आज २७ सितंबर को विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है । पूरी दुनिया में पर्यटन को बढावा देने मकसद से आज के दिन अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । इस बात पर विचार किया जाता है कि कैसे पर्यटन को बढावा दिया जाए । भारत पर्यटकों के लिए बडा मनोरम स्थल रहा है । यह ऐसा देश है जहां पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए सभी प्रकार के स्थल मौजूद हैं । यहां गोवा, मुंबई, चेन्नई, पांडिचेरी जैसे समुद्रतट, ताजमहल जैसी प्रेम प्रदर्शन की बेमिसाल खूबसूरत इमारत, ऊटी, कोडाईकनाल, शिमला, नैनीताल, मसूरी आदि मनमोहक पर्वतीय स्थल, कुतुबमीनार, लालकिला, हवामहल, आमेर का किला समेत अनेक ऐतिहासिक इमारतें, मीनाक्षी मंदिर, तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारिकापुरी, बद्रीनाथ जैसे व्यापक आस्था का केंद्र बने तीर्थस्थल, द्वादश ज्योर्तिलिंग का गौरव सहेजे पावनस्थल, हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक जैसे पावन नदियों के तट मौजूद हैं । भारत विविध संस्कृतियों का संगम है । इन सभी कारणों से विदेशियों के मन में भारत को देखने की गहरी इच्छा रहती है । इसीलिए भारत में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं ।
इन सब स्थितियों के बावजूद िवश्व में भारत की पर्यटन की दृष्टि से स्थिति संतोषजनक नहींहै । वर्ष २००७ में विश्व में पर्यटकों को लुभाने वाले स्थलों में ताजमहल ५०वें स्थान पर है । वर्ष २००६ में पर्यटकों की नजर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय १५ नगरों में भारत का कोई शहर नहीं है । ये तथ्य इस बात पर मंथन करने केलिए विवश करते हैं कि कैसे भारत में पर्यटन का विकास किया जाए ? क्या वजह है कि भारत में पर्यटकों की संख्या उतनी नहीं होती जितनी अपेक्षित है ? क्या प्रयास किए जाएं कि भारत में पर्यटन की तस्वीर बदल जाए ?ं पर्यटकों की आमद को कैसे बढाया जाए ?
दरअसल, पर्यटन को विकसित करने के लिए देश में शांति, सुरक्षा और अपराध मुक्त वातावरण जरूरी है । पर्यटक पहले सुरक्षा चाहता है, बाद में दर्शनीय स्थल । उसे धन और जान-माल की सुरक्षा का मजबूत भरोसा चाहिए । भारत में निरंतर बढ़ रही आतंकवादी गतिविधियां, विविध प्रकार के खौफनाक अपराध, जनसुविधाओं का अभाव, बिजली आपूर्ति, सडकों और यातायात साधनों की खस्ताहालत विदेशी पर्यटकों का मोहभंग कर देती है । महिला पर्यटकों के साथ छेडछाड़, बलात्कार और लूटपाट की घटनाओं ने भी पर्यटन को प्रभावित किया है । कई ऐसे स्थल भी हैं जहां पर्यटकों की गैरजानकारी का लाभ उठाकर उनसे अधिक पैसा वसूला जाता है । कई बार पर्यटकों के साथ अभद्र व्यवहार भी किया जाता है । यह सब ऐसे कारण हैं, जो पर्यटकों को भारत आने से रोकते हैं ।
इसलिए जरूरी है कि ऐसा माहौल बनाया जाए जिससे पर्यटक भारत आने के लिए लालायित हों । जिन स्थानों पर पर्यटन का विकास होता है, वहां आर्थिक समृद्धि आती है । अनेक बेरोजगारों को रोजगार मिलता है । होटल, रेस्टोरेंट और टे्रवल कंपनियों की आमदनी बढती है । उन्नति का परिणाम यह होता है कि वे अपराध अपने आप घटने लगते हैं जिनके पीछे कुछ आर्थिक कारण होते हैं । पर्यटन के नए स्थल विकसित करने से उनकी आर्थिक तसवीर बदलने की पूरी संभावना रहती है । भारत की संस्कति का विस्तार होता है । इस सब बातों को ध्यान में रखते हुए जरूरी है कि पर्यटन के े विकास पर ध्यान दिया जाए । सरकार और जनता मिलकर आतंकवाद और अपराधों पर अंकुश लगाएं। देश में पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढाई जाएं ताकि उन्हें कोई असुविधा न हो । वह निर्भीक पूरे देश के मनमोहक स्थलों पर विचरण कर सकें । ऐसा होने पर विदेशी मुद्रा की आवक बढेगी और देश की आर्थिक उन्नति होगी ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )
Friday, September 26, 2008
Wednesday, September 24, 2008
महापुरुषों का यह कैसा सम्मान ?
