरे नाम भी दिए गए । डॉ. उर्मिलेश, कुंवर बेचैन, अदम गोंडवी, चंद्रसेन विराट जैसे अनेक कवियों ने हिंदी गजल को समृद्ध किया ।
उम्मीद है गजल के विषय में यह जानकारी तुम्हारे लिए उपयोगी साबित होगी । कथ्य और शिल्प के बेहतरीन सम्मिलन से तुम और बेहतर गजल लिख पाओगे हालांकि उस्ताद शायरों का कहना है कि गजल कही जाती है लिखी नहीं जाती । इसके पीछे मंशा यह है कि गजल को इतना गुनगुनाओ कि उसका हर शेर मुकम्मल बन जाए ।
तुम्हारा
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
मेरठ
प्रिय नितिन,
कल एक साप्ताहिक पत्र में तुम्हारा एक गीत और एक गजल पढऩे को मिली । गीत मुझे बेहद अच्छा लगा लेकिन गजल नाम से जो पंक्तियां तुमने लिखी हैं, वे गजल के मिजाज से कोसों दूर लगीं । मुझे तुम्हारी रचनात्मक यात्रा से खासा लगाव रहा है इसलिए चाहता हूं कि अब गजल लिखने से पहले तुम इसके संपूर्ण विधात्मक स्वरूप को अध्ययन और मनन से दिमाग में पूरी तरह जज्ब कर लो । मैने गजल के बारे में जो कुछ पढा और बुजुर्ग शायरों से जो कुछ सुना है, उसे तुम्हारी सहूलियत के लिए यहां लिख रहा हूं । दरअसल हिंदी में गजल की काव्यधारा उर्दू की जमीन से फूटी । गजल भाषाई एकता की ऐसी मिसाल है जिसने हिंदी-उर्दू दोनों भाषा भाषी लोगों के दिलों में अपनी अलग जगह बनाई । गंगा जमुनी तहजीब के काव्यमंचों पर गजल ने खासी लोकप्रियता हासिल की ।
मुगल बादशाह शाहजहां के राज्यकाल में पंडित चंद्रभानु बरहमन नामक कवि हुए हैं जिन्हें उर्दू का प्रथम कवि होने का श्रेय प्राप्त है लेकिन उनमें काव्य मर्मज्ञता से अधिक वियोगी होगा पहला कवि वाली बात ही अधिक मुखर है । औरंगजेब के काल में वली ने उर्दू कविता को नपे तुले मार्ग पर चलाने में बडा योगदान दिया । आबरू, नाजी, हातिम तथा मजहर जाने-जाना आदि कवियों ने उर्दू कविता कुनबेे को स्थायी रूप प्रदान किया । इन्होने वाक्यों में फारसी की चाशनी प्रदान की और फारसी में प्रचलित लगभग सभी काव्यरूपों का उर्दू में प्रयोग किया ।
गजल उर्दू कविता का वह विशिष्ट रूप है जिसमें प्रेमिका से वार्तालाप, उसके रूप-सौंदर्य तथा यौवन का वर्णन और मुहब्बत संबंधी दुखों की चर्चा की जाती है । मौजूदा दौर में तो गजल के कथ्य का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है । आधुनिक जीवन की विसंगतियों और विडंबनाओं को गजल में बड़े यथार्थपरक ढंग से अभिव्यक्त किया जा रहा है । गजल की विशेषता इसकी भावोत्पादकता होती है । गजल का कलेवर अत्यधिक कोमल और सरस होता है । इसका प्रत्येक शेर स्वयं में पूर्ण होता है । शेर के दो बराबर टुकड़े होते हैं जिन्हें मिसरा कहा जाता है । हर शेर के अंत में जितने शब्द बार-बार आते हैं उन्हें रदीफ और रदीफ से पूर्व एक ही स्वर वाले शब्दों को काफिया कहा जाता है । गजल के पहले शेर के दोनो मिसरे एक ही काफिया और रदीफ में होते हैं । ऐसे शेर को मतला कहा जाता है । गजल के अंतिम शेर को मक्ता कहते हैं । इसमें प्राय शायर का उपनाम अर्थात तखल्लुस होता है ।
फारसी और भारतीय भाषाओं में गजल कहने वाले पहले शायर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती माने जाते है ं। १८वीं शताब्दी में गजल को नया रूप देने वालों में दर्द, मीर तथा सौदा के नाम प्रमुख हैं । नजीर अकबराबादी, इंशा, मुसहफी, नासिख, शाह नसीर तथा आतिश आदि की गजलें भी बड़ी मशहूर हुईं । इनके बाद गजल को माधुर्य, चमत्कार और वैचारिक प्रौढता प्रदान करने वाले शायरों में मोमिन, जौक और गालिब का नाम लिया जाता है । यह लोग उर्दू के उस्ताद शायर थे । बीसवीं शताब्दी में हसरत, फानी बदायूंनी, इकबाल, अकबर, जिगर मुरादाबादी, फिराक गोरखपुरी, असर लखनवी, फैज अहमद फैज, सरदार जाफरी कतील शिफाई, नूर, शकील बदायूंनी साहिर, कैफी आजमी, मजरूह, जोश मलीहाबादी और बशीर बद्र जैसे अनेक नाम उल्लेखनीय हैं ।
हिंदी में भी गजल कहने वालों की सुदीर्घ परंपरा रहा है । आजादी के बाद हिंदी काव्य मंचों पर बलवीर सिंह रंग की गजलों ने लोगों की खूब वाहवाही लूटी । इसीलिए उन्हें गजल सम्राट कहा गया । दुष्यंत ने हिंदी गजल में आम आदमी की पीडा को अभिव्यक्त करके इसे एक नई पहचान दी । उनके शेर-कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए-ने हिंदुस्तान के हालात को बखूबी बयान किया । यह दुष्यंत ही थे जिनकी दी जमीन पर बाद में अनेक शायरों ने गजल कही । उन्होंने गजल में समकालीन विसंगतियों को रेखांकित किया । गजल को हिंदी में गीतिका जैसे कुछ दूसरे नाम भी दिए गए । डॉ. उर्मिलेश, कुंवर बेचैन, अदम गोंडवी, चंद्रसेन विराट जैसे अनेक कवियों ने हिंदी गजल को समृद्ध किया ।
उम्मीद है गजल के विषय में यह जानकारी तुम्हारे लिए उपयोगी साबित होगी । कथ्य और शिल्प के बेहतरीन सम्मिलन से तुम और बेहतर गजल लिख पाओगे हालांकि उस्ताद शायरों का कहना है कि गजल कही जाती है लिखी नहीं जाती । इसके पीछे मंशा यह है कि गजल को इतना गुनगुनाओ कि उसका हर शेर मुकम्मल बन जाए ।
तुम्हारा
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
Sunday, November 16, 2008
महिलाओं के सपनों की सच्चाई बयान करती तस्वीर
-डॉ अशोक प्रियरंजन
मेरा शहर मेरठ - मेयर मधु गुजॆर । मेरा प्रदेश उत्तर प्रदेश - मुख्यमंत्री मायावती । मेरा देश भारत-सत्तारूढ यूपीए की चेयरमैन सोिनया गांधी । ये सब प्रतीक हैं उस सत्ता के जिसके शीषॆ पर िवराजमान हैं महिलाएं । एक शहर से लेकर देश की उच्च सत्ता पर महिलाओं का विराजमान होना सुखद संकेत हो सकता है । अपेक्षा की जानी चाहिए िक इस िस्थित में महिलाओं की जिंदगी बेहद खुशहाल, उम्मीदें जगाने वाली और सतरंगी सपनों से लबरेज हो । पहले जमाने में उनके लिए जो मुिश्कलें रहीं वह अब खत्म हो जानी चाहिए । पुरूषों के स्थान पर शीषॆ पदों पर महिलाओं के प्रतिष्ठित होने से संपूणॆ महिला समाज के तरक्की की उम्मीद जगना स्वभाविक है । एेसा लगता है िक इस स्तिथि में महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही रोजगार, कामकाज, अधिकार और आथिॆक आत्मनिभॆरता मिलनी चािहए लेकिन हकीकत कुछ और है ।
भारत की महिलाओं की सि्थति की असलियत को सामने लाती है यूएनओ की लैंगिक समानता संबंधी रिपोटॆ । इस रिपोटॆ के मुताबिक लैंगिक समानता के मामले में भारत विश्व में ११३वे स्थान पर है । तस्वीर और साफ हो जाएगी अगर सीधे लफ्जों में कहा जाए िक लैंगिक समानता के मामले में ११२ देशों में में महिलाओं की सि्थति भारत से बेहतर है । यह एेसा सच है जो महिलाओं की तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलता है । अपने आसपास रोजाना घट रही घटनाओं पर नजर डालें तो लगता है िक महिला पुरुष समानता का नारा अभी खोखला ही है ।
नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के आंकडों के मुतािबक वषॆ २००६ में देश में बलात्कार के १९३४८, दहेज के लिए हत्या के ७६१८, महिलाओं लडकियों के अपहरण के १७४१४, छेडछाड के ३६६१७, यौन उत्पीडन के ९९६० और पति-परिजनों की कूरूर्ता के ६३१२८ मामले दजॆ िकए गए । महिला संबंधी अपराधों की इस सि्थति के बीच कैसे तरक्की के सपने देखे जा सकते हैं । अपराधों की यह डरावनी तस्वीर आधी आबादी को हर समय आशंकित और भयभीत किए रहती है । घर की दहलीज हो या िफर खुली सडक कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं । जब तक मिहलाओं को सुरक्षा का भरोसा नहीं होगा तब तक वह कैसे पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर सकती हैं । इसके लिए जरूरी है िक महिलाओं के प्रति सामाजिक द्रिषटिकोण में भी बदलाव हो । यह बदलाव न होने के कारण ही कन्या भूर्ण हत्या एक बडी बुराई के रूप में उभर रही है । एक कडवा सच यह भी है िक बुराई को आगे बढाने में पढा िलखा तबका सबसे ज्यादा है । लैंगिक समानता का आधार तो जन्म से ही शुरू होना चाहिए । जब कन्या को जन्म देने पर दुख के बजाय सुख की अनुभूति होने लगेगी तो यह लैंगिक समानता की शुरूआत होगी ।
बिना भेदभाव के कन्या शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे, उन्हें अपनी मजीॆ से कैरियर चुनने की आजादी मिलेगी तो इस दिशा में अगले कदम होंगे । जब विवाह में उन्हें लडके के समान निणॆय लेने की स्वतंत्रता मिलेगी तब यह समानता का विस्तार होगा । जब वह ससुराल, रोजगार, सत्ता और आथिॆक स्वाबलंबन में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा तब यह वास्तिवक लैंगिक समानता होगी । एेसी सि्थति में वह निभीॆक होकर जीवन यापन कर पाएंगी, देश के विकास में भरपूर योगदान दे पाएंगी और उन सपनों में इंद्रधनुषी रंग भर पाएंगी जो उनकी आंखों में आकार लेते रहते हैं । इन सपनों को पूरा करने के िलए परिवार, समाज और सरकार का योगदान जरूरी है । सभी का सहयोग होगा तो सपने जरूर पूरे होंगे ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
मेरा शहर मेरठ - मेयर मधु गुजॆर । मेरा प्रदेश उत्तर प्रदेश - मुख्यमंत्री मायावती । मेरा देश भारत-सत्तारूढ यूपीए की चेयरमैन सोिनया गांधी । ये सब प्रतीक हैं उस सत्ता के जिसके शीषॆ पर िवराजमान हैं महिलाएं । एक शहर से लेकर देश की उच्च सत्ता पर महिलाओं का विराजमान होना सुखद संकेत हो सकता है । अपेक्षा की जानी चाहिए िक इस िस्थित में महिलाओं की जिंदगी बेहद खुशहाल, उम्मीदें जगाने वाली और सतरंगी सपनों से लबरेज हो । पहले जमाने में उनके लिए जो मुिश्कलें रहीं वह अब खत्म हो जानी चाहिए । पुरूषों के स्थान पर शीषॆ पदों पर महिलाओं के प्रतिष्ठित होने से संपूणॆ महिला समाज के तरक्की की उम्मीद जगना स्वभाविक है । एेसा लगता है िक इस स्तिथि में महिलाओं को भी पुरुषों के समान ही रोजगार, कामकाज, अधिकार और आथिॆक आत्मनिभॆरता मिलनी चािहए लेकिन हकीकत कुछ और है ।
भारत की महिलाओं की सि्थति की असलियत को सामने लाती है यूएनओ की लैंगिक समानता संबंधी रिपोटॆ । इस रिपोटॆ के मुताबिक लैंगिक समानता के मामले में भारत विश्व में ११३वे स्थान पर है । तस्वीर और साफ हो जाएगी अगर सीधे लफ्जों में कहा जाए िक लैंगिक समानता के मामले में ११२ देशों में में महिलाओं की सि्थति भारत से बेहतर है । यह एेसा सच है जो महिलाओं की तरक्की के तमाम दावों की पोल खोलता है । अपने आसपास रोजाना घट रही घटनाओं पर नजर डालें तो लगता है िक महिला पुरुष समानता का नारा अभी खोखला ही है ।
नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के आंकडों के मुतािबक वषॆ २००६ में देश में बलात्कार के १९३४८, दहेज के लिए हत्या के ७६१८, महिलाओं लडकियों के अपहरण के १७४१४, छेडछाड के ३६६१७, यौन उत्पीडन के ९९६० और पति-परिजनों की कूरूर्ता के ६३१२८ मामले दजॆ िकए गए । महिला संबंधी अपराधों की इस सि्थति के बीच कैसे तरक्की के सपने देखे जा सकते हैं । अपराधों की यह डरावनी तस्वीर आधी आबादी को हर समय आशंकित और भयभीत किए रहती है । घर की दहलीज हो या िफर खुली सडक कहीं भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं । जब तक मिहलाओं को सुरक्षा का भरोसा नहीं होगा तब तक वह कैसे पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर काम कर सकती हैं । इसके लिए जरूरी है िक महिलाओं के प्रति सामाजिक द्रिषटिकोण में भी बदलाव हो । यह बदलाव न होने के कारण ही कन्या भूर्ण हत्या एक बडी बुराई के रूप में उभर रही है । एक कडवा सच यह भी है िक बुराई को आगे बढाने में पढा िलखा तबका सबसे ज्यादा है । लैंगिक समानता का आधार तो जन्म से ही शुरू होना चाहिए । जब कन्या को जन्म देने पर दुख के बजाय सुख की अनुभूति होने लगेगी तो यह लैंगिक समानता की शुरूआत होगी ।
बिना भेदभाव के कन्या शिक्षा के अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे, उन्हें अपनी मजीॆ से कैरियर चुनने की आजादी मिलेगी तो इस दिशा में अगले कदम होंगे । जब विवाह में उन्हें लडके के समान निणॆय लेने की स्वतंत्रता मिलेगी तब यह समानता का विस्तार होगा । जब वह ससुराल, रोजगार, सत्ता और आथिॆक स्वाबलंबन में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं होगा तब यह वास्तिवक लैंगिक समानता होगी । एेसी सि्थति में वह निभीॆक होकर जीवन यापन कर पाएंगी, देश के विकास में भरपूर योगदान दे पाएंगी और उन सपनों में इंद्रधनुषी रंग भर पाएंगी जो उनकी आंखों में आकार लेते रहते हैं । इन सपनों को पूरा करने के िलए परिवार, समाज और सरकार का योगदान जरूरी है । सभी का सहयोग होगा तो सपने जरूर पूरे होंगे ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
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Tuesday, November 4, 2008
आतंकवाद, मंदी और क्षेत्रवाद से उपजा संकट
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
आतंकवाद, मंदी और क्षेत्रवाद की समस्या ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है । पूरी दुनिया सिर्फ मंदी को झेल रही है जबकि भारत के समक्ष इसके साथ ही दो और संकट आतंकवाद और क्षेत्रवाद लोगों की परेशानी का सबब बने हुए हैं । आर्थिक संकट के साथ ही जान-माल की हिफाजत का भरोसा भी शिथिल पड रहा है । कब नौकरी पर छंटनी की तलवार लटक जाए, कब कहीं बम विस्फोट हो जाए, कब क्षेत्रवाद का दानव मौत के घाट उतार दे, किसी को पता नहीं । यह हालात अस्थिरता और तनाव की स्थितियां पैदा कर रहे हैं । हर आदमी इन समस्याओं से व्यथित है । पूरे देश में एक अजीब किस्म का खौफ का माहौल बन रहा है जो लोगों को बेचैन किए है । मौजूदा दौर में उपजी समस्याओं पर गंभीर वैचारिक मंथन की जरूरत है ताकि इनका हल निकाला जा सके ।
आतंकवाद की समस्या देश में गंभीर होती जा रही है । दहशतगर्दों ने न जाने कितने घरों के चिराग बुझा दिए हैं और अनेक लोगों को ऐसे जख्म दिए जिनकी टीस वह जिंदगीभर सहने के लिए मजबूर हैं । बीते छह महीने में देश में ६४ सीरियल ब्लास्ट हुए हैं जिनमें २१५ लोग मारे गए और ९०० घायल हो गए । जयपुर, अहमदाबाद, बंगलूरू और दिल्ली के बाद आतंकवादियों ने ३० अक्तूबर को असम को निशाना बनाया । दहशतगर्दों ने गुवाहाटी, कोकराझार, बोंगाइगांव और बरपेटा में भीडभाड़वाले बाजारों में १३ सिलसिलेवार धमाके कर ६१ लोगों को मौत की नींद सुला दिया । विस्फोट में ४७० लोग घायल हुए हैं । वर्चस्व जाहिर करने के लिए अंजाम दी गई इस सनसनीखेज वारदात में शक की सुई हूजी आतंकियों की ओर है।
