Wednesday, January 12, 2011

तीन घंटे की रिपोर्टिंग में कैसे हो सच का संधान

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
अखबारों में बदली कार्यप्रणाली के चलते सच की खोजबीन का काम बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अखबार का बुनियादी काम सच को सामने लाने का है और इस काम को अंजाम देते हैं अखबार के रिपोर्टर। अब से करीब २० साल पहले रिपोर्टरों के पास मोबाइल नहीं थे। लैंडलाइन फोन भी चुनींदा रिपोर्टर के पास होते थे। इस कारण मौके पर जाक र रिपोर्टिंग करना उनकी मजबूरी होती थी। उस समय सुबह को अखबारों केदफ्तरों में मीटिंग की भी परंपरा नहीं थी। नतीजा यह कि संवाददाता मीटिंग के दबाव से मुक्त होकर समाचार तलाशने के दबाव में रहता था। इस कारण उसे अधिक समय फील्ड में बिताना पड़ता था और फिर इसका नतीजा यह होता था कि कुछ बेहतर खबरें उसके हाथ लग जाती थीं। यहीं वह खबरें होती थीं जो प्रिंट मीडिया को पहचान देती थीं। यह मिशनरी से व्यावसायिक पत्रकारिता की शुरुआत का दौर था।
अब मिशनरी भाव से मुक्त होकर पत्रकारिता पूरी तरह व्यावसायिक चोला अख्तियार कर चुकी है। इस दौरान कर कई बार पिं्रट मीडिया से जुड़े लोग शिकायत करते हैं कि अब अखबारनवीसी में सिर्फ रुटीन की खबरें हो कवर हो पाती हैं। अब संवाददाता धमाकेदार खबरें कम जुटा पाते हैं। पुराने पत्रकार अपनी समकालीन खबरों के उदाहरण अक्सर नए पत्रकारों को देते हैं। दरअसल, इसके लिए कुछ बदलाव भी जिम्मेदार है। पत्रकारिता के व्यवसाय बनने से पत्रकारों की कार्यप्रणाली भी प्रभावित हुई है। अब सुबह को रिपोर्टरों का सबसे पहला काम रिपोर्टिंग टीम की मीटिंग में शामिल होना होता है। यह मीटिंग आम तौर पर १०-११ बजे शुरू होती हैं और कम से कम एक घंटा चलती हैं। दोपहर तक मीटिंग में शामिल होने के कारण संवाददाता इस अवधि में होने वाले कार्यक्रमों में शामिल नहीं हो पाते। सबसे ज्यादा इस दौरान स्कूलों और धार्मिक स्थलों पर कार्यक्रम होते हैं। यह तमाम कार्यक्रम विज्ञप्ति के आधार पर ही प्रकाशित हो पाते हैं। दोपहर बाद करीब एक घंटे का समय संवाददाता को मिल पाता है। इसके बाद वह भोजन करने जाते हैं। फिर पांच बजे तक आफिस पहुंचने से पहले के दो घंटे उन्हें रिपोर्टिंग के लिए मिल पाते हैं। पूरे दिन में कुल जमा तीन घंटे की रिपोर्टिंग में कैसे सत्य के संधान किया जाए, यह यक्ष प्रश्न है।
एक संकट और है, कई बार संवाददाता बैठक में शामिल होने को ही अपने काम की इतिश्री मान लेते हैं। उन पर बैठक में शामिल होने का अधिक दबाव होता है, खबरों को लेकर कम। फील्ड में जाने की रही-सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी है। यही कारण है कि अखबारों में धारदार खबरें घटती जा रही हैं। उनमें तथ्यों से उपजे वह तेवर नहीं होते जो पाठकों को अधिक देर तक अखबार से बांधे रह सके। यही वजह है कि अखबार पढऩे का औसत समय घटकर सात मिनट पर आ गया है। इससे सबक लेना प्रिंट मीडिया की जरूरत है।

2 comments:

Learn By Watch said...

प्रिय,

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Sonal said...

aap ki baat bilkul sahi hai. har ek min TV par khabare update hoti hai. aur upar se internet bhi to apni raftaar rakhe hue dikhta hai. akhbaar puraani khabar dete hai. akhbaaron ko aage ki sochna jaroori hai taaki wo apna wajood na kho de.

waise "idea" ki advertise me jaise dikhaaya hai waise hi mobile internet pe akhbaar apni news update kar sakte hai. :-)