मंगलवार को जम्मू के मुबारक मंडी कांप्लेक्स में राष्टï्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा के गले में रस्सी बांधकर रोशनी के लिए लाइट लटका दी गई । एक समारोह की तैयारियों में जुटे टेंट हाउस के कर्मचारी बापू की प्रतिमा पर चढ़ गए । उनके कंधे और सिर पर पैर भी रखे गए । उफ ! महापुरुषों की प्रतिमाओं की यह दशा । समझ में नहीं आता कि जब हम प्रतिमाओं का पूरा सम्मान ही नहीं कर पा रहे हैं तो फिर उन्हें स्थापित करने से क्या लाभ? पूरे देश में जगह-जगह महापुरुषों की प्रतिमाएं लगी हुई हैं । कई स्थानों पर देखरेख के अभाव में प्रतिमाएं गंदगी से घिरी रहती हैं । उनकी सफाई की भी कोई व्यवस्था नहीं होती । विचार करना होगा कि इस हालत में प्रतिमाएं पूरे देश के लिए क्या संदेश देंगी ?
पूरी दुनिया में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई जाती हैं । भारत में भी बडी संख्या में महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित हैं । कोई शहर ऐसा नहीं जिसमें प्रतिमाएं न हों । प्रतिमा स्थापित करने के पीछे मंशा यह होती है कि समाज इनके आदर्शों से प्रेरणा ले । इन महापुरुषों के बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश के विकास में योगदान दे । इसके लिए जरूरी है कि प्रतिमा स्थापना के बाद इनकी सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए । प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी तो कैसे दूसरों के लिए प्रेरणा जागृत कर पाएंगी । अनेक प्रतिमाएं खुले में लगी हैं और मौसम का मिजाज उनके रंग-रूप को बदरंग कर देता है । कई बार उनकी सुरक्षा न होने से भी अपमानजनक स्थिति बन जाती है । ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि कैसे महापुरुषों की प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा की जाए? उनकी देखरेख की भी पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए । सुरक्षा और देखरेख की जिम्मेदारी किसकी होगी, यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।
महापुरुषों के जन्मदिवस को भी पूरे देश में मनाया जाता है और इस दिन अवकाश भी दिया जाता है ताकि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करें । उनके राष्ट्रहित में किए गए कार्यों को याद करें । लेकिन इस अवकाश के मायने भी अब बदलने लगे हैं । कुछ संस्थाओं में ही महापुरुषों के े जन्मदिवस पर महज औपचारिक कार्यक्रम होते हैं । अवकाश पर लोगों को महापुरुष याद आने के े बजाय दूसरे काम या कार्यक्रम याद आते हैं और वह उनमें व्यस्त रहते हैं ।
महापुरुषों के जीवन के विविध पक्ष नई पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणा का माध्यम रहे हैं । इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों को महापुरुषों के संस्मरण सुनाया करते थे । अब एकल परिवार में बच्चों को यह संस्समरण वाचिक परंपरा से सुनने को नहीं मिल पाते । महापुरुषों की जीवनियां सिर्फ पाठ्यक्रमों में ही उन्हें पढऩे को मिल पाती हैं क्योंकि पुस्तक खरीदने की प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है ? इस स्थिति में महापुरुषों के विषय में बहुत कम जानकारी बच्चों को मिल पाती है । हमें विचार करना होगा कि बच्चे कैसे महापुरुषों के जीवन से जुडे विविध प्रसंगों से अवगत हों पाएंगे ?
समाज में जिस तरह से नैतिक पतन की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटकाव की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्कृतिक मान्यताओं और परंपराओं से खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों के विचारों और आदर्शों का प्रचार प्रसार करना होगा तभी समाज सही दिशा में चल पाएगा ।
पूरी दुनिया में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई जाती हैं । भारत में भी बडी संख्या में महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित हैं । कोई शहर ऐसा नहीं जिसमें प्रतिमाएं न हों । प्रतिमा स्थापित करने के पीछे मंशा यह होती है कि समाज इनके आदर्शों से प्रेरणा ले । इन महापुरुषों के बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश के विकास में योगदान दे । इसके लिए जरूरी है कि प्रतिमा स्थापना के बाद इनकी सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए । प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी तो कैसे दूसरों के लिए प्रेरणा जागृत कर पाएंगी । अनेक प्रतिमाएं खुले में लगी हैं और मौसम का मिजाज उनके रंग-रूप को बदरंग कर देता है । कई बार उनकी सुरक्षा न होने से भी अपमानजनक स्थिति बन जाती है । ऐसे में यह सुनिश्चित करना होगा कि कैसे महापुरुषों की प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा की जाए? उनकी देखरेख की भी पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए । सुरक्षा और देखरेख की जिम्मेदारी किसकी होगी, यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए ।
महापुरुषों के जन्मदिवस को भी पूरे देश में मनाया जाता है और इस दिन अवकाश भी दिया जाता है ताकि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार करें । उनके राष्ट्रहित में किए गए कार्यों को याद करें । लेकिन इस अवकाश के मायने भी अब बदलने लगे हैं । कुछ संस्थाओं में ही महापुरुषों के े जन्मदिवस पर महज औपचारिक कार्यक्रम होते हैं । अवकाश पर लोगों को महापुरुष याद आने के े बजाय दूसरे काम या कार्यक्रम याद आते हैं और वह उनमें व्यस्त रहते हैं ।
महापुरुषों के जीवन के विविध पक्ष नई पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणा का माध्यम रहे हैं । इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों को महापुरुषों के संस्मरण सुनाया करते थे । अब एकल परिवार में बच्चों को यह संस्समरण वाचिक परंपरा से सुनने को नहीं मिल पाते । महापुरुषों की जीवनियां सिर्फ पाठ्यक्रमों में ही उन्हें पढऩे को मिल पाती हैं क्योंकि पुस्तक खरीदने की प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है ? इस स्थिति में महापुरुषों के विषय में बहुत कम जानकारी बच्चों को मिल पाती है । हमें विचार करना होगा कि बच्चे कैसे महापुरुषों के जीवन से जुडे विविध प्रसंगों से अवगत हों पाएंगे ?