इस समय पूरी दुनिया एक गंभीर संकट से गुजर रही है । मंदी की मार ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है । मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों के उद्यमी भी अपने यहां नौकरियों में कटौती करने के मजबूर हैं । अमेरिका में मंदी की सुनामी ने जो तबाही मचाई है उससे भारत भी अछूता नहीं है । एसोचेम की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक सात प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों में आगामी १० दिन में २५ फीसदी कर्मचारियों की छंटनी की आशंका है हालांकि बाद में यह रिपोर्ट वापस ले ली गई । बेरोजगारी की समस्या झेल रहे इस देश में मंदी से उपजी बेरोजगारी नई पीढी में हताशा और मायूसी ही लाएगी । कैरियर को लेकर जो सपने उन्होंने देखे हैं, उन पर ग्रहण लगता प्रतीत हो रहा है । ऐसे में उनके समक्ष चुनौतियां और बढ़जाएंगी । जटिल परिस्थितियों में कैरियर को आकार देना और अपने सुखद भविष्य की जमीन तैयार करना निसंदेह आसान काम नहीं है । नई पीढ़ी को एक नए उत्साह और दृढ संकल्पशक्ति के साथ शिक्षा और कैरियर से जुडे लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मेहनत करनी होगी । अभिभावकों और शिक्षकों को उनका मार्गदर्शन करना होगा ।
मंदी के संकट के संग ही देश में क्षेत्रवाद ने गंभीर स्थिति पैदा कर दी है । पिछले कुछ अरसे से मराठी क्षेत्रवाद के नाम पर मुंबई में जिस तरह उत्तर भारतीयों की हत्या की जा रही है, वह बहुत खतरनाक संकेत हैं । सपनों की नगरी मुंबई में जाने का ख्वाब पूरे देश के लोग देखते हैं । अभिनय, नाटक और विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभाओं से लोगों को आकर्षित कर रहे लोग मुंबई जाकर नाम और पैसा कमाना चाहते हैं । देश की आर्थिक राजधानी होने के नाते मुंबई में रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध हैं । रोजगार की तलाश में बडी संख्या में लोग मुंबई जाते हैं । मुंबई के भी लोग नौकरी अथवा अन्य व्यवसायों को करने के लिए देश के विविध भागों में जाकर अपनी किस्मत चमकाते है ं। देश में रोजगार के लिए अगर क्षेत्रवाद की दीवारें खींच दी जाएंगीं तो लोगों को आजीविका जुटाने में बडी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । इसलिए क्षेत्रवाद पर अंकुश लगाना जरूरी है।
(इस लेख को अमर उजाला कॉम्पैक्ट मेरठ के ३१ अक्तूबर २००८ के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर भी पढा जा सकता है)
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
आतंकवाद, मंदी और क्षेत्रवाद की समस्या ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है । पूरी दुनिया सिर्फ मंदी को झेल रही है जबकि भारत के समक्ष इसके साथ ही दो और संकट आतंकवाद और क्षेत्रवाद लोगों की परेशानी का सबब बने हुए हैं । आर्थिक संकट के साथ ही जान-माल की हिफाजत का भरोसा भी शिथिल पड रहा है । कब नौकरी पर छंटनी की तलवार लटक जाए, कब कहीं बम विस्फोट हो जाए, कब क्षेत्रवाद का दानव मौत के घाट उतार दे, किसी को पता नहीं । यह हालात अस्थिरता और तनाव की स्थितियां पैदा कर रहे हैं । हर आदमी इन समस्याओं से व्यथित है । पूरे देश में एक अजीब किस्म का खौफ का माहौल बन रहा है जो लोगों को बेचैन किए है । मौजूदा दौर में उपजी समस्याओं पर गंभीर वैचारिक मंथन की जरूरत है ताकि इनका हल निकाला जा सके ।
आतंकवाद की समस्या देश में गंभीर होती जा रही है । दहशतगर्दों ने न जाने कितने घरों के चिराग बुझा दिए हैं और अनेक लोगों को ऐसे जख्म दिए जिनकी टीस वह जिंदगीभर सहने के लिए मजबूर हैं । बीते छह महीने में देश में ६४ सीरियल ब्लास्ट हुए हैं जिनमें २१५ लोग मारे गए और ९०० घायल हो गए । जयपुर, अहमदाबाद, बंगलूरू और दिल्ली के बाद आतंकवादियों ने ३० अक्तूबर को असम को निशाना बनाया । दहशतगर्दों ने गुवाहाटी, कोकराझार, बोंगाइगांव और बरपेटा में भीडभाड़वाले बाजारों में १३ सिलसिलेवार धमाके कर ६१ लोगों को मौत की नींद सुला दिया । विस्फोट में ४७० लोग घायल हुए हैं । वर्चस्व जाहिर करने के लिए अंजाम दी गई इस सनसनीखेज वारदात में शक की सुई हूजी आतंकियों की ओर है।
इस समय पूरी दुनिया एक गंभीर संकट से गुजर रही है । मंदी की मार ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है । मजबूत अर्थव्यवस्था वाले देशों के उद्यमी भी अपने यहां नौकरियों में कटौती करने के मजबूर हैं । अमेरिका में मंदी की सुनामी ने जो तबाही मचाई है उससे भारत भी अछूता नहीं है । एसोचेम की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक सात प्रमुख औद्योगिक क्षेत्रों में आगामी १० दिन में २५ फीसदी कर्मचारियों की छंटनी की आशंका है हालांकि बाद में यह रिपोर्ट वापस ले ली गई । बेरोजगारी की समस्या झेल रहे इस देश में मंदी से उपजी बेरोजगारी नई पीढी में हताशा और मायूसी ही लाएगी । कैरियर को लेकर जो सपने उन्होंने देखे हैं, उन पर ग्रहण लगता प्रतीत हो रहा है । ऐसे में उनके समक्ष चुनौतियां और बढ़जाएंगी । जटिल परिस्थितियों में कैरियर को आकार देना और अपने सुखद भविष्य की जमीन तैयार करना निसंदेह आसान काम नहीं है । नई पीढ़ी को एक नए उत्साह और दृढ संकल्पशक्ति के साथ शिक्षा और कैरियर से जुडे लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मेहनत करनी होगी । अभिभावकों और शिक्षकों को उनका मार्गदर्शन करना होगा ।
मंदी के संकट के संग ही देश में क्षेत्रवाद ने गंभीर स्थिति पैदा कर दी है । पिछले कुछ अरसे से मराठी क्षेत्रवाद के नाम पर मुंबई में जिस तरह उत्तर भारतीयों की हत्या की जा रही है, वह बहुत खतरनाक संकेत हैं । सपनों की नगरी मुंबई में जाने का ख्वाब पूरे देश के लोग देखते हैं । अभिनय, नाटक और विविध क्षेत्रों में अपनी प्रतिभाओं से लोगों को आकर्षित कर रहे लोग मुंबई जाकर नाम और पैसा कमाना चाहते हैं । देश की आर्थिक राजधानी होने के नाते मुंबई में रोजगार के व्यापक अवसर उपलब्ध हैं । रोजगार की तलाश में बडी संख्या में लोग मुंबई जाते हैं । मुंबई के भी लोग नौकरी अथवा अन्य व्यवसायों को करने के लिए देश के विविध भागों में जाकर अपनी किस्मत चमकाते है ं। देश में रोजगार के लिए अगर क्षेत्रवाद की दीवारें खींच दी जाएंगीं तो लोगों को आजीविका जुटाने में बडी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा । इसलिए क्षेत्रवाद पर अंकुश लगाना जरूरी है।
(इस लेख को अमर उजाला कॉम्पैक्ट मेरठ के ३१ अक्तूबर २००८ के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर भी पढा जा सकता है)
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
Sunday, October 26, 2008
हुआ तिमिर का देश निकाला दीपक जलने से
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
सोने जैसा हुआ उजाला दीपक जलने से,
भाग गयाअँधियारा काला दीपक जलने से ।
आंगन आंगन, बस्ती बस्ती और सभी चौबारों पर,
सजती मोती जैसी माला दीपक जलने से ।
चमक उठे घर देहरी आंगन और गांव की चौपालें,
जगमग मन्दिर और शिवाला दीपक जलने से ।
ज्ञानोदय करने को निकली रूपहली िकरणें अंबर से,
हुआ तिमिर का देश िनकाला दीपक जलने से ।
मस्ती खुशबू, रुप सलोना और नए मीठे कुछ सपने,
जीवन बन जाता मधुशाला दीपक जलने से ।
सोने जैसी रातें लगती चांदी जैसे िदन सारे,
खुला खजाने का ताला दीपक जलने से ।
शब्दों से संगीत निकलता मन की वीणा पर रंजन,
समां गजल का बंधानिराला दीपक जलने से ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
Friday, October 24, 2008
लडिकयों को खुद ही लडनी होगी अपनी लडाई
-डॉ अशोक प्रियरंजन
इस ब्लाग पर नारी िवमशॆ से जुडे िविभन्न मुद्दों को लेकर हुई िवचारोत्तेजक बहस में शािमल िटप्पिणयों के आधार पर यह िनष्कषॆ िनकलता है िक लडिकयों को अपनी लडाई खुद ही लडनी होगी । िजन्दगी को खुशनुमा बनाने के िलए तमाम कोिशशों की पहल उन्हीं को करनी होगी । उनकी इस लडाई में समाज और सरकार सहयोग दे तो उन्हें जल्दी मंिजल िमल जाएगी । मंिजल तक पहुंचने के िलए उन्हें समाज और सरकार की ओर देखने की अपेक्षा खुद को अिधक मजबूत करना होगा । इसके िलए सबसे जरूरी है िशक्षा । लडिकयों को इतनी िशक्षा हािसल करनी होगी जो उन्हें आत्मिनभॆर बना सके । दूसरे के सहारे िजंदगी बसर करने की िस्थित नारी को काफी कमजोर कर देती है । िशक्षा और किरयर के प्रित उन्हें बहुत सजग होने की जरूरत है । यह सजगता उन्हें आत्मिनभॆर बनाने में बहुत कारगर िसद्ध होगी । आत्मिनभॆर होने पर वह पूरे सम्मान, स्वािभमान और मनोवांिछत तरीके से िजंदगी को जी पाएंगी । िशक्षा की रोशनी उनकी पूरी िजंदगी में उजाला भर सकती है । इसमें कोई दोराय नहीं िक लडिकयों को िशक्षा हािसल करने के िलए भी एक पूरी लडाई लडनी होगी । घरवालों को अच्छी िशक्षा हािसल करने के िलए तैयार करना, स्कूल आते जाते समय मनचलों से िनपटना और िफर घर की िजम्मेदािरयों को िनभाते हुए पढाई में अच्छे नतीजे हािसल करना कोई आसान काम नहीं है । इससे भी मुिश्कल है नौकरी हािसल करना । नौकरी पा लेने के बाद पुरुषों के बीच कामयाबी हािसल करना भी जिटल चुनौती होती है । इन चुनौितयों को स्वीकार करके ही अपने अिस्तत्व को व्यापक फलक पर चमकाया जा सकता है ।
जीवनसाथी के चयन में भी जागरूकता जरूरी है । मां-बाप सही फैसला करते हैं लेिकन अगर कभी जीवनसाथी के चयन को लेकर फैसले में दोष िदखाई दे तो उस पर आपित्त करना, अपनी इच्छाओं को अिभव्यक्त करना और सही चयन के िलए तकॆ िवतकॆ करने में कोई बुराई नहीं है । एक बार की न अगर िजंदगीभर की खुिशयों के िलए हां बन सकती है तो एेसा कर लेना चािहए । जीवनसाथी से तालमेल बना रहेगा तो िजंदगी खुशगवार हो जाएगी ।
छेडछाड, दहेज उत्पीडन और पित-ससुराल वालों की ज्यादितयों से िनपटने के िलए अपने मनोबल को मजबूत करना होगा । मानवािधकारों और अपने अिधकारों के प्रित सचेत होना होगा । खुद को जूडो-कराटे जैसे प्रिशक्षण लेकर स्वयं छेडछाड से िनपटने का साहस जुटाना होगा । अन्य ज्यादितयों से कानूनी तरीके से लडाई लडी जा सकती है । इन सब लडाइयों को लडने के िलए साहस, आत्मिवश्वास और स्वाबलंबन की सबसे ज्यादा जरूरत होगी । इन सबके सहारे ही िजंदगी का मकसद हािसल िकया जा सकता है । नारी शिक्त की अथॆवत्ता और महत्ता को रेखांिकत करते हुए देश और समाज में योगदान िदया जा सकता है । िजंदगी को एेसा बनाया जा सकता है िजसमें उम्मीद की रोशनी हो, आत्मिवश्वास की मजबूती और स्वािभमान से सजे इंद्रधनुषी सपने हों और उन्हे पूरे करने की ललक आकार लेती िदखाई दे ।
(फोटो गूगल सचॆ से साभार)ं
इस ब्लाग पर नारी िवमशॆ से जुडे िविभन्न मुद्दों को लेकर हुई िवचारोत्तेजक बहस में शािमल िटप्पिणयों के आधार पर यह िनष्कषॆ िनकलता है िक लडिकयों को अपनी लडाई खुद ही लडनी होगी । िजन्दगी को खुशनुमा बनाने के िलए तमाम कोिशशों की पहल उन्हीं को करनी होगी । उनकी इस लडाई में समाज और सरकार सहयोग दे तो उन्हें जल्दी मंिजल िमल जाएगी । मंिजल तक पहुंचने के िलए उन्हें समाज और सरकार की ओर देखने की अपेक्षा खुद को अिधक मजबूत करना होगा । इसके िलए सबसे जरूरी है िशक्षा । लडिकयों को इतनी िशक्षा हािसल करनी होगी जो उन्हें आत्मिनभॆर बना सके । दूसरे के सहारे िजंदगी बसर करने की िस्थित नारी को काफी कमजोर कर देती है । िशक्षा और किरयर के प्रित उन्हें बहुत सजग होने की जरूरत है । यह सजगता उन्हें आत्मिनभॆर बनाने में बहुत कारगर िसद्ध होगी । आत्मिनभॆर होने पर वह पूरे सम्मान, स्वािभमान और मनोवांिछत तरीके से िजंदगी को जी पाएंगी । िशक्षा की रोशनी उनकी पूरी िजंदगी में उजाला भर सकती है । इसमें कोई दोराय नहीं िक लडिकयों को िशक्षा हािसल करने के िलए भी एक पूरी लडाई लडनी होगी । घरवालों को अच्छी िशक्षा हािसल करने के िलए तैयार करना, स्कूल आते जाते समय मनचलों से िनपटना और िफर घर की िजम्मेदािरयों को िनभाते हुए पढाई में अच्छे नतीजे हािसल करना कोई आसान काम नहीं है । इससे भी मुिश्कल है नौकरी हािसल करना । नौकरी पा लेने के बाद पुरुषों के बीच कामयाबी हािसल करना भी जिटल चुनौती होती है । इन चुनौितयों को स्वीकार करके ही अपने अिस्तत्व को व्यापक फलक पर चमकाया जा सकता है ।
जीवनसाथी के चयन में भी जागरूकता जरूरी है । मां-बाप सही फैसला करते हैं लेिकन अगर कभी जीवनसाथी के चयन को लेकर फैसले में दोष िदखाई दे तो उस पर आपित्त करना, अपनी इच्छाओं को अिभव्यक्त करना और सही चयन के िलए तकॆ िवतकॆ करने में कोई बुराई नहीं है । एक बार की न अगर िजंदगीभर की खुिशयों के िलए हां बन सकती है तो एेसा कर लेना चािहए । जीवनसाथी से तालमेल बना रहेगा तो िजंदगी खुशगवार हो जाएगी ।
छेडछाड, दहेज उत्पीडन और पित-ससुराल वालों की ज्यादितयों से िनपटने के िलए अपने मनोबल को मजबूत करना होगा । मानवािधकारों और अपने अिधकारों के प्रित सचेत होना होगा । खुद को जूडो-कराटे जैसे प्रिशक्षण लेकर स्वयं छेडछाड से िनपटने का साहस जुटाना होगा । अन्य ज्यादितयों से कानूनी तरीके से लडाई लडी जा सकती है । इन सब लडाइयों को लडने के िलए साहस, आत्मिवश्वास और स्वाबलंबन की सबसे ज्यादा जरूरत होगी । इन सबके सहारे ही िजंदगी का मकसद हािसल िकया जा सकता है । नारी शिक्त की अथॆवत्ता और महत्ता को रेखांिकत करते हुए देश और समाज में योगदान िदया जा सकता है । िजंदगी को एेसा बनाया जा सकता है िजसमें उम्मीद की रोशनी हो, आत्मिवश्वास की मजबूती और स्वािभमान से सजे इंद्रधनुषी सपने हों और उन्हे पूरे करने की ललक आकार लेती िदखाई दे ।
(फोटो गूगल सचॆ से साभार)ं
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Saturday, October 18, 2008
पुरुषवादी सोच में तबदीली से बदलेगी महिलाओं की जिंदगी
डॉ. अशोक प्रियरंजन
१२ अक्टूबर को इस ब्लाग पर िलखे अपने लेख-सुरक्षा ही नहीं होगी तो कैसे नौकरी करेंगी मिहलाएं- पर जो प्रितिक्रयाएं आईं उन्होने बहस को आगे बढाते हुए कई सवाल खडे कर िदए । इसके साथ ही वैचािरक मंथन से कुछ एेसे िनष्कषॆ भी िनकले िजन पर िवचार करना समय की जरूरत है । इसमें कोई दो राय नहीं िक पहले के मुकाबले लडिकयों और मिहलाओं की िस्थितयों में व्यापक सुधार हुआ है । समाज और सरकार दोनों स्तरों पर जो प्रयास हुए, उसी का नतीजा है िक आज लडिकयों का बहुत बडा वगॆ अपनी िजंदगी के सपनों में रंग भर सकता हैं और उन्हें दृढ संकल्पशिक्त के सहारे हकीकत में भी बदल सकता हैं । पहले की अपेक्षा लडिकयां अिधक िशिक्षत हुई हैं, उन्हें रोजगार के अवसर बढे हैं, स्वतंंत्र िनणॆय लेने के अवसर भी िमल रहे हैं । यह बदलाव बहुत सुखद संकेत है ।