समाज में जिस तरह से नैतिक पतन की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटकाव की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्कृतिक मान्यताओं और परंपराओं से खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों के विचारों और आदर्शों का प्रचार प्रसार करना होगा तभी समाज सही दिशा में चल पाएगा ।
Monday, September 22, 2008
संस्कृत को समृद्ध नहीं करेंगे तो संस्कृति कैसेे बचेगी?
संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है । देववाणी है, व्यापक क्षेत्र में निवास कर रहे जनमानस की आस्था का प्रतीक है । तमाम भारतीय पौराणिक ग्रंथों की रचना संस्कृत में हुई है, इसलिए इस भाषा के प्रति एक धार्मिक श्रद्धा का भी भाव है । भारतीय संस्कृति में हिंदू धर्म केे अनुयायियों के जन्म, विवाह से लेकर मृत्यु तक के तमाम कर्मकांड संस्कृत में ही संपन्न होते हैं । इस कारण इस भाषा के प्रति व्यापक आदरभाव और भक्ति की सीमा तक की अटूट आस्था है । भारतीय जनमानस को सदियों से संजीवनी प्रदान कर रहे वेदों की ऋचाएं, भारतीय जीवन-दर्शन का दर्पण श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक और सभी पौराणिक ग्रंथ संस्कृत में ही हैं । योग, ध्यान, भारतीय दर्शन और आयुर्वेद विदेशियों को आकर्षित करते हैं और इन विषयों से जुडी अनेक जानकारियां संस्कृत में ही हैं । संस्कृत की वैश्विक महत्ता भारतवासियों के लिए गौरव का विषय भी है ।
विदेशों में भारतीय पुरोहितों, संस्कृत के विद्वानों और कर्मकांडी पंडितों की मांग बढ़ी है । देश की सीमाओं को पार करके जिन भारतवासियों ने विदेशों में अपना बसेरा बनाया है, उनके लिए वहां संस्कार-कर्म कराने के लिए पंडितों की जरूरत होती है । ऐसे में विदेश में संस्कृत की पताका गर्व के साथ फहराने लगी है । लेकिन यही अंतिम सत्य नहीं है ।
सच यह है कि आधुनिक भारत में संस्कृत के विकास के लिए उस तरह काम नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था । संस्कृत पढऩे वालों के लिए न रोजगार के श्रेष्ठ अवसर उपलब्ध कराए गए और न ही उसके प्रचार-प्रसार के लिए ठोस तरीके से काम किए गए । जो संस्कृत विद्यालय देश में चल रहे हैं, उनकी भी अपनी तमाम समस्याएं हैं । कहीं अध्यापकों को वेतन नहीं है तो कहीं भवन जर्जर पडे हैं । संस्कृत विद्यालयों का आधुनिकीकरण नहीं हुआ है । संस्कृत के विकास के लिए गठित संस्थाएं आर्थिक संकट से गुजर रही हैं । संस्कृत पठन पाठन में भïिवष्य की संभावनाएं घटने के कारण उससे विद्यार्थियों का मोहभंग हो रहा है ।
ऐसी हालात में जरूरी है कि संस्कृत को प्रतिष्ठित करने और इस भाषा में डिग्री पाने वालों को तरक्की के नए रास्ते खोलने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं । मौजूदा दौर में विषय कोई भी पढें लेकिन कामकाज में कंप्यूटर एक अनिवार्य जरूरत बन गया है । अधिकतर कंप्यूटरों पर अंग्रेजी में काम किया जाता है । इसलिए संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी की जानकारी अगर होगी तो और कैरियर संवारने में मदद ही मिलेगी । संस्कृत की पढाई के साथ कंप्यूटर की भी शिक्षा दी जाए ताकि संस्कृत के विद्यार्थी आधुनिक युग की जरूरतों के अनुसार रोजगारोन्मुखी परिणाम दे सकें । साथ ही एक अन्य भाषा को सीखना भी उनके लिए अनिवार्य कर दिया जाए ताकि वह उस भाषा क्षेत्र में संस्कृत की महत्ता को रेखांकित कर सकें ।
संस्कृतसाहित्य का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी बडी संख्या में सुलभ कराया जाना चाहिए । इससे उपभोक्तावादी इस युग में दूसरी भाषा के लोग संसकृत की महत्ता से परिचित होंगे । इसका लाभ संस्कृत से जुडे लोगों को मिलेगा । संस्कृत को पुराना गौरव वापस मिल गया तो भारतीय संस्कृति की जडें और मजबूत होंगी । साथ ही भारतीय संस्कृति को दुनिया में और विस्तार मिलेगा ।