इस सबके बावजूद अभी भी बहुत कुछ एेसा है जो उन्हें उनके कमजोर होने का अहसास करा देता है । यह अहसास ही एेसी पीडा है िजसको िमटाने के िलए अमृतमयी औषिध खोजनी होगी । यह औषिध समाज से ही हािसल होगी । समाज को पुरूषवादी सोच में बदलाव लाना होगा िजसके चलते संपूणॆ नारी जाित को कई तकलीफों का सामना करना पडता है ।
अब सवाल पैदा होता है िक पुृरुषवादी सोच क्या है ? इसका प्रभाव क्या है ? यह िवकास में िकस तरह से बाधक है और इसे कैसे दूर िकया जा सकता है ? दरअसल पुरुषवादी सोच ही है जो समाज और पिरवार के तमाम महत्वपूणॆ फैसलों में पुरुष की भूिमका को ही िनणाॆयक मानती है । मिहलाओं और लडिकयों के जीवन से जुडे फैसले भी पुरुष ही करते हैं । यह अलग बात है िक कई बार ये फैसले गलत हो जाते हैं पूरी उम्र वह लडकी इसका खािमयाजा भुगतती रहती है । पुरुषवादी सोच के चलते ही कोई नारी अपने जीवन के संबंध में स्वतंत्र िनणॆय नहीं ले पाती । उसकी प्रितभा का व्यापक फलक पर प्रदशॆन नहीं हो पाता । उसका आत्मिवश्वास घटता है । कदम कदम पर उसे समझौते करने के िलए िववश होना पडता है । पुरुषवादी सोच ही िकसी लडकी की पूरी िजंदगी की तस्वीर बदल देती है । अगर इस सोच में बदलाव आ पाए तो मिहलाओं की भूिमका, प्रितभा और आत्मिवश्वास व्यापक फलक पर चमककर देश और समाज के िलए और महत्वपूणॆ योगदान देने में समथॆ हो जाएगी ।
इस संबंध में रंजना की राय है िक शिक्षा अपने आप बहुत कुछ बदल देगी ।और इसके लिए जितना पुरुषों को आगे आना है उस से अधिक महिलाओं को आगे आना होगा। क्योंकि अभी जो शिक्षित स्त्रियाँ हैं और धनार्जन कर रही हैं वे अपने स्त्री समुदाय के लिए कुछ करने के बजाय अपने भौतिक सुख सुविधाओं के लिए ही धन व्यय करती हैं,अपने समाज के उत्थान की तरफ़ उनका ध्यान शायद ही जाता है स्त्रियों की दशा सुधरने में जितना कुछ पुरुषों को करना है उससे बहुत अधिक स्त्रियों को करना है । शोभा का मानना है िक नारी को स्वयं को बलवान बनाना होगा। अपनी लड़ाई वेह किसी की मदद के बिना भी जीत सकती है। उसमें अपार शक्ति है। कमी केवल उसके भीतर छिपे आतम विश्वास की है ।
स्वाित भी सोच में बदलाव की पक्षधर हैं । वह िलखती हैं िक यहाँ सिर्फ़ नारी की हिम्मत बढ़ाने की बात मत कीजिये । पुरूष-मानसिकता बदलाव की भी चर्चा कीजिये, जो इसका मूल कारन है । िववेक गुप्ता, हिर जोशी (इदॆ-िगदॆ), रचना िसंह, प्रीित वथॆवाल मानते हैं िक नारी को अभी और संघषॆ करना होगा । पलिअकारा का विचार है की लडाई तो लंबी चलेगी और महिलाओं को मजबूत होना ही होगा । मानसिकता में परिवर्तन भी धीरे धीरे ही आएगा ।
लडिकयों की सुरक्षा के संदभॆ में श्रुति की राय बडी महत्वपूणॆ है । उनका कहना है िक क्या लडकी की इज्जत और गौरवभान सिर्फ उसके शरीर से जुडा है । आत्मा की सच्चाई और दिमाग की शक्ति कोई मायने नहीं रखती । इसलिए अपनी सुरक्षा खुद कीजिए । बहार निकलिए आसमां को एक बार निहारिए अपने पंख फैलाइए और उड़जाइए । इस आसमां को फतह करने के लिए । कविताप्रयास कहती हैं आज की कामकाजी महिला को भी स्वयम रक्षा के लिए शारीरिक एवं मानसिक रूप से तैयार होना होगा | सचिन मिश्रा और रंजन राजन के मुताबिक रात में काम करने वाले सभी को सुरक्षा मिलनी चाहिए। ।
शमा की राय में लडिकयों को यह समझ लेना चािहए िक शरीर के मुकाबले उनकी रूह ज्यादा कीमती है । मिहलाओं को अपनी सुरक्षा खुद करनी होगी, समाज से उन्हें सुरक्षा की अपेक्षा छोडनी होगी । घरों में मिहलाओं की आत्मा को पल-पल घायल िकया जाता है, वहां कैसे सुरक्षा होगी ? सरीता लिखती हैं महिलाओं के लिए स्वतंत्रता की नहीं बल्कि स्वाव्लंबन की ज़रुरत है । बेहतर होगा कि आत्म निर्भर बनने के लिए महिलाएं स्वयं प्रयास करें । मुझे लगता है कि महिलाओं ्को सरकारी टेके की कोई दरकार नहीं । अपने अस्तित्व को समझते ही स्त्री संभावनाओं के आकाश में उडान भर सकेंगी ।
निर्मल गुप्त की राइ में बदलाव के लिए महिलाओं को ही पहल करनी होगी । डा कुमारेंद्र िसंह सेंगर और शैली खत्री का कहना है िक छेडछाड का मुंहतोड जवाब देकर ही असामािजक तत्वों के हौसले पस्त िकए जा सकते हैं । उनमें अगर यह भय पैदा हो गया िक लडकी थप्पड मार देगी तो वह छेडछाड का साहस नहीं कर पाएंगे । जमोस झल्ला का कहना है िक सभी लड़कियों को सुरक्षा देना सम्भव नही है, इसलिए उन्हे ख़ुद आत्मविश्वास से यह लडाई लड़नी होगी ।
राधिका बुधकर, अनिल पुसदकर, फिरदौस खान, डॉ अनुराग, प्रदीप मनोरिया, श्याम कोरी उदा, ममता, रेनू शर्मा, पारुल, लवली और डॉ विश ने भी महिलाओं के संघर्ष को रेखांकित किया
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
१२ अक्टूबर को इस ब्लाग पर िलखे अपने लेख-सुरक्षा ही नहीं होगी तो कैसे नौकरी करेंगी मिहलाएं- पर जो प्रितिक्रयाएं आईं उन्होने बहस को आगे बढाते हुए कई सवाल खडे कर िदए । इसके साथ ही वैचािरक मंथन से कुछ एेसे िनष्कषॆ भी िनकले िजन पर िवचार करना समय की जरूरत है । इसमें कोई दो राय नहीं िक पहले के मुकाबले लडिकयों और मिहलाओं की िस्थितयों में व्यापक सुधार हुआ है । समाज और सरकार दोनों स्तरों पर जो प्रयास हुए, उसी का नतीजा है िक आज लडिकयों का बहुत बडा वगॆ अपनी िजंदगी के सपनों में रंग भर सकता हैं और उन्हें दृढ संकल्पशिक्त के सहारे हकीकत में भी बदल सकता हैं । पहले की अपेक्षा लडिकयां अिधक िशिक्षत हुई हैं, उन्हें रोजगार के अवसर बढे हैं, स्वतंंत्र िनणॆय लेने के अवसर भी िमल रहे हैं । यह बदलाव बहुत सुखद संकेत है ।
इस सबके बावजूद अभी भी बहुत कुछ एेसा है जो उन्हें उनके कमजोर होने का अहसास करा देता है । यह अहसास ही एेसी पीडा है िजसको िमटाने के िलए अमृतमयी औषिध खोजनी होगी । यह औषिध समाज से ही हािसल होगी । समाज को पुरूषवादी सोच में बदलाव लाना होगा िजसके चलते संपूणॆ नारी जाित को कई तकलीफों का सामना करना पडता है ।
अब सवाल पैदा होता है िक पुृरुषवादी सोच क्या है ? इसका प्रभाव क्या है ? यह िवकास में िकस तरह से बाधक है और इसे कैसे दूर िकया जा सकता है ? दरअसल पुरुषवादी सोच ही है जो समाज और पिरवार के तमाम महत्वपूणॆ फैसलों में पुरुष की भूिमका को ही िनणाॆयक मानती है । मिहलाओं और लडिकयों के जीवन से जुडे फैसले भी पुरुष ही करते हैं । यह अलग बात है िक कई बार ये फैसले गलत हो जाते हैं पूरी उम्र वह लडकी इसका खािमयाजा भुगतती रहती है । पुरुषवादी सोच के चलते ही कोई नारी अपने जीवन के संबंध में स्वतंत्र िनणॆय नहीं ले पाती । उसकी प्रितभा का व्यापक फलक पर प्रदशॆन नहीं हो पाता । उसका आत्मिवश्वास घटता है । कदम कदम पर उसे समझौते करने के िलए िववश होना पडता है । पुरुषवादी सोच ही िकसी लडकी की पूरी िजंदगी की तस्वीर बदल देती है । अगर इस सोच में बदलाव आ पाए तो मिहलाओं की भूिमका, प्रितभा और आत्मिवश्वास व्यापक फलक पर चमककर देश और समाज के िलए और महत्वपूणॆ योगदान देने में समथॆ हो जाएगी ।
इस संबंध में रंजना की राय है िक शिक्षा अपने आप बहुत कुछ बदल देगी ।और इसके लिए जितना पुरुषों को आगे आना है उस से अधिक महिलाओं को आगे आना होगा। क्योंकि अभी जो शिक्षित स्त्रियाँ हैं और धनार्जन कर रही हैं वे अपने स्त्री समुदाय के लिए कुछ करने के बजाय अपने भौतिक सुख सुविधाओं के लिए ही धन व्यय करती हैं,अपने समाज के उत्थान की तरफ़ उनका ध्यान शायद ही जाता है स्त्रियों की दशा सुधरने में जितना कुछ पुरुषों को करना है उससे बहुत अधिक स्त्रियों को करना है । शोभा का मानना है िक नारी को स्वयं को बलवान बनाना होगा। अपनी लड़ाई वेह किसी की मदद के बिना भी जीत सकती है। उसमें अपार शक्ति है। कमी केवल उसके भीतर छिपे आतम विश्वास की है ।
स्वाित भी सोच में बदलाव की पक्षधर हैं । वह िलखती हैं िक यहाँ सिर्फ़ नारी की हिम्मत बढ़ाने की बात मत कीजिये । पुरूष-मानसिकता बदलाव की भी चर्चा कीजिये, जो इसका मूल कारन है । िववेक गुप्ता, हिर जोशी (इदॆ-िगदॆ), रचना िसंह, प्रीित वथॆवाल मानते हैं िक नारी को अभी और संघषॆ करना होगा । पलिअकारा का विचार है की लडाई तो लंबी चलेगी और महिलाओं को मजबूत होना ही होगा । मानसिकता में परिवर्तन भी धीरे धीरे ही आएगा ।
लडिकयों की सुरक्षा के संदभॆ में श्रुति की राय बडी महत्वपूणॆ है । उनका कहना है िक क्या लडकी की इज्जत और गौरवभान सिर्फ उसके शरीर से जुडा है । आत्मा की सच्चाई और दिमाग की शक्ति कोई मायने नहीं रखती । इसलिए अपनी सुरक्षा खुद कीजिए । बहार निकलिए आसमां को एक बार निहारिए अपने पंख फैलाइए और उड़जाइए । इस आसमां को फतह करने के लिए । कविताप्रयास कहती हैं आज की कामकाजी महिला को भी स्वयम रक्षा के लिए शारीरिक एवं मानसिक रूप से तैयार होना होगा | सचिन मिश्रा और रंजन राजन के मुताबिक रात में काम करने वाले सभी को सुरक्षा मिलनी चाहिए। ।
शमा की राय में लडिकयों को यह समझ लेना चािहए िक शरीर के मुकाबले उनकी रूह ज्यादा कीमती है । मिहलाओं को अपनी सुरक्षा खुद करनी होगी, समाज से उन्हें सुरक्षा की अपेक्षा छोडनी होगी । घरों में मिहलाओं की आत्मा को पल-पल घायल िकया जाता है, वहां कैसे सुरक्षा होगी ? सरीता लिखती हैं महिलाओं के लिए स्वतंत्रता की नहीं बल्कि स्वाव्लंबन की ज़रुरत है । बेहतर होगा कि आत्म निर्भर बनने के लिए महिलाएं स्वयं प्रयास करें । मुझे लगता है कि महिलाओं ्को सरकारी टेके की कोई दरकार नहीं । अपने अस्तित्व को समझते ही स्त्री संभावनाओं के आकाश में उडान भर सकेंगी ।
निर्मल गुप्त की राइ में बदलाव के लिए महिलाओं को ही पहल करनी होगी । डा कुमारेंद्र िसंह सेंगर और शैली खत्री का कहना है िक छेडछाड का मुंहतोड जवाब देकर ही असामािजक तत्वों के हौसले पस्त िकए जा सकते हैं । उनमें अगर यह भय पैदा हो गया िक लडकी थप्पड मार देगी तो वह छेडछाड का साहस नहीं कर पाएंगे । जमोस झल्ला का कहना है िक सभी लड़कियों को सुरक्षा देना सम्भव नही है, इसलिए उन्हे ख़ुद आत्मविश्वास से यह लडाई लड़नी होगी ।
राधिका बुधकर, अनिल पुसदकर, फिरदौस खान, डॉ अनुराग, प्रदीप मनोरिया, श्याम कोरी उदा, ममता, रेनू शर्मा, पारुल, लवली और डॉ विश ने भी महिलाओं के संघर्ष को रेखांकित किया
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
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Sunday, October 12, 2008
सुरक्षा ही नहीं होगी तो कैसे नौकरी करेंगी मिहलाएं
-डॉ अशोक प्रियरंजन
छह अक्टूबर को इस ब्लाग में िलखे अपने- लेख िकतनी लडाइयां लडंेगी लडिकयां -पर जो कमेंट्स आए, उन्होंने मेरे सामने कई सवाल खडे कर िदए । इन सवालों पर वैचािरक मंथन करने पर लगा िक यह िवषय अभी और िवस्तार की संभावना िलए हुए है । इस पर सार्थक बहस की गुंजाइश है । एक सवाल यह भी आया की क्या कामकाजी परिवेश महिलाओं के लिए अनुकूल है ? आज महिलाओं का शैक्षिक स्तर और रोजगार के अवसर बढे हैं, लेकिन कामकाजी परिवेश सुरक्षित नहीं है । घर की चारदीवारी से बाहर निकलते ही महिलाओं को सुरक्षा की चिंता सताने लगती है । एसोचैम के ताजा सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ है कि देश की ५३ फीसदी नौकरीपेशा महिलाएं खुद को असुरक्षित मानती हैं । ८६ प्रतिशत नाइट शिफ्ट में आते-जाते समय परेशानी महसूस करती हैं । बीपीओ, आईटी, होटल इंडस्ट्री, नागरिक उड्डयन, नर्सिंग होम, गारमेंट इंडस्ट्री में लगभग ५३ प्रतिशत कामकाजी महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं । देश की राजधानी दिल्ली तक में ६५ फीसदी महिलाएं खुद को महफूज नहीं मानतीं हैं । बीपीओ तथा आईटी सेक्टर की महिलाओं को इसका सबसे ज्यादा खतरा सताता है । नर्सिंग होम और अस्पतालों में रात में काम करने वाली ५३ प्रतिशत महिलाओं को भी हर वक्त यही चिंता रहती है । ऐसी हालत में महिलाओं का पुरुषों के समान काम करने का सपना कैसे पूरा होगा । सच यह है की जब तक कर्येस्थालों पर सुरक्षा नहीं होगी, महिलाएं पूरे आत्मविश्वास के साथ नौकरी नौकरी नहीं कर पायेंगी ।
वास्तव में भारतीय समाज में महिलाओं का संघर्ष बहुत व्यापक है । इसकी अभिव्यक्ति ब्लॉगर के कमेंट्स से भी होती है । निर्मल गुप्त ने लिखा की इस लेख से सार्थक बहस की शुरुआत हो सकती है । इस बारे में राधिका बुधकर का मानना है की यह समस्या समाज की हैं । स्त्री जो भी भुगत रही हैं वह संपूर्ण समाज की दुर्बल मानसिकता का परिचायक हैं । कुछ प्रबुद्ध पुरूष वर्ग स्त्री के विकास के लिए प्रयत्न कर रहा हैं ,किंतु यह नाकाफी हैं । स्त्री का जीवन तभी बदलेगा ,जब वह खुद इस दिशा में प्रयत्न करेगी । आखिर मुसीबते उसकी ही मंजिलो में रोड़ा बनकर खड़ी हैं । कुछ स्त्रियाँ ऐसा कर भी रही हैं ,किंतु कुछ के प्रयत्न करने से बहुत कुछ स्त्री विकास की आशा नही की जा सकती । सर्वप्रथम स्त्री को ही यह समझना होगा की उसे किस दिशा में व कैसे प्रयत्न करने हैं । उसे सामाजिक व आर्थिक दोनों क्षेत्रो में मजबूत होने के साथ ही ऐसे छेडछाड़ करने वाले लडको को दो थप्पड़खींच के देने हिम्मत भी करनी पड़ेगी । अगर लडकियों ने ऐसा करना शुरू किया तो इस तरह के लडको की हिम्मत भी नही रहेगी ऐसा करने की ।
समीर लाल (उड़न तश्तरी ) की राय में निश्चित ही इस दिशा में बदलाव आया है और अनेक बदलावों की आशा है । रचना ने तो ब्लागरों को ही आलोचना की । उनका कहना है की हिन्दी ब्लोगिंग मे कुछ गिने चुने ब्लॉगर ही हैं जो महिला आधारित विषयों पर महिला के दृष्टिकोण को रखते हैं । यहाँ ज्यादातर ब्लॉगर केवल और केवल एक रुढिवादी सोच से बंधे हैं जो महिला को केवल और केवल घर मे रहने वाली वास्तु समझते हैं । फिरदौस खान कहती हैं की हैरत की बात तो यह है कि पढ़े-लिखे लोग भी यह समझते हैं कि लड़किया कुछ नहीं कर सकतीं... हमारे ही ब्लॉग को कुछ ब्लोगर किसी पुरूष का ब्लॉग मानते हैं... क्या किसी लडकी को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार नहीं है...? अनिल पुसादकर के अनुसार लडकियों को वाकई हर मोर्चे पर लडना पड रहा है । घर के बाहर भी और भीतर भी । वंश बढाने वाली बात भी अब गले नही उतरती । आश्रमों मे जाकर बुजूर्गों को देखो तो लगता है की एक नही चार पुत्र होने के बाद ये यंहा रहने पर मज़बूर हैं तो ऐसे पुत्रों का क्या फ़ायदा । उनसे तो बेटियां हज़ार गुना अच्छी हैं । जाकिर अली रजनीश कहते हैं की यह लडाई सिर्फ लडकियों की नहीं, मानसिकता की है । और ऐसी लडाइयों के लिए कभी कभी सदिया भी नाकाफी होती हैं । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि लडाई छोड दी जाए । ध्यान रखें कि लडाई जितनी कठिन हो, मंजिल उतनी आनंददायक होती है ।
रक्षंदा का मत है की ये लड़ाई सदियों से चलती आरही है और अभी जाने कब तक चलती रहेगी क्योंकि मंजिल अभी काफी दूर है..लेकिन हौसले हैं की बढ़ते जारहे हैं...और जब साथ इतने मज़बूत हौसले हों तो मंजिल देर में सही, मिलती जरूर है... डॉ अनुराग मानते हैं की हौसलों के लिए कोई बंधन नही ......ऐसी कितनी लडकिया अनसंग हीरो की तरह रोजमर्रा के जीवन में अपनी लड़ाई लड़रही है । ज्ञान का कहना है की समस्यायें तो सभी जगह और सभी को है, लड़कियाँ उनसे अलग नहीं हैं । हाँ उनकी श्रेणी ज़रूर अलग है ।
प्रीती बर्थवाल के मुताबिक कि 'कदम कदम पर एक नई लङाई का सामना करना पङता है लङकीयों को । बदलाव की उम्मीद करते ही रहते है लेकिन कब तक होगा? कुछ बदलाव हुए है लेकिन वहां भी ऐसों की कमी नही होती जो राह में रोङे न अटकाते हों । सरीता का कहना है की संचार क्रांति के इस युग में मोबाइल जैसे उपकरणों ने समाज को बहुआयामी साधन मुहैया कराए हैं , लेकिन गैर ज़िम्मेदार तौर - तरीकों ने इस बेहतरीन संपर्क साधन को घातक बना दिया है । महिलाओं की तरक्की को रोकने की ये बेहूदा हरकतें कामयाब नहीं होंगी ।
रेनू शमाॆ का मानना है िक इस तरह के लेख पढकर लगता है िक नारी की आवाज भी कोई सुन सकता है । तरूण का कहना है िक न जाने िकतनी लडिकयां हर रोज लडाइयां लडती हैं । शैली खत्री के मुतािबक लडिकयों के लडिकयों के मामले में बहुत कुछ सुधरा है पर अभी कई मोरचे जीतने बाकी हैं । इसमें समय लगेगा। क्योंिक कुछ बदलाव हर जगह समान रूप से नहीं हुआ है। ज्योित सराफ की राय में आज तो आलम यह है िक मिहला मुसीबतों की परवाह िकए िबना अपने लक्षय को पाने के िलए आगे बढ़ रही है । वहीं पुरुष अपनी झूठी शान बचाने के िलए प्रयत्नशील है । शोभा, सीमा गुप्ता, हिर जोशी, प्रदीप मनोिरया और सिचन िमश्रा ने भी लडिकयों के संघर्ष को रेखांिकत िकया ।
वास्तव में इसमे कोई दो राय नहीं िक िस्थितयां सुधरी हैं लेिकन अभी काफी कुछ सुधार की गुंजाइश है । मिहलाओं के संघर्ष को सार्थक बनाने के िलए केवल सरकार ही नहीं बिल्क समाज के िविवध वर्गों को भी प्यास करने होंगे । तभी वह पूरे सम्मान, िनभीॆकता और आत्मिवश्वास के साथ देश के िवकास में अपना योगदान दे पाएंगी
बहस के मुद्दे- इस मुद्दे पर बहस के िलए कई सवाल उभरकर सामने आए हैं िजन पर वैचािरक मंथन िकया जाना जरूरी है । इन सवालों पर बुिद्धजीिवयों की राय अपेिक्षत है-
१-छेडछाड से लडिकयां और मिहलाएं कैसे िनबटें । इसकी रोकथाम के िलए क्या उपाय और िकए जाने चािहए ।
२-काजकाम का पिरवेश अनुकूल बनाने के िलए क्या प्रयास िकए जाने चािहए ।
३-मिहलाओं की िस्थित सुधारने के िलए सरकार से क्या अपेक्षाएं हैं ।
४-समाज के दृिष्टकोण में िकस तरह के बदलाव की उम्मीद की जानी चािहए ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
छह अक्टूबर को इस ब्लाग में िलखे अपने- लेख िकतनी लडाइयां लडंेगी लडिकयां -पर जो कमेंट्स आए, उन्होंने मेरे सामने कई सवाल खडे कर िदए । इन सवालों पर वैचािरक मंथन करने पर लगा िक यह िवषय अभी और िवस्तार की संभावना िलए हुए है । इस पर सार्थक बहस की गुंजाइश है । एक सवाल यह भी आया की क्या कामकाजी परिवेश महिलाओं के लिए अनुकूल है ? आज महिलाओं का शैक्षिक स्तर और रोजगार के अवसर बढे हैं, लेकिन कामकाजी परिवेश सुरक्षित नहीं है । घर की चारदीवारी से बाहर निकलते ही महिलाओं को सुरक्षा की चिंता सताने लगती है । एसोचैम के ताजा सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ है कि देश की ५३ फीसदी नौकरीपेशा महिलाएं खुद को असुरक्षित मानती हैं । ८६ प्रतिशत नाइट शिफ्ट में आते-जाते समय परेशानी महसूस करती हैं । बीपीओ, आईटी, होटल इंडस्ट्री, नागरिक उड्डयन, नर्सिंग होम, गारमेंट इंडस्ट्री में लगभग ५३ प्रतिशत कामकाजी महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं । देश की राजधानी दिल्ली तक में ६५ फीसदी महिलाएं खुद को महफूज नहीं मानतीं हैं । बीपीओ तथा आईटी सेक्टर की महिलाओं को इसका सबसे ज्यादा खतरा सताता है । नर्सिंग होम और अस्पतालों में रात में काम करने वाली ५३ प्रतिशत महिलाओं को भी हर वक्त यही चिंता रहती है । ऐसी हालत में महिलाओं का पुरुषों के समान काम करने का सपना कैसे पूरा होगा । सच यह है की जब तक कर्येस्थालों पर सुरक्षा नहीं होगी, महिलाएं पूरे आत्मविश्वास के साथ नौकरी नौकरी नहीं कर पायेंगी ।
वास्तव में भारतीय समाज में महिलाओं का संघर्ष बहुत व्यापक है । इसकी अभिव्यक्ति ब्लॉगर के कमेंट्स से भी होती है । निर्मल गुप्त ने लिखा की इस लेख से सार्थक बहस की शुरुआत हो सकती है । इस बारे में राधिका बुधकर का मानना है की यह समस्या समाज की हैं । स्त्री जो भी भुगत रही हैं वह संपूर्ण समाज की दुर्बल मानसिकता का परिचायक हैं । कुछ प्रबुद्ध पुरूष वर्ग स्त्री के विकास के लिए प्रयत्न कर रहा हैं ,किंतु यह नाकाफी हैं । स्त्री का जीवन तभी बदलेगा ,जब वह खुद इस दिशा में प्रयत्न करेगी । आखिर मुसीबते उसकी ही मंजिलो में रोड़ा बनकर खड़ी हैं । कुछ स्त्रियाँ ऐसा कर भी रही हैं ,किंतु कुछ के प्रयत्न करने से बहुत कुछ स्त्री विकास की आशा नही की जा सकती । सर्वप्रथम स्त्री को ही यह समझना होगा की उसे किस दिशा में व कैसे प्रयत्न करने हैं । उसे सामाजिक व आर्थिक दोनों क्षेत्रो में मजबूत होने के साथ ही ऐसे छेडछाड़ करने वाले लडको को दो थप्पड़खींच के देने हिम्मत भी करनी पड़ेगी । अगर लडकियों ने ऐसा करना शुरू किया तो इस तरह के लडको की हिम्मत भी नही रहेगी ऐसा करने की ।
समीर लाल (उड़न तश्तरी ) की राय में निश्चित ही इस दिशा में बदलाव आया है और अनेक बदलावों की आशा है । रचना ने तो ब्लागरों को ही आलोचना की । उनका कहना है की हिन्दी ब्लोगिंग मे कुछ गिने चुने ब्लॉगर ही हैं जो महिला आधारित विषयों पर महिला के दृष्टिकोण को रखते हैं । यहाँ ज्यादातर ब्लॉगर केवल और केवल एक रुढिवादी सोच से बंधे हैं जो महिला को केवल और केवल घर मे रहने वाली वास्तु समझते हैं । फिरदौस खान कहती हैं की हैरत की बात तो यह है कि पढ़े-लिखे लोग भी यह समझते हैं कि लड़किया कुछ नहीं कर सकतीं... हमारे ही ब्लॉग को कुछ ब्लोगर किसी पुरूष का ब्लॉग मानते हैं... क्या किसी लडकी को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार नहीं है...? अनिल पुसादकर के अनुसार लडकियों को वाकई हर मोर्चे पर लडना पड रहा है । घर के बाहर भी और भीतर भी । वंश बढाने वाली बात भी अब गले नही उतरती । आश्रमों मे जाकर बुजूर्गों को देखो तो लगता है की एक नही चार पुत्र होने के बाद ये यंहा रहने पर मज़बूर हैं तो ऐसे पुत्रों का क्या फ़ायदा । उनसे तो बेटियां हज़ार गुना अच्छी हैं । जाकिर अली रजनीश कहते हैं की यह लडाई सिर्फ लडकियों की नहीं, मानसिकता की है । और ऐसी लडाइयों के लिए कभी कभी सदिया भी नाकाफी होती हैं । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि लडाई छोड दी जाए । ध्यान रखें कि लडाई जितनी कठिन हो, मंजिल उतनी आनंददायक होती है ।
रक्षंदा का मत है की ये लड़ाई सदियों से चलती आरही है और अभी जाने कब तक चलती रहेगी क्योंकि मंजिल अभी काफी दूर है..लेकिन हौसले हैं की बढ़ते जारहे हैं...और जब साथ इतने मज़बूत हौसले हों तो मंजिल देर में सही, मिलती जरूर है... डॉ अनुराग मानते हैं की हौसलों के लिए कोई बंधन नही ......ऐसी कितनी लडकिया अनसंग हीरो की तरह रोजमर्रा के जीवन में अपनी लड़ाई लड़रही है । ज्ञान का कहना है की समस्यायें तो सभी जगह और सभी को है, लड़कियाँ उनसे अलग नहीं हैं । हाँ उनकी श्रेणी ज़रूर अलग है ।
प्रीती बर्थवाल के मुताबिक कि 'कदम कदम पर एक नई लङाई का सामना करना पङता है लङकीयों को । बदलाव की उम्मीद करते ही रहते है लेकिन कब तक होगा? कुछ बदलाव हुए है लेकिन वहां भी ऐसों की कमी नही होती जो राह में रोङे न अटकाते हों । सरीता का कहना है की संचार क्रांति के इस युग में मोबाइल जैसे उपकरणों ने समाज को बहुआयामी साधन मुहैया कराए हैं , लेकिन गैर ज़िम्मेदार तौर - तरीकों ने इस बेहतरीन संपर्क साधन को घातक बना दिया है । महिलाओं की तरक्की को रोकने की ये बेहूदा हरकतें कामयाब नहीं होंगी ।
रेनू शमाॆ का मानना है िक इस तरह के लेख पढकर लगता है िक नारी की आवाज भी कोई सुन सकता है । तरूण का कहना है िक न जाने िकतनी लडिकयां हर रोज लडाइयां लडती हैं । शैली खत्री के मुतािबक लडिकयों के लडिकयों के मामले में बहुत कुछ सुधरा है पर अभी कई मोरचे जीतने बाकी हैं । इसमें समय लगेगा। क्योंिक कुछ बदलाव हर जगह समान रूप से नहीं हुआ है। ज्योित सराफ की राय में आज तो आलम यह है िक मिहला मुसीबतों की परवाह िकए िबना अपने लक्षय को पाने के िलए आगे बढ़ रही है । वहीं पुरुष अपनी झूठी शान बचाने के िलए प्रयत्नशील है । शोभा, सीमा गुप्ता, हिर जोशी, प्रदीप मनोिरया और सिचन िमश्रा ने भी लडिकयों के संघर्ष को रेखांिकत िकया ।
वास्तव में इसमे कोई दो राय नहीं िक िस्थितयां सुधरी हैं लेिकन अभी काफी कुछ सुधार की गुंजाइश है । मिहलाओं के संघर्ष को सार्थक बनाने के िलए केवल सरकार ही नहीं बिल्क समाज के िविवध वर्गों को भी प्यास करने होंगे । तभी वह पूरे सम्मान, िनभीॆकता और आत्मिवश्वास के साथ देश के िवकास में अपना योगदान दे पाएंगी
बहस के मुद्दे- इस मुद्दे पर बहस के िलए कई सवाल उभरकर सामने आए हैं िजन पर वैचािरक मंथन िकया जाना जरूरी है । इन सवालों पर बुिद्धजीिवयों की राय अपेिक्षत है-
१-छेडछाड से लडिकयां और मिहलाएं कैसे िनबटें । इसकी रोकथाम के िलए क्या उपाय और िकए जाने चािहए ।
२-काजकाम का पिरवेश अनुकूल बनाने के िलए क्या प्रयास िकए जाने चािहए ।
३-मिहलाओं की िस्थित सुधारने के िलए सरकार से क्या अपेक्षाएं हैं ।
४-समाज के दृिष्टकोण में िकस तरह के बदलाव की उम्मीद की जानी चािहए ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
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Wednesday, October 8, 2008
रावण तेरे िकतने रूप
-डॉ अशोक प्रियरंजन
हर साल िवजयदशमी पर रावण का पुतला जलाया जाता है । पूरे देश में कागज के पुतले तो जला िदए जाते हैं लेिकन समाज में मौजूद अनेक रावण अभी भी िजंदा हैं । कागज के पुतलों से अिधक जरूरी उन रावणों को जलाना है जो पूरे देश की जनता को परेशान िकए हैं और उनके िलए िचंता का सबब बने हुए हैं । तमाम कोिशशों के बाद भी इन रावणों को अभी तक नहीं जलाया जा सका है । देश और समाज में ये रावण िविवध रूपों में मौजूद हैं और अक्सर सामने आते रहते हैं । रामराज में भोली-भाली जनता और साधु संत राक्षसरूपी रावण से भयभीत थे । आज भी आतंकवाद रूपी रावण िसर उठाये पूरे देश के सामने खडा है । यह रावण कभी मुंबई, कभी हैदराबाद, कभी िदल्ली, कभी अहमदाबाद में तबाही मचाता है । न जाने िकतने लोगों की जानें इस रावण ने ले ली हैं । िकतने घरों को आतंकवाद ने तबाह कर िदया है । इसे खत्म करना जरूरी है ।
रावण ने सीता का अपहरण िकया और बाद में यही बात उसके संहार का कारण बनी । आज िस्थित गंभीर है । न जाने देश में िकतनी मिहलाओं और लड़कियों के अपहरण होते हैं लेिकन अपहरण करने वाले बेखौफ घूमते हैं अलबत्ता कई बार अपहरण की त्रासदी के कारण नारकीज िजंदगी की आशंका से पीिडत़मिहला जरूर अपनी िजंदगी से मुंह मोड़लेती है । आज के अपहरणकतार्ता रूपी रावण को िकसी राम का भय नहीं है ।
रावण अनाचार का प्रतीक था लेिकन आज तो पूरे देश में ही भ्रष्टाचार व्याप्त है । भ्रष्टाचार में भारत ने िवश्व पटल पर अपनी पहचान बनाई है । मनुष्य का आचरण हो या सरकारी गैरसरकारी कामकाज सभी पर भ्रष्टाचार की छाया है । हर आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है, इसके बावजूद पूरा देश भ्रष्टाचार से ग्रसत है । इस भ्राष्चार रूपी रावण का जब तक अंत नहीं होगा तब तक लोगों को सुकून नहीं िमल पाएगा ।
अत्याचारके िलए भी रावण का नाम िलया जाता है । आज भी देश में पग पग पर अत्याचार व्याप्त है । कहीं गरीब सताए जा रहे हैं तो कहीं मजदूरों पर अत्याचार हो रहे हैं । अत्याचार रूपी रावण अपराधी की शक्ल में आकर हत्या, चोरी, डकैती जैसी घटनाओं का कारण बनता है । यहां तक की अब मरीजों के गुर्दे् और आंखें और अन्य अंग िनकालने का भी व्यवसाय िकया जा रहा है जो शायद रावण राज में भी नही होता था । सीधे शबद्ों में कहें तो अत्याचार के मामले में तो आधुिनक युग ने रावण राज को भी पीछे छोड़ िदया है ।
रावण अनैितकता का भी प्तीक था लेिकन आज के युग में तो अनैितकता पहले से अिधक है । आज सामािजक, राजनीितक समेत अनेक क्षेत्रों में नैितक मूल्यों का पतन हुआ है । यही वजह है िक आज भी अनैितकता का बोलबाला है । इसी कारण अनेक पिवत्र संबंध भी कलुिषत होने लगे हैं । कहीं अवैध संबंध पनपे हुए हैं तो कहीं िनजी स्वाथर् के िलए आत्मीय िरश्तों को ही ितलांजिल दे दी गई है । धन के सामने सारी नैितकता गौण होने लगी है ।
तमाम तरह की कुप्रथाएं भी रावण का ही एक रूप हैं । ं दहेज प्रथा रूपी रावण तो नारी जाित का सबसे बडा दुश्मन बना हुआ है । इसी के साथ महंगाई रूपी रावण जनता का सुख चैन छीने हुए है । कहीं संपरदायवाद तो कहीं जाितवाद के रूप में जो िदखाई देता है वह भी तो रावण ही है । इन तमाम रावणों का वध जब तक नहीं होगा तब तक जनता कैसे चैन से सोएगी । सच तो यह है िक इन रावणों का वध करने के िलए जनता को ही िमलजुलकर प्रयास करने होेगे । इसके िलए हर आदमी को संकल्प लेना होगा िक वह िविवध रूपों में जो रावण मौजूद हैं, उनके िखलाफ लडाई लडेगा । तभी िस्थितयां सुधरेंगी ।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )
हर साल िवजयदशमी पर रावण का पुतला जलाया जाता है । पूरे देश में कागज के पुतले तो जला िदए जाते हैं लेिकन समाज में मौजूद अनेक रावण अभी भी िजंदा हैं । कागज के पुतलों से अिधक जरूरी उन रावणों को जलाना है जो पूरे देश की जनता को परेशान िकए हैं और उनके िलए िचंता का सबब बने हुए हैं । तमाम कोिशशों के बाद भी इन रावणों को अभी तक नहीं जलाया जा सका है । देश और समाज में ये रावण िविवध रूपों में मौजूद हैं और अक्सर सामने आते रहते हैं । रामराज में भोली-भाली जनता और साधु संत राक्षसरूपी रावण से भयभीत थे । आज भी आतंकवाद रूपी रावण िसर उठाये पूरे देश के सामने खडा है । यह रावण कभी मुंबई, कभी हैदराबाद, कभी िदल्ली, कभी अहमदाबाद में तबाही मचाता है । न जाने िकतने लोगों की जानें इस रावण ने ले ली हैं । िकतने घरों को आतंकवाद ने तबाह कर िदया है । इसे खत्म करना जरूरी है ।