विदेशों में भारतीय पुरोहितों, संस्कृत के विद्वानों और कर्मकांडी पंडितों की मांग बढ़ी है । देश की सीमाओं को पार करके जिन भारतवासियों ने विदेशों में अपना बसेरा बनाया है, उनके लिए वहां संस्कार-कर्म कराने के लिए पंडितों की जरूरत होती है । ऐसे में विदेश में संस्कृत की पताका गर्व के साथ फहराने लगी है । लेकिन यही अंतिम सत्य नहीं है ।
सच यह है कि आधुनिक भारत में संस्कृत के विकास के लिए उस तरह काम नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था । संस्कृत पढऩे वालों के लिए न रोजगार के श्रेष्ठ अवसर उपलब्ध कराए गए और न ही उसके प्रचार-प्रसार के लिए ठोस तरीके से काम किए गए । जो संस्कृत विद्यालय देश में चल रहे हैं, उनकी भी अपनी तमाम समस्याएं हैं । कहीं अध्यापकों को वेतन नहीं है तो कहीं भवन जर्जर पडे हैं । संस्कृत विद्यालयों का आधुनिकीकरण नहीं हुआ है । संस्कृत के विकास के लिए गठित संस्थाएं आर्थिक संकट से गुजर रही हैं । संस्कृत पठन पाठन में भïिवष्य की संभावनाएं घटने के कारण उससे विद्यार्थियों का मोहभंग हो रहा है ।
ऐसी हालात में जरूरी है कि संस्कृत को प्रतिष्ठित करने और इस भाषा में डिग्री पाने वालों को तरक्की के नए रास्ते खोलने के लिए ठोस कदम उठाए जाएं । मौजूदा दौर में विषय कोई भी पढें लेकिन कामकाज में कंप्यूटर एक अनिवार्य जरूरत बन गया है । अधिकतर कंप्यूटरों पर अंग्रेजी में काम किया जाता है । इसलिए संस्कृत के साथ ही अंग्रेजी की जानकारी अगर होगी तो और कैरियर संवारने में मदद ही मिलेगी । संस्कृत की पढाई के साथ कंप्यूटर की भी शिक्षा दी जाए ताकि संस्कृत के विद्यार्थी आधुनिक युग की जरूरतों के अनुसार रोजगारोन्मुखी परिणाम दे सकें । साथ ही एक अन्य भाषा को सीखना भी उनके लिए अनिवार्य कर दिया जाए ताकि वह उस भाषा क्षेत्र में संस्कृत की महत्ता को रेखांकित कर सकें ।
संस्कृतसाहित्य का अन्य भाषाओं में अनुवाद भी बडी संख्या में सुलभ कराया जाना चाहिए । इससे उपभोक्तावादी इस युग में दूसरी भाषा के लोग संसकृत की महत्ता से परिचित होंगे । इसका लाभ संस्कृत से जुडे लोगों को मिलेगा । संस्कृत को पुराना गौरव वापस मिल गया तो भारतीय संस्कृति की जडें और मजबूत होंगी । साथ ही भारतीय संस्कृति को दुनिया में और विस्तार मिलेगा ।
Sunday, September 21, 2008
टूटते रिश्ते, दरकते संबंध
भारत ऐसा देश रहा है जहां सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को विशेष महत्व दिया जाता रहा है । रिश्तों की आत्मीयता भारतीय संस्कृति में रची बसी है । भारतीय संस्ृति में जीवित होने पर ही नहीं बल्कि मृत्यु होने के बाद भी रिश्ते का निर्वाह किया जाता है । यह संबंधों के प्रति लगाव ही है कि भारत में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए पितृपक्ष पर तर्पण की परंपरा है । भारतवासियों को सदैव रिश्ते निभाने की गौरवशाली परंपरा पर गर्व रहा है । विदेशियों के लिए भी भारतीय संसकिरिति का यह पक्ष बडा आकर्षित करता रहा है । लेकिन पिछले कुछ समय से स्थितियां बदली है ।
भौतिकतावाद, उपभोक्तावाद, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण, बाजारवाद, बदलते जीवन मूल्यों, नैतिक मूल्यों के पतन, संयुक्त परिवार के विघटन और नित नए आकार लेती महत्वाकांक्षाओं ने व्यक्ति की मानसिकता को गहराई से प्रभावित किया है । यही वजह है रिश्तों की आत्मीयता में जो गरमाहट थी, वह कुछ कम होने लगी है । सामाजिक संबंधों में जो निकटता थी, वह घटने लगी है । कई बार ऐसा लगता है कि मौजूदा समय में रिश्ते टूटने लगे हैं और संबंध दरकने लगे हैं।