रावण ने सीता का अपहरण िकया और बाद में यही बात उसके संहार का कारण बनी । आज िस्थित गंभीर है । न जाने देश में िकतनी मिहलाओं और लड़कियों के अपहरण होते हैं लेिकन अपहरण करने वाले बेखौफ घूमते हैं अलबत्ता कई बार अपहरण की त्रासदी के कारण नारकीज िजंदगी की आशंका से पीिडत़मिहला जरूर अपनी िजंदगी से मुंह मोड़लेती है । आज के अपहरणकतार्ता रूपी रावण को िकसी राम का भय नहीं है ।
रावण अनाचार का प्रतीक था लेिकन आज तो पूरे देश में ही भ्रष्टाचार व्याप्त है । भ्रष्टाचार में भारत ने िवश्व पटल पर अपनी पहचान बनाई है । मनुष्य का आचरण हो या सरकारी गैरसरकारी कामकाज सभी पर भ्रष्टाचार की छाया है । हर आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है, इसके बावजूद पूरा देश भ्रष्टाचार से ग्रसत है । इस भ्राष्चार रूपी रावण का जब तक अंत नहीं होगा तब तक लोगों को सुकून नहीं िमल पाएगा ।
अत्याचारके िलए भी रावण का नाम िलया जाता है । आज भी देश में पग पग पर अत्याचार व्याप्त है । कहीं गरीब सताए जा रहे हैं तो कहीं मजदूरों पर अत्याचार हो रहे हैं । अत्याचार रूपी रावण अपराधी की शक्ल में आकर हत्या, चोरी, डकैती जैसी घटनाओं का कारण बनता है । यहां तक की अब मरीजों के गुर्दे् और आंखें और अन्य अंग िनकालने का भी व्यवसाय िकया जा रहा है जो शायद रावण राज में भी नही होता था । सीधे शबद्ों में कहें तो अत्याचार के मामले में तो आधुिनक युग ने रावण राज को भी पीछे छोड़ िदया है ।
रावण अनैितकता का भी प्तीक था लेिकन आज के युग में तो अनैितकता पहले से अिधक है । आज सामािजक, राजनीितक समेत अनेक क्षेत्रों में नैितक मूल्यों का पतन हुआ है । यही वजह है िक आज भी अनैितकता का बोलबाला है । इसी कारण अनेक पिवत्र संबंध भी कलुिषत होने लगे हैं । कहीं अवैध संबंध पनपे हुए हैं तो कहीं िनजी स्वाथर् के िलए आत्मीय िरश्तों को ही ितलांजिल दे दी गई है । धन के सामने सारी नैितकता गौण होने लगी है ।
तमाम तरह की कुप्रथाएं भी रावण का ही एक रूप हैं । ं दहेज प्रथा रूपी रावण तो नारी जाित का सबसे बडा दुश्मन बना हुआ है । इसी के साथ महंगाई रूपी रावण जनता का सुख चैन छीने हुए है । कहीं संपरदायवाद तो कहीं जाितवाद के रूप में जो िदखाई देता है वह भी तो रावण ही है । इन तमाम रावणों का वध जब तक नहीं होगा तब तक जनता कैसे चैन से सोएगी । सच तो यह है िक इन रावणों का वध करने के िलए जनता को ही िमलजुलकर प्रयास करने होेगे । इसके िलए हर आदमी को संकल्प लेना होगा िक वह िविवध रूपों में जो रावण मौजूद हैं, उनके िखलाफ लडाई लडेगा । तभी िस्थितयां सुधरेंगी ।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )
Monday, October 6, 2008
कितनी लडाइयां लडेंगी लडकियां
-डॉ. अशोक़प्रियरंजन
मेरठ के सरधना क्षेत्र के वपारसी केे ग्रामीणों ने पंचायत के बाद जो फैसला लिया वह यह सवाल खडे करता है कि लडकियों को अपनी जिंदगी की राह में तरक्की के फूल खिलाने के लिए कितनी लडाइयां लडऩी होंगी । कॉलेज पढऩे जाते समय वपारसी की एक लडकी के कुछ छात्रों ने मोबाइल से फोटो खींच लिए थे । इसी बात से आहत होकर वपारसी के लोगों ने गांव में पंचायत की और साफ कहा कि माहौल सुधरने पर ही छात्राओं को कॉलेज भेजेंगे । छेडछाड की समस्या वास्तव में इतनी गंभीर हो गई है कि उसे बहुंत गंभीरता से लेना जरूरी है । अभी थोडे दिन पहले ही मेरठ में विदेशी युवती से बस में छेडछाड़की घटना ने जिले को शर्मसार किया । मेरठ में कई बार लडकियों के लिए कॉलेज आना जाना बहुत तकलीफदेह साबित होता है क्योंकि उन्हें कई बार मनचलों की छेडछाड़और अभद्र टिप्पणियों का सामना करना पडता है । इसी मेरठ शहर में छेडछाड़का विरोध करने पर युवती के ऊपर तेजाब डालने तक की घटना हुई है । मेरठ में वर्ष २००७ में छेडछाड़की १३६ घटनाएं दर्ज हुईं । छेडछाड़की घटनाओं की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकलाज के कारण बहुत बडी संख्या में ऐसे मामलों की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं कराई जाती है । इस कारण मनचलों के हौसले बुलंद रहते हैं । लडकियों की घटती जनसंख्या ही बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है । ऊपर से ऐसी घटनाएं उनकी तरक्की में बाधा बन जाती है । उन्हें हर कदम पर आगे बढऩे के लिए संघर्ष करना होता है ।
वंश को आगे बढाने के े लिए लडके के प्रति मोह की मानसिकता, दहेजप्रथा जैसी बुराइयां समाज में प्रचलित होने के कारण कन्या भ्रूण हत्या के मामले बढ़ रहे हैं । कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए भी पुख्ता व्यवस्थाएं नहीं हैं । इसी का नतीजा है कि मेरठ में एक हजार लडकों के मुकाबले लडकियों की संख्या ८५७ रह गई है । लडकियों के जन्म के बाद ही उनकी लडाई शुरू हो जाती है । भारतीय परंपरागत समाज में अभी भी लडका-लडकी का भेद बहुत गहराई से अपनी जडें जमाए हुए है । शिक्षा और विकास की तमाम स्थितियों के बाद भी लडकियों के साथ भेदभाव अभी खत्म नहीं हो पा रहा है । खासतौर से ग्रामीण अंचलों में यह समस्या गंभीर है । इसी कारण गांवों में अनेक लडकियां शिक्षा से वंचित रह जाती हैं । कई बार मां-बाप पढाना भी चाहें तो गांव में विद्यालय नहीं होते और दूसरे गांवों में वे उन्हें पढऩे नहीं भेजते । किशोरावस्था में भी उन्हें कदम कदम पर लडकी होने का अहसास कराया जाता है और इस कारण उन पर अनेक बंधन भी लगाए जाते हैं ।
उच्च शिक्षा ग्रहण करने में भी कई बार उन्हें अपनी इच्छाओं को तिलांजलि देकर परिजनों की इच्छा के अनुरूप राह चुननी होती है । कन्या महाविद्यालयों की कमी के चलते लडकियों को कई बार पढाई के सही अवसर नहीं मिल पाते हैं । कैरियर को लेकर भी उन्हें पूरी स्वतंत्रता नहीं मिल पाती है । रोजगार के कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें उनके े लिए कम अवसर होते हैं । जहां वह रोजगार पा लेती हैं, वहां भी उन्हें लडकी होने के नाते असुरक्षा का बोध होता रहता है । दफ्तरों में भी स्त्री पुरुष भेद की मानसिकता के कारण महिलाओं को असुविधा होती है । यही स्थिति विवाहके मामले में रहती है । विवाह के सम्बन्ध में स्वतंत्र निर्णय लेने की स्थिति लडकी की नहीं रहती है । उसकी जिंदगी का फैसला परिवार के लोग करते हैं । जीवन साथी के चयन में आजादी न मिलने के कारन कई बार उन्हें त्रासदी का सामना करना पडता है।
यह बहुत सुखद है कि इन तमाम लडाइयों को लडकर भी लडकियां तेजी से आगे बढ़रही हैं । हाल ही में घोषित उत्तराखंड न्यायि। सेवा सिविल जज (जूडि) के परिणाम के मुताबिक मुजफ्फरनगर के कांस्टेबल की बेटी ज्योति जज बन गई है । इसी मेरठ शहर की अलका तोमर ने कुश्ती, गरिमा चौधरी ने जूडो, आभा ढिल्लन ने निशानेबाजी, दौड़में पूनम तोमर ने विश्वस्तर पर महानगर का नाम रोशन किया है । लेकिन अगर लडकियों को समस्याओं से मुक्ति दिला दी जाए तो वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कामयाबी की नई इबारत लिख सकती हैं ।
( अमर उजाला काम्पैक्ट , मेरठ के ६ अक्टूबर २००८ के अंक में प्रकाशित )
( फोटो गूगल सर्च से साभार )
मेरठ के सरधना क्षेत्र के वपारसी केे ग्रामीणों ने पंचायत के बाद जो फैसला लिया वह यह सवाल खडे करता है कि लडकियों को अपनी जिंदगी की राह में तरक्की के फूल खिलाने के लिए कितनी लडाइयां लडऩी होंगी । कॉलेज पढऩे जाते समय वपारसी की एक लडकी के कुछ छात्रों ने मोबाइल से फोटो खींच लिए थे । इसी बात से आहत होकर वपारसी के लोगों ने गांव में पंचायत की और साफ कहा कि माहौल सुधरने पर ही छात्राओं को कॉलेज भेजेंगे । छेडछाड की समस्या वास्तव में इतनी गंभीर हो गई है कि उसे बहुंत गंभीरता से लेना जरूरी है । अभी थोडे दिन पहले ही मेरठ में विदेशी युवती से बस में छेडछाड़की घटना ने जिले को शर्मसार किया । मेरठ में कई बार लडकियों के लिए कॉलेज आना जाना बहुत तकलीफदेह साबित होता है क्योंकि उन्हें कई बार मनचलों की छेडछाड़और अभद्र टिप्पणियों का सामना करना पडता है । इसी मेरठ शहर में छेडछाड़का विरोध करने पर युवती के ऊपर तेजाब डालने तक की घटना हुई है । मेरठ में वर्ष २००७ में छेडछाड़की १३६ घटनाएं दर्ज हुईं । छेडछाड़की घटनाओं की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकलाज के कारण बहुत बडी संख्या में ऐसे मामलों की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं कराई जाती है । इस कारण मनचलों के हौसले बुलंद रहते हैं । लडकियों की घटती जनसंख्या ही बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है । ऊपर से ऐसी घटनाएं उनकी तरक्की में बाधा बन जाती है । उन्हें हर कदम पर आगे बढऩे के लिए संघर्ष करना होता है ।
वंश को आगे बढाने के े लिए लडके के प्रति मोह की मानसिकता, दहेजप्रथा जैसी बुराइयां समाज में प्रचलित होने के कारण कन्या भ्रूण हत्या के मामले बढ़ रहे हैं । कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए भी पुख्ता व्यवस्थाएं नहीं हैं । इसी का नतीजा है कि मेरठ में एक हजार लडकों के मुकाबले लडकियों की संख्या ८५७ रह गई है । लडकियों के जन्म के बाद ही उनकी लडाई शुरू हो जाती है । भारतीय परंपरागत समाज में अभी भी लडका-लडकी का भेद बहुत गहराई से अपनी जडें जमाए हुए है । शिक्षा और विकास की तमाम स्थितियों के बाद भी लडकियों के साथ भेदभाव अभी खत्म नहीं हो पा रहा है । खासतौर से ग्रामीण अंचलों में यह समस्या गंभीर है । इसी कारण गांवों में अनेक लडकियां शिक्षा से वंचित रह जाती हैं । कई बार मां-बाप पढाना भी चाहें तो गांव में विद्यालय नहीं होते और दूसरे गांवों में वे उन्हें पढऩे नहीं भेजते । किशोरावस्था में भी उन्हें कदम कदम पर लडकी होने का अहसास कराया जाता है और इस कारण उन पर अनेक बंधन भी लगाए जाते हैं ।
उच्च शिक्षा ग्रहण करने में भी कई बार उन्हें अपनी इच्छाओं को तिलांजलि देकर परिजनों की इच्छा के अनुरूप राह चुननी होती है । कन्या महाविद्यालयों की कमी के चलते लडकियों को कई बार पढाई के सही अवसर नहीं मिल पाते हैं । कैरियर को लेकर भी उन्हें पूरी स्वतंत्रता नहीं मिल पाती है । रोजगार के कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें उनके े लिए कम अवसर होते हैं । जहां वह रोजगार पा लेती हैं, वहां भी उन्हें लडकी होने के नाते असुरक्षा का बोध होता रहता है । दफ्तरों में भी स्त्री पुरुष भेद की मानसिकता के कारण महिलाओं को असुविधा होती है । यही स्थिति विवाहके मामले में रहती है । विवाह के सम्बन्ध में स्वतंत्र निर्णय लेने की स्थिति लडकी की नहीं रहती है । उसकी जिंदगी का फैसला परिवार के लोग करते हैं । जीवन साथी के चयन में आजादी न मिलने के कारन कई बार उन्हें त्रासदी का सामना करना पडता है।
यह बहुत सुखद है कि इन तमाम लडाइयों को लडकर भी लडकियां तेजी से आगे बढ़रही हैं । हाल ही में घोषित उत्तराखंड न्यायि। सेवा सिविल जज (जूडि) के परिणाम के मुताबिक मुजफ्फरनगर के कांस्टेबल की बेटी ज्योति जज बन गई है । इसी मेरठ शहर की अलका तोमर ने कुश्ती, गरिमा चौधरी ने जूडो, आभा ढिल्लन ने निशानेबाजी, दौड़में पूनम तोमर ने विश्वस्तर पर महानगर का नाम रोशन किया है । लेकिन अगर लडकियों को समस्याओं से मुक्ति दिला दी जाए तो वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कामयाबी की नई इबारत लिख सकती हैं ।
( अमर उजाला काम्पैक्ट , मेरठ के ६ अक्टूबर २००८ के अंक में प्रकाशित )
( फोटो गूगल सर्च से साभार )
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Thursday, October 2, 2008
इस देश के हालात से बापू उदास हैं
दंगे औ फसादात से बापू उदास हैं,
इस देश के हालात से बापू उदास हैं ।
सपनों की जगह आंख में है मौत का मंजर,
हिंसक हुए जजबात से बापू उदास हैं ।
बढते ही जा रहे हैं अंधेरों के हौसले,
जुल्मों की लंबी रात से बापू उदास हैं ।
बंदूक बोलती है कहीं तोप बोलती,
हिंसा की शह और मात से बापू उदास हैं ।
तन पे चले खंजर तो कोई मन पे करे वार
हर पल मिले सदमात से बापू उदास हैं ।
आंसू कहीं बंटते तो कहीं दर्द मिल रहा,
ऐसी अजब सौगात से बापू उदास हैं ।
रंजन तुम्हारी आंख में क्यों आ गए आंसू,
इतनी जरा सी बात से बापू उदास हैं ।
- डॉ. अशोक प्रियरंजन
( फोटो गूगल सर्च से साभार )
Friday, September 26, 2008
कहीं आतंकी तो कहीं अपराध, कैसे बढे पर्यटन
आज २७ सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है । पूरी दुनिया में पर्यटन को बढावा देने मकसद से आज के दिन अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । इस बात पर विचार किया जाता है कि कैसे पर्यटन को बढावा दिया जाए । भारत पर्यटकों के लिए बडा मनोरम स्थल रहा है । यह ऐसा देश है जहां पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए सभी प्रकार के स्थल मौजूद हैं । यहां गोवा, मुंबई, चेन्नई, पांडिचेरी जैसे समुद्रतट, ताजमहल जैसी प्रेम प्रदर्शन की बेमिसाल खूबसूरत इमारत, ऊटी, कोडाईकनाल, शिमला, नैनीताल, मसूरी आदि मनमोहक पर्वतीय स्थल, कुतुबमीनार, लालकिला, हवामहल, आमेर का किला समेत अनेक ऐतिहासिक इमारतें, मीनाक्षी मंदिर, तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारिकापुरी, बद्रीनाथ जैसे व्यापक आस्था का केंद्र बने तीर्थस्थल, द्वादश ज्योर्तिलिंग का गौरव सहेजे पावनस्थल, हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक जैसे पावन नदियों के तट मौजूद हैं । भारत विविध संस्कृतियों का संगम है । इन सभी कारणों से विदेशियों के मन में भारत को देखने की गहरी इच्छा रहती है । इसीलिए भारत में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं ।
इन सब स्थितियों के बावजूद िवश्व में भारत की पर्यटन की दृष्टि से स्थिति संतोषजनक नहींहै । वर्ष २००७ में विश्व में पर्यटकों को लुभाने वाले स्थलों में ताजमहल ५०वें स्थान पर है । वर्ष २००६ में पर्यटकों की नजर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय १५ नगरों में भारत का कोई शहर नहीं है । ये तथ्य इस बात पर मंथन करने केलिए विवश करते हैं कि कैसे भारत में पर्यटन का विकास किया जाए ? क्या वजह है कि भारत में पर्यटकों की संख्या उतनी नहीं होती जितनी अपेक्षित है ? क्या प्रयास किए जाएं कि भारत में पर्यटन की तस्वीर बदल जाए ?ं पर्यटकों की आमद को कैसे बढाया जाए ?