२० सितंबर को बिजनौर जिले में एक व्यक्ति ने दो सगे भाइयों के साथ अपनी मां और १० वर्षीय पुत्री की धारदार हथियारों से हत्या कर दी । वजह थी सिर्फ १४ बीघा जमीन जो मां के नाम थी । यह जमीन बेेटे हथियाना चाहते थे । इस घटना के संदर्भ बडे व्यापक हैं और पूरे समाज के सामने कई सवाल खडे करते है ं। क्या आज संपत्ति मां और पुत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगी है? क्या समाज में हिंसक प्रवृत्तियां अधिक प्रभावशाली होने लगी हैं? क्या हम भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों को भूलने लगे हैं? इन सवालों पर विचार करना जरूरी है । अगर भारतीय समाज में संबंधों की जडें़कमजोर हुईं तो इसका असर सीधा संस्कृति पर पडेगा ।
दरअसल बदले भौतिकवादी परिवेश ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत गहराई से प्रभावित किया है । रोजगार के सिलसिले और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन की इच्छाओं ने एकल परिवार की परंपरा को बढावा दिया । इसका परिणाम यह हो गया कि अब सिर्फ पति, पत्नी और बच्चों को ही परिवार का हिस्सा माना जाने लगा है । अन्य रिश्तों के प्रति लगाव घटता जा रहा है । उनमें परस्पर आत्मीयता भी घटती जा रही है । तीज त्योहारों और विवाह आदि अवसरों पर ही संयुक्त परिवार की झलक दिखाई देती है । पारिवारिक सदस्यों में दूरियां बढऩे से परस्पर संबंधों में दरार पडऩे लगी । ऐसे में कई बार रिश्ता गौण और स्वार्थ प्रमुख हो जाता है ।
पहले आर्थिक समृद्धि जिन रिश्तों को जोडती थी आज उनमें ईष्र्या पैदा कर रही है । एक भाई अगर अमीर है और दूसरा गरीब तो फिर उनमें रिश्तों की आत्मीयता की जगह एक खास किस्म की दूरी महसूस की जा सकती है । भारतीय समाज और संस्कृति के लिए यह अच्छे संकेत नहीं है ं। इस बदलाव की अभिव्यक्ति भी अब विविध माध्यमों से होने लगी है । बागवान फिल्म में रिश्तों में आ रहे इस बदलाव को बडी कलात्मकता के साथ परदे पर उतारा गया है । सचमुच बदलते परिवेश में अब बच्चे दादा-दादी के प्यार, ताऊ-ताई के दुलार से वंचित होने लगे हैं । अपनी जिद पूरी कराने के लिए अब उन्हें चाचा-चाची नहीं मिल पाते हैं । बुआ-फूफा, मामा-मामी, मौसा-मौसी से भी खास मौके पर ही मुलाकात हो पाती है । अब कहानियां सुनाने के लिए उनके पास बुजुर्ग होते ही नहीं है ं। इन स्थितियों पर वैचारिक मंथन की जरूरत है । हमें इस ओर ध्यान देना होगा । नई पीढ़ी को रिश्तों का अहसास कराना होगा । ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते मजबूत हों । रिश्तों की आत्मीयता, संवेदनशीलता और प्रेम गहरा होगा, तभी समाज मजबूत होगा ।
भौतिकतावाद, उपभोक्तावाद, आधुनिकीकरण, वैश्वीकरण, बाजारवाद, बदलते जीवन मूल्यों, नैतिक मूल्यों के पतन, संयुक्त परिवार के विघटन और नित नए आकार लेती महत्वाकांक्षाओं ने व्यक्ति की मानसिकता को गहराई से प्रभावित किया है । यही वजह है रिश्तों की आत्मीयता में जो गरमाहट थी, वह कुछ कम होने लगी है । सामाजिक संबंधों में जो निकटता थी, वह घटने लगी है । कई बार ऐसा लगता है कि मौजूदा समय में रिश्ते टूटने लगे हैं और संबंध दरकने लगे हैं।
२० सितंबर को बिजनौर जिले में एक व्यक्ति ने दो सगे भाइयों के साथ अपनी मां और १० वर्षीय पुत्री की धारदार हथियारों से हत्या कर दी । वजह थी सिर्फ १४ बीघा जमीन जो मां के नाम थी । यह जमीन बेेटे हथियाना चाहते थे । इस घटना के संदर्भ बडे व्यापक हैं और पूरे समाज के सामने कई सवाल खडे करते है ं। क्या आज संपत्ति मां और पुत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगी है? क्या समाज में हिंसक प्रवृत्तियां अधिक प्रभावशाली होने लगी हैं? क्या हम भारतीय संस्कृति के मूलभूत सिद्धांतों को भूलने लगे हैं? इन सवालों पर विचार करना जरूरी है । अगर भारतीय समाज में संबंधों की जडें़कमजोर हुईं तो इसका असर सीधा संस्कृति पर पडेगा ।