दरअसल, पर्यटन को विकसित करने के लिए देश में शांति, सुरक्षा और अपराध मुक्त वातावरण जरूरी है । पर्यटक पहले सुरक्षा चाहता है, बाद में दर्शनीय स्थल । उसे धन और जान-माल की सुरक्षा का मजबूत भरोसा चाहिए । भारत में निरंतर बढ़ रही आतंकवादी गतिविधियां, विविध प्रकार के खौफनाक अपराध, जनसुविधाओं का अभाव, बिजली आपूर्ति, सडकों और यातायात साधनों की खस्ताहालत विदेशी पर्यटकों का मोहभंग कर देती है । महिला पर्यटकों के साथ छेडछाड़, बलात्कार और लूटपाट की घटनाओं ने भी पर्यटन को प्रभावित किया है । कई ऐसे स्थल भी हैं जहां पर्यटकों की गैरजानकारी का लाभ उठाकर उनसे अधिक पैसा वसूला जाता है । कई बार पर्यटकों के साथ अभद्र व्यवहार भी किया जाता है । यह सब ऐसे कारण हैं, जो पर्यटकों को भारत आने से रोकते हैं ।
इसलिए जरूरी है कि ऐसा माहौल बनाया जाए जिससे पर्यटक भारत आने के लिए लालायित हों । जिन स्थानों पर पर्यटन का विकास होता है, वहां आर्थिक समृद्धि आती है । अनेक बेरोजगारों को रोजगार मिलता है । होटल, रेस्टोरेंट और टे्रवल कंपनियों की आमदनी बढती है । उन्नति का परिणाम यह होता है कि वे अपराध अपने आप घटने लगते हैं जिनके पीछे कुछ आर्थिक कारण होते हैं । पर्यटन के नए स्थल विकसित करने से उनकी आर्थिक तसवीर बदलने की पूरी संभावना रहती है । भारत की संस्कति का विस्तार होता है । इस सब बातों को ध्यान में रखते हुए जरूरी है कि पर्यटन के े विकास पर ध्यान दिया जाए । सरकार और जनता मिलकर आतंकवाद और अपराधों पर अंकुश लगाएं। देश में पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढाई जाएं ताकि उन्हें कोई असुविधा न हो । वह निर्भीक पूरे देश के मनमोहक स्थलों पर विचरण कर सकें । ऐसा होने पर विदेशी मुद्रा की आवक बढेगी और देश की आर्थिक उन्नति होगी ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
इन सब स्थितियों के बावजूद िवश्व में भारत की पर्यटन की दृष्टि से स्थिति संतोषजनक नहींहै । वर्ष २००७ में विश्व में पर्यटकों को लुभाने वाले स्थलों में ताजमहल ५०वें स्थान पर है । वर्ष २००६ में पर्यटकों की नजर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय १५ नगरों में भारत का कोई शहर नहीं है । ये तथ्य इस बात पर मंथन करने केलिए विवश करते हैं कि कैसे भारत में पर्यटन का विकास किया जाए ? क्या वजह है कि भारत में पर्यटकों की संख्या उतनी नहीं होती जितनी अपेक्षित है ? क्या प्रयास किए जाएं कि भारत में पर्यटन की तस्वीर बदल जाए ?ं पर्यटकों की आमद को कैसे बढाया जाए ?
दरअसल, पर्यटन को विकसित करने के लिए देश में शांति, सुरक्षा और अपराध मुक्त वातावरण जरूरी है । पर्यटक पहले सुरक्षा चाहता है, बाद में दर्शनीय स्थल । उसे धन और जान-माल की सुरक्षा का मजबूत भरोसा चाहिए । भारत में निरंतर बढ़ रही आतंकवादी गतिविधियां, विविध प्रकार के खौफनाक अपराध, जनसुविधाओं का अभाव, बिजली आपूर्ति, सडकों और यातायात साधनों की खस्ताहालत विदेशी पर्यटकों का मोहभंग कर देती है । महिला पर्यटकों के साथ छेडछाड़, बलात्कार और लूटपाट की घटनाओं ने भी पर्यटन को प्रभावित किया है । कई ऐसे स्थल भी हैं जहां पर्यटकों की गैरजानकारी का लाभ उठाकर उनसे अधिक पैसा वसूला जाता है । कई बार पर्यटकों के साथ अभद्र व्यवहार भी किया जाता है । यह सब ऐसे कारण हैं, जो पर्यटकों को भारत आने से रोकते हैं ।
इसलिए जरूरी है कि ऐसा माहौल बनाया जाए जिससे पर्यटक भारत आने के लिए लालायित हों । जिन स्थानों पर पर्यटन का विकास होता है, वहां आर्थिक समृद्धि आती है । अनेक बेरोजगारों को रोजगार मिलता है । होटल, रेस्टोरेंट और टे्रवल कंपनियों की आमदनी बढती है । उन्नति का परिणाम यह होता है कि वे अपराध अपने आप घटने लगते हैं जिनके पीछे कुछ आर्थिक कारण होते हैं । पर्यटन के नए स्थल विकसित करने से उनकी आर्थिक तसवीर बदलने की पूरी संभावना रहती है । भारत की संस्कति का विस्तार होता है । इस सब बातों को ध्यान में रखते हुए जरूरी है कि पर्यटन के े विकास पर ध्यान दिया जाए । सरकार और जनता मिलकर आतंकवाद और अपराधों पर अंकुश लगाएं। देश में पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढाई जाएं ताकि उन्हें कोई असुविधा न हो । वह निर्भीक पूरे देश के मनमोहक स्थलों पर विचरण कर सकें । ऐसा होने पर विदेशी मुद्रा की आवक बढेगी और देश की आर्थिक उन्नति होगी ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
Wednesday, September 24, 2008
महापुरुषों का यह कैसा सम्मान ?
मंगलवार को जम्मू के मुबारक मंडी कांप्लेक्स में राष्टï्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा के गले में रस्सी बांधकर रोशनी के लिए लाइट लटका दी गई । एक समारोह की तैयारियों में जुटे टेंट हाउस के कर्मचारी बापू की प्रतिमा पर चढ़ गए । उनके कंधे और सिर पर पैर भी रखे गए । उफ ! महापुरुषों की प्रतिमाओं की यह दशा । समझ में नहीं आता कि जब हम प्रतिमाओं का पूरा सम्मान ही नहीं कर पा रहे हैं तो फिर उन्हें स्थापित करने से क्या लाभ? पूरे देश में जगह-जगह महापुरुषों की प्रतिमाएं लगी हुई हैं । कई स्थानों पर देखरेख के अभाव में प्रतिमाएं गंदगी से घिरी रहती हैं । उनकी सफाई की भी कोई व्यवस्था नहीं होती । विचार करना होगा कि इस हालत में प्रतिमाएं पूरे देश के लिए क्या संदेश देंगी ?
पूरी दुनिया में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई जाती हैं । भारत में भी बडी संख्या में महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित हैं । कोई शहर ऐसा नहीं जिसमें प्रतिमाएं न हों । प्रतिमा स्थापित करने के पीछे मंशा यह होती है कि समाज इनके आदर्शों से प्रेरणा ले । इन महापुरुषों के बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश के विकास में योगदान दे । इसके लिए जरूरी है कि प्रतिमा स्थापना के बाद इनकी सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए । प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी तो कैसे दूसरों के लिए प्रेरणा जागृत कर पाएंगी । अनेक प्रतिमाएं खुले में लगी हैं और मौसम का मिजाज उनके रंग-रूप को बदरंग कर देता है । कई बार उनकी सुरक्षा न होने से भी अपमानजनक स्थिति बन जाती है । ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि कैसे महापुरुषों की प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा की जाए? उनकी देखरेख की भी पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए । सुरक्षा और देखरेख की जिम्मेदारी किसकी होगी, यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।
महापुरुषों के जन्मदिवस को भी पूरे देश में मनाया जाता है और इस दिन अवकाश भी दिया जाता है ताकि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करें । उनके राष्ट्रहित में किए गए कार्यों को याद करें । लेकिन इस अवकाश के मायने भी अब बदलने लगे हैं । कुछ संस्थाओं में ही महापुरुषों के े जन्मदिवस पर महज औपचारिक कार्यक्रम होते हैं । अवकाश पर लोगों को महापुरुष याद आने के े बजाय दूसरे काम या कार्यक्रम याद आते हैं और वह उनमें व्यस्त रहते हैं ।
महापुरुषों के जीवन के विविध पक्ष नई पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणा का माध्यम रहे हैं । इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों को महापुरुषों के संस्मरण सुनाया करते थे । अब एकल परिवार में बच्चों को यह संस्समरण वाचिक परंपरा से सुनने को नहीं मिल पाते । महापुरुषों की जीवनियां सिर्फ पाठ्यक्रमों में ही उन्हें पढऩे को मिल पाती हैं क्योंकि पुस्तक खरीदने की प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है ? इस स्थिति में महापुरुषों के विषय में बहुत कम जानकारी बच्चों को मिल पाती है । हमें विचार करना होगा कि बच्चे कैसे महापुरुषों के जीवन से जुडे विविध प्रसंगों से अवगत हों पाएंगे ?
समाज में जिस तरह से नैतिक पतन की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटकाव की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्कृतिक मान्यताओं और परंपराओं से खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों के विचारों और आदर्शों का प्रचार प्रसार करना होगा तभी समाज सही दिशा में चल पाएगा ।
पूरी दुनिया में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई जाती हैं । भारत में भी बडी संख्या में महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित हैं । कोई शहर ऐसा नहीं जिसमें प्रतिमाएं न हों । प्रतिमा स्थापित करने के पीछे मंशा यह होती है कि समाज इनके आदर्शों से प्रेरणा ले । इन महापुरुषों के बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश के विकास में योगदान दे । इसके लिए जरूरी है कि प्रतिमा स्थापना के बाद इनकी सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए । प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी तो कैसे दूसरों के लिए प्रेरणा जागृत कर पाएंगी । अनेक प्रतिमाएं खुले में लगी हैं और मौसम का मिजाज उनके रंग-रूप को बदरंग कर देता है । कई बार उनकी सुरक्षा न होने से भी अपमानजनक स्थिति बन जाती है । ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि कैसे महापुरुषों की प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा की जाए? उनकी देखरेख की भी पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए । सुरक्षा और देखरेख की जिम्मेदारी किसकी होगी, यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।
महापुरुषों के जन्मदिवस को भी पूरे देश में मनाया जाता है और इस दिन अवकाश भी दिया जाता है ताकि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करें । उनके राष्ट्रहित में किए गए कार्यों को याद करें । लेकिन इस अवकाश के मायने भी अब बदलने लगे हैं । कुछ संस्थाओं में ही महापुरुषों के े जन्मदिवस पर महज औपचारिक कार्यक्रम होते हैं । अवकाश पर लोगों को महापुरुष याद आने के े बजाय दूसरे काम या कार्यक्रम याद आते हैं और वह उनमें व्यस्त रहते हैं ।
महापुरुषों के जीवन के विविध पक्ष नई पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणा का माध्यम रहे हैं । इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों को महापुरुषों के संस्मरण सुनाया करते थे । अब एकल परिवार में बच्चों को यह संस्समरण वाचिक परंपरा से सुनने को नहीं मिल पाते । महापुरुषों की जीवनियां सिर्फ पाठ्यक्रमों में ही उन्हें पढऩे को मिल पाती हैं क्योंकि पुस्तक खरीदने की प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है ? इस स्थिति में महापुरुषों के विषय में बहुत कम जानकारी बच्चों को मिल पाती है । हमें विचार करना होगा कि बच्चे कैसे महापुरुषों के जीवन से जुडे विविध प्रसंगों से अवगत हों पाएंगे ?
समाज में जिस तरह से नैतिक पतन की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटकाव की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्कृतिक मान्यताओं और परंपराओं से खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों के विचारों और आदर्शों का प्रचार प्रसार करना होगा तभी समाज सही दिशा में चल पाएगा ।
Monday, September 22, 2008
संस्कृत को समृद्ध नहीं करेंगे तो संस्कृति कैसेे बचेगी?
संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है । देववाणी है, व्यापक क्षेत्र में निवास कर रहे जनमानस की आस्था का प्रतीक है । तमाम भारतीय पौराणिक ग्रंथों की रचना संस्कृत में हुई है, इसलिए इस भाषा के प्रति एक धार्मिक श्रद्धा का भी भाव है । भारतीय संस्कृति में हिंदू धर्म केे अनुयायियों के जन्म, विवाह से लेकर मृत्यु तक के तमाम कर्मकांड संस्कृत में ही संपन्न होते हैं । इस कारण इस भाषा के प्रति व्यापक आदरभाव और भक्ति की सीमा तक की अटूट आस्था है । भारतीय जनमानस को सदियों से संजीवनी प्रदान कर रहे वेदों की ऋचाएं, भारतीय जीवन-दर्शन का दर्पण श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक और सभी पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं । योग, ध्यान, भारतीय दर्शन और आयुर्वेद विदेशियों को आकर्षित करते हैं और इन विषयों से जुडी अनेक जानकारियां संस्कृत में ही हैं । संस्कृत की वैश्विक महत्ता भारतवासियों के लिए गौरव का विषय भी है ।
विदेशों में भारतीय पुरोहितों, संस्कृत के विद्वानों और कर्मकांडी पंडितों की मांग बढ़ी है । देश की सीमाओं को पार करके जिन भारतवासियों ने विदेशों में अपना बसेरा बनाया है, उनके लिए वहां संस्कार-कर्म कराने के लिए पंडितों की जरूरत होती है । ऐसे में विदेश में संस्कृत की पताका गर्व के साथ फहराने लगी है । लेकिन यही अंतिम सत्य नहीं है ।
सच यह है कि आधुनिक भारत में संस्कृत के विकास के लिए उस तरह काम नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था । संस्कृत पढऩे वालों के लिए न रोजगार के श्रेष्ठ अवसर उपलब्ध कराए गए और न ही उसके प्रचार-प्रसार के लिए ठोस तरीके से काम किए गए । जो संस्कृत विद्यालय देश में चल रहे हैं, उनकी भी अपनी तमाम समस्याएं हैं । कहीं अध्यापकों को वेतन नहीं है तो कहीं भवन जर्जर पडे हैं । संस्कृत विद्यालयों का आधुनिकीकरण नहीं हुआ है । संस्कृत के विकास के लिए गठित संस्थाएं आर्थिक संकट से गुजर रही हैं । संस्कृत पठन पाठन में भïिवष्य की संभावनाएं घटने के कारण उससे विद्यार्थियों का मोहभंग हो रहा है ।
ऐसी हालात में जरूरी है कि संस्कृत को प्रतिष्ठित करने और इस भाषा में डिग्री पाने वालों को तरक्की के नए रास्ते खोलने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं । मौजूदा दौर में विषय कोई भी पढें लेकिन कामकाज में कंप्यूटर एक अनिवार्य जरूरत बन गया है । अधिकतर कंप्यूटरों पर अंग्रेजी में काम किया जाता है । इसलिए संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी की जानकारी अगर होगी तो और कैरियर संवारने में मदद ही मिलेगी । संस्कृत की पढाई के साथ कंप्यूटर की भी शिक्षा दी जाए ताकि संस्कृत के विद्यार्थी आधुनिक युग की जरूरतों के अनुसार रोजगारोन्मुखी परिणाम दे सकें । साथ ही एक अन्य भाषा को सीखना भी उनके लिए अनिवार्य कर दिया जाए ताकि वह उस भाषा क्षेत्र में संस्कृत की महत्ता को रेखांकित कर सकें ।
संस्कृतसाहित्य का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी बडी संख्या में सुलभ कराया जाना चाहिए । इससे उपभोक्तावादी इस युग में दूसरी भाषा के लोग संसकृत की महत्ता से परिचित होंगे । इसका लाभ संस्कृत से जुडे लोगों को मिलेगा । संस्कृत को पुराना गौरव वापस मिल गया तो भारतीय संस्कृति की जडें और मजबूत होंगी । साथ ही भारतीय संस्कृति को दुनिया में और विस्तार मिलेगा ।
विदेशों में भारतीय पुरोहितों, संस्कृत के विद्वानों और कर्मकांडी पंडितों की मांग बढ़ी है । देश की सीमाओं को पार करके जिन भारतवासियों ने विदेशों में अपना बसेरा बनाया है, उनके लिए वहां संस्कार-कर्म कराने के लिए पंडितों की जरूरत होती है । ऐसे में विदेश में संस्कृत की पताका गर्व के साथ फहराने लगी है । लेकिन यही अंतिम सत्य नहीं है ।
सच यह है कि आधुनिक भारत में संस्कृत के विकास के लिए उस तरह काम नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था । संस्कृत पढऩे वालों के लिए न रोजगार के श्रेष्ठ अवसर उपलब्ध कराए गए और न ही उसके प्रचार-प्रसार के लिए ठोस तरीके से काम किए गए । जो संस्कृत विद्यालय देश में चल रहे हैं, उनकी भी अपनी तमाम समस्याएं हैं । कहीं अध्यापकों को वेतन नहीं है तो कहीं भवन जर्जर पडे हैं । संस्कृत विद्यालयों का आधुनिकीकरण नहीं हुआ है । संस्कृत के विकास के लिए गठित संस्थाएं आर्थिक संकट से गुजर रही हैं । संस्कृत पठन पाठन में भïिवष्य की संभावनाएं घटने के कारण उससे विद्यार्थियों का मोहभंग हो रहा है ।
ऐसी हालात में जरूरी है कि संस्कृत को प्रतिष्ठित करने और इस भाषा में डिग्री पाने वालों को तरक्की के नए रास्ते खोलने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं । मौजूदा दौर में विषय कोई भी पढें लेकिन कामकाज में कंप्यूटर एक अनिवार्य जरूरत बन गया है । अधिकतर कंप्यूटरों पर अंग्रेजी में काम किया जाता है । इसलिए संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी की जानकारी अगर होगी तो और कैरियर संवारने में मदद ही मिलेगी । संस्कृत की पढाई के साथ कंप्यूटर की भी शिक्षा दी जाए ताकि संस्कृत के विद्यार्थी आधुनिक युग की जरूरतों के अनुसार रोजगारोन्मुखी परिणाम दे सकें । साथ ही एक अन्य भाषा को सीखना भी उनके लिए अनिवार्य कर दिया जाए ताकि वह उस भाषा क्षेत्र में संस्कृत की महत्ता को रेखांकित कर सकें ।
संस्कृतसाहित्य का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी बडी संख्या में सुलभ कराया जाना चाहिए । इससे उपभोक्तावादी इस युग में दूसरी भाषा के लोग संसकृत की महत्ता से परिचित होंगे । इसका लाभ संस्कृत से जुडे लोगों को मिलेगा । संस्कृत को पुराना गौरव वापस मिल गया तो भारतीय संस्कृति की जडें और मजबूत होंगी । साथ ही भारतीय संस्कृति को दुनिया में और विस्तार मिलेगा ।
Sunday, September 21, 2008
टूटते रिश्ते, दरकते संबंध
भारत ऐसा देश रहा है जहां सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को विशेष महत्व दिया जाता रहा है । रिश्तों की आत्मीयता भारतीय संस्कृति में रची बसी है । भारतीय संस्ृति में जीवित होने पर ही नहीं बल्कि मृत्यु होने के बाद भी रिश्ते का निर्वाह किया जाता है । यह संबंधों के प्रति लगाव ही है कि भारत में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पितृपक्ष पर तर्पण की परंपरा है । भारतवासियों को सदैव रिश्ते निभाने की गौरवशाली परंपरा पर गर्व रहा है । विदेशियों के लिए भी भारतीय संसकिरिति का यह पक्ष बडा आकर्षित करता रहा है । लेकिन पिछले कुछ समय से स्थितियां बदली है ।
भौतिकतावाद, उपभोक्तावाद, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण, बाजारवाद, बदलते जीवन मूल्यों, नैतिक मूल्यों के पतन, संयुक्त परिवार के विघटन और नित नए आकार लेती महत्वाकांक्षाओं ने व्यक्ति की मानसिकता को गहराई से प्रभावित किया है । यही वजह है रिश्तों की आत्मीयता में जो गरमाहट थी, वह कुछ कम होने लगी है । सामाजिक संबंधों में जो निकटता थी, वह घटने लगी है । कई बार ऐसा लगता है कि मौजूदा समय में रिश्ते टूटने लगे हैं और संबंध दरकने लगे हैं।
२० सितंबर को बिजनौर जिले में एक व्यक्ति ने दो सगे भाइयों के साथ अपनी मां और १० वर्षीय पुत्री की धारदार हथियारों से हत्या कर दी । वजह थी सिर्फ १४ बीघा जमीन जो मां के नाम थी । यह जमीन बेेटे हथियाना चाहते थे । इस घटना के संदर्भ बडे व्यापक हैं और पूरे समाज के सामने कई सवाल खडे करते है ं। क्या आज संपत्ति मां और पुत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगी है? क्या समाज में हिंसक प्रवृत्तियां अधिक प्रभावशाली होने लगी हैं? क्या हम भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों को भूलने लगे हैं? इन सवालों पर विचार करना जरूरी है । अगर भारतीय समाज में संबंधों की जडें़कमजोर हुईं तो इसका असर सीधा संस्कृति पर पडेगा ।
दरअसल बदले भौतिकवादी परिवेश ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत गहराई से प्रभावित किया है । रोजगार के सिलसिले और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन की इच्छाओं ने एकल परिवार की परंपरा को बढावा दिया । इसका परिणाम यह हो गया कि अब सिर्फ पति, पत्नी और बच्चों को ही परिवार का हिस्सा माना जाने लगा है । अन्य रिश्तों के प्रति लगाव घटता जा रहा है । उनमें परस्पर आत्मीयता भी घटती जा रही है । तीज त्योहारों और विवाह आदि अवसरों पर ही संयुक्त परिवार की झलक दिखाई देती है । पारिवारिक सदस्यों में दूरियां बढऩे से परस्पर संबंधों में दरार पडऩे लगी । ऐसे में कई बार रिश्ता गौण और स्वार्थ प्रमुख हो जाता है ।
पहले आर्थिक समृद्धि जिन रिश्तों को जोडती थी आज उनमें ईष्र्या पैदा कर रही है । एक भाई अगर अमीर है और दूसरा गरीब तो फिर उनमें रिश्तों की आत्मीयता की जगह एक खास किस्म की दूरी महसूस की जा सकती है । भारतीय समाज और संस्कृति के लिए यह अच्छे संकेत नहीं है ं। इस बदलाव की अभिव्यक्ति भी अब विविध माध्यमों से होने लगी है । बागवान फिल्म में रिश्तों में आ रहे इस बदलाव को बडी कलात्मकता के साथ परदे पर उतारा गया है । सचमुच बदलते परिवेश में अब बच्चे दादा-दादी के प्यार, ताऊ-ताई के दुलार से वंचित होने लगे हैं । अपनी जिद पूरी कराने के लिए अब उन्हें चाचा-चाची नहीं मिल पाते हैं । बुआ-फूफा, मामा-मामी, मौसा-मौसी से भी खास मौके पर ही मुलाकात हो पाती है । अब कहानियां सुनाने के लिए उनके पास बुजुर्ग होते ही नहीं है ं। इन स्थितियों पर वैचारिक मंथन की जरूरत है । हमें इस ओर ध्यान देना होगा । नई पीढ़ी को रिश्तों का अहसास कराना होगा । ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते मजबूत हों । रिश्तों की आत्मीयता, संवेदनशीलता और प्रेम गहरा होगा, तभी समाज मजबूत होगा ।
भौतिकतावाद, उपभोक्तावाद, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण, बाजारवाद, बदलते जीवन मूल्यों, नैतिक मूल्यों के पतन, संयुक्त परिवार के विघटन और नित नए आकार लेती महत्वाकांक्षाओं ने व्यक्ति की मानसिकता को गहराई से प्रभावित किया है । यही वजह है रिश्तों की आत्मीयता में जो गरमाहट थी, वह कुछ कम होने लगी है । सामाजिक संबंधों में जो निकटता थी, वह घटने लगी है । कई बार ऐसा लगता है कि मौजूदा समय में रिश्ते टूटने लगे हैं और संबंध दरकने लगे हैं।
२० सितंबर को बिजनौर जिले में एक व्यक्ति ने दो सगे भाइयों के साथ अपनी मां और १० वर्षीय पुत्री की धारदार हथियारों से हत्या कर दी । वजह थी सिर्फ १४ बीघा जमीन जो मां के नाम थी । यह जमीन बेेटे हथियाना चाहते थे । इस घटना के संदर्भ बडे व्यापक हैं और पूरे समाज के सामने कई सवाल खडे करते है ं। क्या आज संपत्ति मां और पुत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगी है? क्या समाज में हिंसक प्रवृत्तियां अधिक प्रभावशाली होने लगी हैं? क्या हम भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों को भूलने लगे हैं? इन सवालों पर विचार करना जरूरी है । अगर भारतीय समाज में संबंधों की जडें़कमजोर हुईं तो इसका असर सीधा संस्कृति पर पडेगा ।
दरअसल बदले भौतिकवादी परिवेश ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत गहराई से प्रभावित किया है । रोजगार के सिलसिले और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन की इच्छाओं ने एकल परिवार की परंपरा को बढावा दिया । इसका परिणाम यह हो गया कि अब सिर्फ पति, पत्नी और बच्चों को ही परिवार का हिस्सा माना जाने लगा है । अन्य रिश्तों के प्रति लगाव घटता जा रहा है । उनमें परस्पर आत्मीयता भी घटती जा रही है । तीज त्योहारों और विवाह आदि अवसरों पर ही संयुक्त परिवार की झलक दिखाई देती है । पारिवारिक सदस्यों में दूरियां बढऩे से परस्पर संबंधों में दरार पडऩे लगी । ऐसे में कई बार रिश्ता गौण और स्वार्थ प्रमुख हो जाता है ।
पहले आर्थिक समृद्धि जिन रिश्तों को जोडती थी आज उनमें ईष्र्या पैदा कर रही है । एक भाई अगर अमीर है और दूसरा गरीब तो फिर उनमें रिश्तों की आत्मीयता की जगह एक खास किस्म की दूरी महसूस की जा सकती है । भारतीय समाज और संस्कृति के लिए यह अच्छे संकेत नहीं है ं। इस बदलाव की अभिव्यक्ति भी अब विविध माध्यमों से होने लगी है । बागवान फिल्म में रिश्तों में आ रहे इस बदलाव को बडी कलात्मकता के साथ परदे पर उतारा गया है । सचमुच बदलते परिवेश में अब बच्चे दादा-दादी के प्यार, ताऊ-ताई के दुलार से वंचित होने लगे हैं । अपनी जिद पूरी कराने के लिए अब उन्हें चाचा-चाची नहीं मिल पाते हैं । बुआ-फूफा, मामा-मामी, मौसा-मौसी से भी खास मौके पर ही मुलाकात हो पाती है । अब कहानियां सुनाने के लिए उनके पास बुजुर्ग होते ही नहीं है ं। इन स्थितियों पर वैचारिक मंथन की जरूरत है । हमें इस ओर ध्यान देना होगा । नई पीढ़ी को रिश्तों का अहसास कराना होगा । ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते मजबूत हों । रिश्तों की आत्मीयता, संवेदनशीलता और प्रेम गहरा होगा, तभी समाज मजबूत होगा ।
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Friday, September 19, 2008
छेड़छाड़ पर हो सख्त सजा
मेरठ में चलती बस में एक विदेशी युवती से छेड़छाड़ की गई । यह युवती भारत की जिस छवि को अपने मन में लेकर यहां आई होगी, निश्चित रूप से वह जाते समय बदल गई होगी । दरअसल, छेडछाड़ की घटनाएं लगातार बढती जा रही हैं, जिसका बडा व्यापक असर समाज में दिखाई दे रहा है । आधा समाज आज आशंका, दहशत और तनाव के बीच जिंदगी का सफर तय करता है। आज लडकियों को पढ़ाने के प्रति जागरूकता आई है लेकिन उनका स्कूल आना जाना पूरी तरह सुरक्षित नहीं है । स्कूल आते जाते उन्हें मनचलों और शोहदों की फब्तियों का सामना करना पड़ता है । लडकियां और महिलाएं घर की दहलीज से निकलकर रोजगार के विविध क्षेत्रों में योगदान दे रही हैं लेकिन घर से दफ्तर तक का सफर महफूज नहीं है । बसों तक में लडकियों और महिलाओं के साथ छेडछाड़ होती ह ै। कार्यस्थल पर भी महिलाओं के साथ छेडछाड़की घटनाएं सामने आती रहती हैं? छेडछाड़ का भय महिलाओं को हमेशा सताता रहता है । विरोध करने पर उनके साथ मारपीट की जाती है। मेरठ में तो छेडछाड़ का विरोध करने पर लडकियोंं पर तेजाब डालने की भी घटनाएं हुई हैं ।
छेडछाड़ की अनेक घटनाओं का तो जिक्र महिलाएं या लडकियां शर्म के कारण परिजनों तक से नहीं करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मनचले बेखौफ हो जाते हैं । जिन घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है, उन्हें पुलिस कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेती जिसका नतीजा यह होता है कि दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती है ।
नारी स्वतंत्रता और उनके विकास के लिए देखे जा रहे सपनों पर छेडछाड़ की घटनाएं कई सवाल खडे कर देती हैं । क्या वर्तमान सामाजिक परिवेश नारियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने में सहायक है? क्यों आज नारी पुरुष के समान निर्भीक होकर सडक पर विचरण नहीं कर पाती है? क्यों आशंकाओं से मुक्त होकर निडरता के साथ नौकरी नहीं कर पाती? क्यों उसे नारी होने के कारण उत्पीडऩ और त्रासदीपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है? इस सवालों पर वैचारिक मंथन करके इनके जवाब तलाश करने होंगे । तभी स्त्री विमर्श सार्थक आकार ले पाएगा ।
दरअसल, आज छेड़छाड़ की समस्या बहुत गंभीर हो गई है । कई लडकियों को छेडछाड़के डर से स्कूल-कॉलेज जाना मुश्किल हो जाता है । महिलाओं को कार्यस्थल पर रहना ही जब त्रासदीपूर्ण लगने लगेगा तो वह रोजगारन्मुखी परिणाम कैसे दे पाएंगी? छेडछाड़ को लेकर जातीय तनाव भी पैदा होने लगा है और हिंसक घटनाएं भी हुई हैं । छेडछाड़ से त्रस्त किशोरी के आत्महत्या कर लेने की दिल दहला देने वाली घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में छेडछाड़ करने पर सख्त सजा देने का प्रावधान करना जरूरी है । बड़ी सजा न होने से छेडछाड़ करने वालों के हौसले बुलंद रहते हैं । इसके लिए पुलिस को भी ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए । लडकियों और महिलाओं को भी जूडो कराटे जैसे रक्षात्मक प्रशिक्षण हासिल करने चाहिए । अभिभावकों को लडकियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने के लिए ऐसे प्रशिक्षण दिलाने में उनकी मदद करनी चाहिए । तभी महिलाएं और लडकियां निर्भीक होकर विकास में अपना योगदान दे पाएंगी । अपने सपनों में कामयाबी के रंग भरकर जीवन को सुंदर बना पाएंगी ।
छेडछाड़ की अनेक घटनाओं का तो जिक्र महिलाएं या लडकियां शर्म के कारण परिजनों तक से नहीं करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मनचले बेखौफ हो जाते हैं । जिन घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है, उन्हें पुलिस कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेती जिसका नतीजा यह होता है कि दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती है ।
नारी स्वतंत्रता और उनके विकास के लिए देखे जा रहे सपनों पर छेडछाड़ की घटनाएं कई सवाल खडे कर देती हैं । क्या वर्तमान सामाजिक परिवेश नारियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने में सहायक है? क्यों आज नारी पुरुष के समान निर्भीक होकर सडक पर विचरण नहीं कर पाती है? क्यों आशंकाओं से मुक्त होकर निडरता के साथ नौकरी नहीं कर पाती? क्यों उसे नारी होने के कारण उत्पीडऩ और त्रासदीपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है? इस सवालों पर वैचारिक मंथन करके इनके जवाब तलाश करने होंगे । तभी स्त्री विमर्श सार्थक आकार ले पाएगा ।
दरअसल, आज छेड़छाड़ की समस्या बहुत गंभीर हो गई है । कई लडकियों को छेडछाड़के डर से स्कूल-कॉलेज जाना मुश्किल हो जाता है । महिलाओं को कार्यस्थल पर रहना ही जब त्रासदीपूर्ण लगने लगेगा तो वह रोजगारन्मुखी परिणाम कैसे दे पाएंगी? छेडछाड़ को लेकर जातीय तनाव भी पैदा होने लगा है और हिंसक घटनाएं भी हुई हैं । छेडछाड़ से त्रस्त किशोरी के आत्महत्या कर लेने की दिल दहला देने वाली घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में छेडछाड़ करने पर सख्त सजा देने का प्रावधान करना जरूरी है । बड़ी सजा न होने से छेडछाड़ करने वालों के हौसले बुलंद रहते हैं । इसके लिए पुलिस को भी ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए । लडकियों और महिलाओं को भी जूडो कराटे जैसे रक्षात्मक प्रशिक्षण हासिल करने चाहिए । अभिभावकों को लडकियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने के लिए ऐसे प्रशिक्षण दिलाने में उनकी मदद करनी चाहिए । तभी महिलाएं और लडकियां निर्भीक होकर विकास में अपना योगदान दे पाएंगी । अपने सपनों में कामयाबी के रंग भरकर जीवन को सुंदर बना पाएंगी ।
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Wednesday, September 17, 2008
महिला संबंधी अपराधों के लिए जिम्मेदार केौन
े वैश्वीकरण से बदले परिदृश्य और आधुनिकता की बयार ने महिलाओं की महत्वाकांक्षाओं और सपने में नए रंग भर दिए हैं । इसीलिए आज महिलाएं घर की दहलीज से निकलकर जिंदगी के रंगमंच पर विविध क्षेत्रों में प्रभावशाली भूमिका निभा रही हैं । रोजगार का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहां महिलाएं अपना योगदान न दे रही हो ं। कल्पना चावला, इंदिरा नूई, सानिया मिर्जा जैसी अनेक प्रतिभाओं ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाकर देश का नाम रोशन िकया है। लेकिन इस सबके बावजूद देश में महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं जो उनके आत्मविश्वास को कमजोर कर देती हैं ।
पूरे देश में महिला संबंधी अपराधों की स्थिति बडी चिंताजनक है । छेडछाड़, बलात्कार, अपहरण, दहेज उत्पीडऩ, घरेलू हिंसा और तस्करी की बढती घटनाएं महिला जीवन की त्रासदी को उजागर करती हैं। इन अपराधों के कारण बडी संख्या में महिलाओं को शर्मनाक स्थितियों का सामना करना पडता है। इन घटनाओं के कारण कई बार महिलाएं अपनी प्रतिभा का देश और समाज के लिए पूर्ण योगदान नहीं दे पाती हैं।
नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष २००६ में बलात्कार की १९३४८, महिलाओं और लडकियों के अपहरण की १७४१४, यौन उत्पीडऩ की ९९६६ तथा पति और परिजनों की क्रूरता का े शिकार होने की ६३१२८ मामलों की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज की गईं। देश की राजधानी दिल्ली में ही जनवरी से अप्रैल २००८ के मध्य बलात्कार के १२१ मामले प्रकाश में आए । वर्ष १९७१ में बलात्कार के २४८७ मामलेे दर्ज किए गए थे । वर्ष २००६ तक इनमें ६७८ प्रतिशत की वृद्धि हो गई । महिला अस्मिता से खिलवाड़ की ये लगातार बढ़रही घटनाएं देश और समाज के लिए बेहद शर्मनाक हैं । बड़ी संख्या में महिलाओं से छेडछाड की घटनाएं होती हैं जिनमें से अनेक की तो पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती है। स्कूल और कार्यस्थलों पर जाती अनेक लडकियों और महिलाओं को मनचलों की अभद्र टिप्पणियों का शिकार होना पडता है। विरोध करने पर उनके ऊपर तेजाब डालने जैसी घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में सहज ही यह सवाल उठता है कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन है? इन घटनाओं को कैसे रोका जाए?