दरअसल बदले भौतिकवादी परिवेश ने संयुक्त परिवार की अवधारणा को बहुत गहराई से प्रभावित किया है । रोजगार के सिलसिले और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन की इच्छाओं ने एकल परिवार की परंपरा को बढावा दिया । इसका परिणाम यह हो गया कि अब सिर्फ पति, पत्नी और बच्चों को ही परिवार का हिस्सा माना जाने लगा है । अन्य रिश्तों के प्रति लगाव घटता जा रहा है । उनमें परस्पर आत्मीयता भी घटती जा रही है । तीज त्योहारों और विवाह आदि अवसरों पर ही संयुक्त परिवार की झलक दिखाई देती है । पारिवारिक सदस्यों में दूरियां बढऩे से परस्पर संबंधों में दरार पडऩे लगी । ऐसे में कई बार रिश्ता गौण और स्वार्थ प्रमुख हो जाता है ।
पहले आर्थिक समृद्धि जिन रिश्तों को जोडती थी आज उनमें ईष्र्या पैदा कर रही है । एक भाई अगर अमीर है और दूसरा गरीब तो फिर उनमें रिश्तों की आत्मीयता की जगह एक खास किस्म की दूरी महसूस की जा सकती है । भारतीय समाज और संस्कृति के लिए यह अच्छे संकेत नहीं है ं। इस बदलाव की अभिव्यक्ति भी अब विविध माध्यमों से होने लगी है । बागवान फिल्म में रिश्तों में आ रहे इस बदलाव को बडी कलात्मकता के साथ परदे पर उतारा गया है । सचमुच बदलते परिवेश में अब बच्चे दादा-दादी के प्यार, ताऊ-ताई के दुलार से वंचित होने लगे हैं । अपनी जिद पूरी कराने के लिए अब उन्हें चाचा-चाची नहीं मिल पाते हैं । बुआ-फूफा, मामा-मामी, मौसा-मौसी से भी खास मौके पर ही मुलाकात हो पाती है । अब कहानियां सुनाने के लिए उनके पास बुजुर्ग होते ही नहीं है ं। इन स्थितियों पर वैचारिक मंथन की जरूरत है । हमें इस ओर ध्यान देना होगा । नई पीढ़ी को रिश्तों का अहसास कराना होगा । ऐसे प्रयास करने होंगे जिससे सामाजिक और पारिवारिक रिश्ते मजबूत हों । रिश्तों की आत्मीयता, संवेदनशीलता और प्रेम गहरा होगा, तभी समाज मजबूत होगा ।
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Friday, September 19, 2008
छेड़छाड़ पर हो सख्त सजा
मेरठ में चलती बस में एक विदेशी युवती से छेड़छाड़ की गई । यह युवती भारत की जिस छवि को अपने मन में लेकर यहां आई होगी, निश्चित रूप से वह जाते समय बदल गई होगी । दरअसल, छेडछाड़ की घटनाएं लगातार बढती जा रही हैं, जिसका बडा व्यापक असर समाज में दिखाई दे रहा है । आधा समाज आज आशंका, दहशत और तनाव के बीच जिंदगी का सफर तय करता है। आज लडकियों को पढ़ाने के प्रति जागरूकता आई है लेकिन उनका स्कूल आना जाना पूरी तरह सुरक्षित नहीं है । स्कूल आते जाते उन्हें मनचलों और शोहदों की फब्तियों का सामना करना पड़ता है । लडकियां और महिलाएं घर की दहलीज से निकलकर रोजगार के विविध क्षेत्रों में योगदान दे रही हैं लेकिन घर से दफ्तर तक का सफर महफूज नहीं है । बसों तक में लडकियों और महिलाओं के साथ छेडछाड़ होती ह ै। कार्यस्थल पर भी महिलाओं के साथ छेडछाड़की घटनाएं सामने आती रहती हैं? छेडछाड़ का भय महिलाओं को हमेशा सताता रहता है । विरोध करने पर उनके साथ मारपीट की जाती है। मेरठ में तो छेडछाड़ का विरोध करने पर लडकियोंं पर तेजाब डालने की भी घटनाएं हुई हैं ।
छेडछाड़ की अनेक घटनाओं का तो जिक्र महिलाएं या लडकियां शर्म के कारण परिजनों तक से नहीं करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मनचले बेखौफ हो जाते हैं । जिन घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है, उन्हें पुलिस कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेती जिसका नतीजा यह होता है कि दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती है ।
नारी स्वतंत्रता और उनके विकास के लिए देखे जा रहे सपनों पर छेडछाड़ की घटनाएं कई सवाल खडे कर देती हैं । क्या वर्तमान सामाजिक परिवेश नारियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने में सहायक है? क्यों आज नारी पुरुष के समान निर्भीक होकर सडक पर विचरण नहीं कर पाती है? क्यों आशंकाओं से मुक्त होकर निडरता के साथ नौकरी नहीं कर पाती? क्यों उसे नारी होने के कारण उत्पीडऩ और त्रासदीपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है? इस सवालों पर वैचारिक मंथन करके इनके जवाब तलाश करने होंगे । तभी स्त्री विमर्श सार्थक आकार ले पाएगा ।