वास्तव में किसी भी समाज का विकास नारी शक्ति के सहयोग के बिना संभव नहीं है । इसके लिए जरूरी है कि उन्हें निर्भीक होकर सम्मानसहित जीवनयापन के अवसर मिलें । आज जरूरी है कि लडकियों को पढाई के साथ ही कैरियर बनाने के लिए अच्छा माहौल मिले । जीवनसाथी चुनने की आजादी मिले । सडकों पर वह बेखौफ गुजर सकें । विकास के लिए सुरक्षित सामाजिक परिवेश होना आवश्यक है। दहशत के बीच तरक्की के सपनों में रंग नहीं भरे जा सकते हैं । इसलिए पुलिस को महिला संबंधी घटनाओं पर सख्ती से अंकुश लगाना होगा । जनसाधारण को इसमें सहयोग देना होगा। सम्मान से जीना हर लडकी का अधिकार है लेकिन इसके साथ ही उन्हें अपनी वेशभूषा, हावभाव और रहन सहन पर भी पूरा ध्यान देना चाहिए । उनमें संस्कारों की झलक दिखाई दे, संस्कारहीनता से उपजी मानसिकता नहीं । साथ ही असामाजिक तत्वों से निपटने के लिए प्रशिक्षण भी पाना चाहिए । ऐसा होने पर ही महिलाएं अपने सपनों को पूरा कर पाएंगी ।
पूरे देश में महिला संबंधी अपराधों की स्थिति बडी चिंताजनक है । छेडछाड़, बलात्कार, अपहरण, दहेज उत्पीडऩ, घरेलू हिंसा और तस्करी की बढती घटनाएं महिला जीवन की त्रासदी को उजागर करती हैं। इन अपराधों के कारण बडी संख्या में महिलाओं को शर्मनाक स्थितियों का सामना करना पडता है। इन घटनाओं के कारण कई बार महिलाएं अपनी प्रतिभा का देश और समाज के लिए पूर्ण योगदान नहीं दे पाती हैं।
नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष २००६ में बलात्कार की १९३४८, महिलाओं और लडकियों के अपहरण की १७४१४, यौन उत्पीडऩ की ९९६६ तथा पति और परिजनों की क्रूरता का े शिकार होने की ६३१२८ मामलों की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज की गईं। देश की राजधानी दिल्ली में ही जनवरी से अप्रैल २००८ के मध्य बलात्कार के १२१ मामले प्रकाश में आए । वर्ष १९७१ में बलात्कार के २४८७ मामलेे दर्ज किए गए थे । वर्ष २००६ तक इनमें ६७८ प्रतिशत की वृद्धि हो गई । महिला अस्मिता से खिलवाड़ की ये लगातार बढ़रही घटनाएं देश और समाज के लिए बेहद शर्मनाक हैं । बड़ी संख्या में महिलाओं से छेडछाड की घटनाएं होती हैं जिनमें से अनेक की तो पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती है। स्कूल और कार्यस्थलों पर जाती अनेक लडकियों और महिलाओं को मनचलों की अभद्र टिप्पणियों का शिकार होना पडता है। विरोध करने पर उनके ऊपर तेजाब डालने जैसी घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में सहज ही यह सवाल उठता है कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन है? इन घटनाओं को कैसे रोका जाए?
वास्तव में किसी भी समाज का विकास नारी शक्ति के सहयोग के बिना संभव नहीं है । इसके लिए जरूरी है कि उन्हें निर्भीक होकर सम्मानसहित जीवनयापन के अवसर मिलें । आज जरूरी है कि लडकियों को पढाई के साथ ही कैरियर बनाने के लिए अच्छा माहौल मिले । जीवनसाथी चुनने की आजादी मिले । सडकों पर वह बेखौफ गुजर सकें । विकास के लिए सुरक्षित सामाजिक परिवेश होना आवश्यक है। दहशत के बीच तरक्की के सपनों में रंग नहीं भरे जा सकते हैं । इसलिए पुलिस को महिला संबंधी घटनाओं पर सख्ती से अंकुश लगाना होगा । जनसाधारण को इसमें सहयोग देना होगा। सम्मान से जीना हर लडकी का अधिकार है लेकिन इसके साथ ही उन्हें अपनी वेशभूषा, हावभाव और रहन सहन पर भी पूरा ध्यान देना चाहिए । उनमें संस्कारों की झलक दिखाई दे, संस्कारहीनता से उपजी मानसिकता नहीं । साथ ही असामाजिक तत्वों से निपटने के लिए प्रशिक्षण भी पाना चाहिए । ऐसा होने पर ही महिलाएं अपने सपनों को पूरा कर पाएंगी ।
Monday, September 15, 2008
भाषाओँ के बंद दरवाजे खोलें
ज्ञान के विस्तार के लिए सभी भाषाओं के प्रति सम्मान जरूरी है । जीवन के विविध क्षेत्रों में आगे बढऩे का सफर अब केवल एक़ही भाषा के सहारे पूरा नहीं किया जा सकता है । पूरी दुनिया में हिन्दी का जो विस्तार हो रहा है, उसके पीछे विदेशियों का भारतीय भाषाओं के प्रति उत्पन्न रुझान भी एक बड़ी वजह है । आज विश्व में ज्ञान के नित नए क्षेत्र विकसित हो रहे हैं । वैश्वीकरण के इस दौर में इन नए क्षेत्रों में कदम रखने के लिए भाषिक विविधता की महत्ता को समझना होगा और अन्य भाषाओं में भी संवाद करना होगा । अपनी मानसिकता को संकीर्णता से मुक्त करते हुए भाषा केे दृष्टिकोण को विकसित करना होगा । सीमाओं से मुक्त होकर ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए खुद को तैयार करना होगा । भाषा को लेकर संकीर्ण मानसिक दायरा बना लेना अच्छा संकेत नहीं है । भविष्य की चुनौतियों के संदर्भ में स्वयं का परिष्कार करना होगा । ज्ञानके रास्ते और भाषाओं के सहारे भी खुलते हैं, यह हम नकार नहीं सकते हैं। हम दुनिया के किसी भी देश में जाएं, अगर अपने ज्ञान को बांटना है तो वहां के लोगों की ही भाषा में ही संवाद करना होगा । तभी हम अपनी भाषा गौरव पताका विदेश में भी फहरा पाएंगे । आज अगर लंदन, अमेरिका, मारीशस और फिजी से हिन्दी भाषा में पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, तो केेवल इसलिए कि पहले हम वहां केे लोगों को उनकेी भाषा में भारतीय भाषा से साक्षातकार कराते हैं । यही वजह है कि अनेक विदेशी विद्वानों ने भारतीय भाषाओं में साहित्य सृजन और अनुवाद किया है । यानी हमें भाषा को लेकर संकीर्ण मानसिकता त्यागनी होगी । भाषा को लेकर कोई विवाद को स्थिति भी नहीं होनी चाहिए ।
अंग्रेज जब इस देश में आए थे तो सबसे पहली चोट उन्होंने भाषा पर ही की थी । उन्होने भारतीय भाषाओं केे प्रति हेय दृष्टिकोण पैदा करने के लिए साजिश केे तहत यहां अंग्रेजी को प्रतिष्ठित कर दिया । अंग्रेजी जानने वालों को उच्च पदों पर आसीन किया । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय भाषाएं स्वत: गौण हो गईं और महत्ता खोने लगी । धीरे-धीरे अंग्रेजी का वर्चस्व कायम होता चला गया । आजादी केे बाद विकास की जो हवा चली, उसमें अंग्रेजी उच्च वर्ग के सिर चढकर बोलने लगी । नतीजा पब्लिक स्कूलों की बाढ़आ गई और अभिजात्य वर्ग में अंग्रेजी का दबदबा बढ़ गया । अंग्रेजी के सामने खडी हिन्दी की भी महत्ता प्रभावित हुई । लेकिन राजभाषा घोषित कर देने से हिन्दी की स्थिति मजबूत हुई । बाजारवाद के दबाव ने हिन्दी को सबसे मजबूत भाषा के रूप में उभरने का मौका दिया । भारत में आज सर्वाधिक अखबार हिन्दी में प्रकाशित हो रहे हैं । बड़ी संख्या में हिन्दी टेलीविजन चैनल देखे जा रहे हैं । रेडियो के हिन्दी चैनल खूब लोकप्रिय हो रहे हैं। हिन्दी फिल्में पूरी दुनिया में देखी जा रही हैं । कई हिन्दी फिल्मों के प्रीमियर तो विदेशों में पहले हुए, बाद में वे देश में दिखाई गईं । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढाई जा रही है । हिन्दी की स्वीकार्यता को देखते हुए अन्य भाषाओं के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण उदार होना चाहिए । वैश्वीकरण के े दौर में बदलते परिïवेश और विकास की नई ऊंचाइयां छूने के लिए यह जरूरी भी है।
अंग्रेज जब इस देश में आए थे तो सबसे पहली चोट उन्होंने भाषा पर ही की थी । उन्होने भारतीय भाषाओं केे प्रति हेय दृष्टिकोण पैदा करने के लिए साजिश केे तहत यहां अंग्रेजी को प्रतिष्ठित कर दिया । अंग्रेजी जानने वालों को उच्च पदों पर आसीन किया । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय भाषाएं स्वत: गौण हो गईं और महत्ता खोने लगी । धीरे-धीरे अंग्रेजी का वर्चस्व कायम होता चला गया । आजादी केे बाद विकास की जो हवा चली, उसमें अंग्रेजी उच्च वर्ग के सिर चढकर बोलने लगी । नतीजा पब्लिक स्कूलों की बाढ़आ गई और अभिजात्य वर्ग में अंग्रेजी का दबदबा बढ़ गया । अंग्रेजी के सामने खडी हिन्दी की भी महत्ता प्रभावित हुई । लेकिन राजभाषा घोषित कर देने से हिन्दी की स्थिति मजबूत हुई । बाजारवाद के दबाव ने हिन्दी को सबसे मजबूत भाषा के रूप में उभरने का मौका दिया । भारत में आज सर्वाधिक अखबार हिन्दी में प्रकाशित हो रहे हैं । बड़ी संख्या में हिन्दी टेलीविजन चैनल देखे जा रहे हैं । रेडियो के हिन्दी चैनल खूब लोकप्रिय हो रहे हैं। हिन्दी फिल्में पूरी दुनिया में देखी जा रही हैं । कई हिन्दी फिल्मों के प्रीमियर तो विदेशों में पहले हुए, बाद में वे देश में दिखाई गईं । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढाई जा रही है । हिन्दी की स्वीकार्यता को देखते हुए अन्य भाषाओं के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण उदार होना चाहिए । वैश्वीकरण के े दौर में बदलते परिïवेश और विकास की नई ऊंचाइयां छूने के लिए यह जरूरी भी है।
Friday, September 12, 2008
अब बदलिए हिन्दी दिवस मनाने का उद्देश्य
े पूरी दूनिया में हिन्दी के लिए जो स्िथतियाँ बन रही हैं, वह काफी सुखद हैं । आज भारत में सबसे ज्यादा हिन्दी अखबार पढ़े जा रहे हैं । सबसे ज्यादा हिन्दी टेलीिविज़न चैनल देखे जा रहे हैं । लोकप्रिय हो रहे एफएम रेडियो चैनल भी हिन्दी में हैं । हिन्दी बोलने वालों की संख्या भी लगातार बढती जा रही है । बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी में ब्लॉग लिखे जा रहे हैं । सरकारी कामकाज में भी हिन्दी का प्रयोग बढ़ा है । बाजारवाद के दबाव में एक बडे वर्ग का हिन्दी को अपनाना मजबूरी है । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है । विदेशों से अनेक हिन्दी पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है । हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था । लेकिन मौजूदा स्िथतियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि हिन्दी दिवस मनाने का यह उद्देश्य तो काफी कुछ हद तक पूरा हो चुका है । हिन्दी का प्रयोग बढने के साथ ही अब उसके समक्ष कुछ संकट भी पैदा हो गए । इसलिए अब हिन्दी दिवस मनाने का उद्देश्य बदल लेना चाहिए । आज विविध जनसंचार माध्यमों में जिस हिन्दी का प्रयोग किया जा रहा उसमें तमाम अशिुद्धयां हैं । मीडिया का व्यापक प्रभाव होने के कारण ं आम जनता भी हिन्दी के इसी रूप को ग्रहण कर रही है । आज जो बोली जा रही है उसमें अशिुद्धयों कि भरमार होती है । व्याकरण दोष भी रहता है । यह सिलसिला नहीं रुका तो इस महान भाषा के स्वरुप का ही संकट पैदा हो जाएगा । इसलिए जरूरी है कि अब हिन्दी भाषा के मूल स्वरुप की रक्षा के लिए हिन्दी दिवस मनाया जाना चाहिए । हिन्दी दिवस पर शुद्ध हिन्दी बोलने और लिखने का संकल्प लेना चाहिए । शुद्ध हिन्दी से आशय भाषा के क्लिष्ट रूप से नहीं है । दूसरी भाषाओँ के अनेक शब्दों को हिन्दी ने इस तरह आत्मसात कर लिया है कि वे अब हिन्दी के ही लगते हैं । उनसे भी कोई परहेज नहीं है । हाँ, यह जरूर होना चाहिए कि हिन्दी के शुद्ध रूप में ही शब्दों को लिखा और बोला जाए । एक शब्द जब कई तरीके से लिखा और बोला जाने लगता है तब कई लोगों के समक्ष भ्रम पैदा हो सकता है । खास तौर से बच्चों के समक्ष यह एक बडे संकट का रूप ले लेता है । एक ही शब्द जब कई अखबारों में अलग अलग तरह से छपता है तो उन्हें यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा शब्द सही है । इसलिय हिन्दी को प्रभावशाली बनाये रखने के लिए इसके मूल रूप कि रक्षा जरूरी है । अब हिन्दी दिवस पर हमें इसी ओर धयान देना चाहिए ।
Wednesday, September 10, 2008
उफ़! इतनी दहेज़हत्याएँ
राष्ट्रिय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के ताजा आंकडों के मुताबिक देश में हर रोज करीब १४ महिलाएं दहेज़की भेंट चढ़जाती हैं । बीते १२ सालों में दहेज़उत्पीडन के मामलों में १२० फीसदी बढोतरी हुई है । कड़े कानून और सरकार की तमाम कोशिशें दहेज सम्बन्धी अपराधों को रोकने में विफल रही हैं । किसी भी सभ्य समाज के माथे पैर दहेज़हत्याएँ और उत्पीडन की घटनाएँ कलंक के समान होती हैं । भारत में विकास की गति तेज है, शिक्षा का भी विस्तार हुआ है, आर्थिक समृधि भी आई है, महिलायें आत्मनिर्भर भी बनी हैं, दहेज़सम्बन्धी कानूनों में भी सुधार किया गया है, फिर क्यों ़दहेज सम्बन्धी अपराध नहीं रुक पा रहे हैं ? यह एक बडा सवाल है जिस पर विचार करना जरूरी है । इस सवाल के जवाब तलाशने होंगे । दरअसल तमाम विकास के बावजूद भारतीय समाज परम्परावादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है । यही वजह है कि मोटे तौर पर आज भी न तो पुरुषों को और न महिलाओं को दहेज लेने या देने में कुछ गलत दिखाई देता है । मानसिक रूप से दहेज कि स्वीकार्यता ही इस गंभीर समस्या को खत्म नहीं होने देती । हाँ, जब कोई अपना दहेज सम्बन्धी अपराध का शिकार बनता है, तब जरूर दहेज प्रथा को गलत बताकर इसकी आलोचना करते हैं । दहेज प्रथा सामाजिक सम्बन्धों पर असर डालती है । रिश्तों पर से भरोसा कम करती है, इसलिए जरूरी है कि इस समस्या का हल निकाला जाए । इसके लिए व्यापक दृष्टिकोण से सोचने कि जरूरत है। नई पीढी को खास तौर से इस कुप्रथा के खात्मे के लिया आगे आना चाहिए । अगर नई पीढी दहेज़प्रथा मिटाने का संकल्प ले ले, तो काफी हद तक समस्या का समाधान सम्भव है ।
Friday, September 5, 2008
शिक्षकों का दयिएतव बढा
मौजूदा दौर में शिक्षकों का दाियत्व और बढ़ गया है । बेहतर शिक्षा देने के साथ ही उन्हें विद्यार्थियों को भविष्य की संभावनाओं के अनुरूप तैयार करना होगा । गुरुकुल तो नहीं रहे लेकिन गुरुकुल परंपरा की अच्छी बातों को जीवित रखना होगा । आज अनेक उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थी हैं, शिक्षक हैं, लैब हैं, विशाल भवन हैं, पुस्तकालय हैं लेकिन पढ़ाई का माहौल नहीं है । इन शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का माहौल शिक्षक ही बना सकते हैं । शिक्षा के मंदिरों में अब ऐसे तत्व भी प्रवेश कर गए हैं जो विद्यार्थियों में भटकाव पैदा कर देते हैं । इस भटकाव से बचाकर विषम परिस्थित में अगर कोई शिक्षा दे सकता है तो वह गुरु ही है । आज बच्चों में शिक्षा, कैरियर और भविष्य को लेकर काफी चिंता रहती है । कई बार माता पिता भी उन पर अपनी इच्छा थोप देते हैं । ऐसे में उम्मीदें पूरी न कर पाने पर उनमें निराशा पैदा होती है और आत्मविश्वास घट जाता है । शिक्षकों का दाियत्व है, वे उन्हें आत्मविश्वास से इतना मजबूत कर दें की उनमें कभी निराशा ही पैदा न होने पाए । कैरियर को लेकर भी उचित मार्गदर्शन करें । ऐसा होने पर ही नई पीढी अपनी जिंदगी के सपनों में रंग भर पायेंगे ।
Wednesday, July 30, 2008
जीवन
जीवन अनमोल है । इसका सदुपयोग करना चाहिए । हर आदमी को जीवन संघर्षो का सामना करना चाहिए । जीवन जीने के लिए है इसलिए जिंदगी से कभी मुहँ नही मोड़ना चाहिए । जीवन में खुशी बांटनी चाहिए । ख़ुद भी खुश रहो और दूसरों को भी खुश रखो । बाँटने से खुशियाँ बढती हैं ।
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