दरअसल, आज छेड़छाड़ की समस्या बहुत गंभीर हो गई है । कई लडकियों को छेडछाड़के डर से स्कूल-कॉलेज जाना मुश्किल हो जाता है । महिलाओं को कार्यस्थल पर रहना ही जब त्रासदीपूर्ण लगने लगेगा तो वह रोजगारन्मुखी परिणाम कैसे दे पाएंगी? छेडछाड़ को लेकर जातीय तनाव भी पैदा होने लगा है और हिंसक घटनाएं भी हुई हैं । छेडछाड़ से त्रस्त किशोरी के आत्महत्या कर लेने की दिल दहला देने वाली घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में छेडछाड़ करने पर सख्त सजा देने का प्रावधान करना जरूरी है । बड़ी सजा न होने से छेडछाड़ करने वालों के हौसले बुलंद रहते हैं । इसके लिए पुलिस को भी ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए । लडकियों और महिलाओं को भी जूडो कराटे जैसे रक्षात्मक प्रशिक्षण हासिल करने चाहिए । अभिभावकों को लडकियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने के लिए ऐसे प्रशिक्षण दिलाने में उनकी मदद करनी चाहिए । तभी महिलाएं और लडकियां निर्भीक होकर विकास में अपना योगदान दे पाएंगी । अपने सपनों में कामयाबी के रंग भरकर जीवन को सुंदर बना पाएंगी ।
छेडछाड़ की अनेक घटनाओं का तो जिक्र महिलाएं या लडकियां शर्म के कारण परिजनों तक से नहीं करती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि मनचले बेखौफ हो जाते हैं । जिन घटनाओं की रिपोर्ट दर्ज कराई जाती है, उन्हें पुलिस कोई बहुत गंभीरता से नहीं लेती जिसका नतीजा यह होता है कि दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं हो पाती है ।
नारी स्वतंत्रता और उनके विकास के लिए देखे जा रहे सपनों पर छेडछाड़ की घटनाएं कई सवाल खडे कर देती हैं । क्या वर्तमान सामाजिक परिवेश नारियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने में सहायक है? क्यों आज नारी पुरुष के समान निर्भीक होकर सडक पर विचरण नहीं कर पाती है? क्यों आशंकाओं से मुक्त होकर निडरता के साथ नौकरी नहीं कर पाती? क्यों उसे नारी होने के कारण उत्पीडऩ और त्रासदीपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है? इस सवालों पर वैचारिक मंथन करके इनके जवाब तलाश करने होंगे । तभी स्त्री विमर्श सार्थक आकार ले पाएगा ।
दरअसल, आज छेड़छाड़ की समस्या बहुत गंभीर हो गई है । कई लडकियों को छेडछाड़के डर से स्कूल-कॉलेज जाना मुश्किल हो जाता है । महिलाओं को कार्यस्थल पर रहना ही जब त्रासदीपूर्ण लगने लगेगा तो वह रोजगारन्मुखी परिणाम कैसे दे पाएंगी? छेडछाड़ को लेकर जातीय तनाव भी पैदा होने लगा है और हिंसक घटनाएं भी हुई हैं । छेडछाड़ से त्रस्त किशोरी के आत्महत्या कर लेने की दिल दहला देने वाली घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में छेडछाड़ करने पर सख्त सजा देने का प्रावधान करना जरूरी है । बड़ी सजा न होने से छेडछाड़ करने वालों के हौसले बुलंद रहते हैं । इसके लिए पुलिस को भी ऐसे मामलों को गंभीरता से लेना चाहिए । लडकियों और महिलाओं को भी जूडो कराटे जैसे रक्षात्मक प्रशिक्षण हासिल करने चाहिए । अभिभावकों को लडकियों के आत्मविश्वास को मजबूत करने के लिए ऐसे प्रशिक्षण दिलाने में उनकी मदद करनी चाहिए । तभी महिलाएं और लडकियां निर्भीक होकर विकास में अपना योगदान दे पाएंगी । अपने सपनों में कामयाबी के रंग भरकर जीवन को सुंदर बना पाएंगी ।
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Wednesday, September 17, 2008
महिला संबंधी अपराधों के लिए जिम्मेदार केौन
े वैश्वीकरण से बदले परिदृश्य और आधुनिकता की बयार ने महिलाओं की महत्वाकांक्षाओं और सपने में नए रंग भर दिए हैं । इसीलिए आज महिलाएं घर की दहलीज से निकलकर जिंदगी के रंगमंच पर विविध क्षेत्रों में प्रभावशाली भूमिका निभा रही हैं । रोजगार का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहां महिलाएं अपना योगदान न दे रही हो ं। कल्पना चावला, इंदिरा नूई, सानिया मिर्जा जैसी अनेक प्रतिभाओं ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाकर देश का नाम रोशन िकया है। लेकिन इस सबके बावजूद देश में महिलाओं के साथ ऐसी घटनाएं होती हैं जो उनके आत्मविश्वास को कमजोर कर देती हैं ।
पूरे देश में महिला संबंधी अपराधों की स्थिति बडी चिंताजनक है । छेडछाड़, बलात्कार, अपहरण, दहेज उत्पीडऩ, घरेलू हिंसा और तस्करी की बढती घटनाएं महिला जीवन की त्रासदी को उजागर करती हैं। इन अपराधों के कारण बडी संख्या में महिलाओं को शर्मनाक स्थितियों का सामना करना पडता है। इन घटनाओं के कारण कई बार महिलाएं अपनी प्रतिभा का देश और समाज के लिए पूर्ण योगदान नहीं दे पाती हैं।
नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष २००६ में बलात्कार की १९३४८, महिलाओं और लडकियों के अपहरण की १७४१४, यौन उत्पीडऩ की ९९६६ तथा पति और परिजनों की क्रूरता का े शिकार होने की ६३१२८ मामलों की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज की गईं। देश की राजधानी दिल्ली में ही जनवरी से अप्रैल २००८ के मध्य बलात्कार के १२१ मामले प्रकाश में आए । वर्ष १९७१ में बलात्कार के २४८७ मामलेे दर्ज किए गए थे । वर्ष २००६ तक इनमें ६७८ प्रतिशत की वृद्धि हो गई । महिला अस्मिता से खिलवाड़ की ये लगातार बढ़रही घटनाएं देश और समाज के लिए बेहद शर्मनाक हैं । बड़ी संख्या में महिलाओं से छेडछाड की घटनाएं होती हैं जिनमें से अनेक की तो पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती है। स्कूल और कार्यस्थलों पर जाती अनेक लडकियों और महिलाओं को मनचलों की अभद्र टिप्पणियों का शिकार होना पडता है। विरोध करने पर उनके ऊपर तेजाब डालने जैसी घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में सहज ही यह सवाल उठता है कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन है? इन घटनाओं को कैसे रोका जाए?
वास्तव में किसी भी समाज का विकास नारी शक्ति के सहयोग के बिना संभव नहीं है । इसके लिए जरूरी है कि उन्हें निर्भीक होकर सम्मानसहित जीवनयापन के अवसर मिलें । आज जरूरी है कि लडकियों को पढाई के साथ ही कैरियर बनाने के लिए अच्छा माहौल मिले । जीवनसाथी चुनने की आजादी मिले । सडकों पर वह बेखौफ गुजर सकें । विकास के लिए सुरक्षित सामाजिक परिवेश होना आवश्यक है। दहशत के बीच तरक्की के सपनों में रंग नहीं भरे जा सकते हैं । इसलिए पुलिस को महिला संबंधी घटनाओं पर सख्ती से अंकुश लगाना होगा । जनसाधारण को इसमें सहयोग देना होगा। सम्मान से जीना हर लडकी का अधिकार है लेकिन इसके साथ ही उन्हें अपनी वेशभूषा, हावभाव और रहन सहन पर भी पूरा ध्यान देना चाहिए । उनमें संस्कारों की झलक दिखाई दे, संस्कारहीनता से उपजी मानसिकता नहीं । साथ ही असामाजिक तत्वों से निपटने के लिए प्रशिक्षण भी पाना चाहिए । ऐसा होने पर ही महिलाएं अपने सपनों को पूरा कर पाएंगी ।
पूरे देश में महिला संबंधी अपराधों की स्थिति बडी चिंताजनक है । छेडछाड़, बलात्कार, अपहरण, दहेज उत्पीडऩ, घरेलू हिंसा और तस्करी की बढती घटनाएं महिला जीवन की त्रासदी को उजागर करती हैं। इन अपराधों के कारण बडी संख्या में महिलाओं को शर्मनाक स्थितियों का सामना करना पडता है। इन घटनाओं के कारण कई बार महिलाएं अपनी प्रतिभा का देश और समाज के लिए पूर्ण योगदान नहीं दे पाती हैं।
नेशनल क्राइम रेकार्ड ब्यूरो के अनुसार वर्ष २००६ में बलात्कार की १९३४८, महिलाओं और लडकियों के अपहरण की १७४१४, यौन उत्पीडऩ की ९९६६ तथा पति और परिजनों की क्रूरता का े शिकार होने की ६३१२८ मामलों की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज की गईं। देश की राजधानी दिल्ली में ही जनवरी से अप्रैल २००८ के मध्य बलात्कार के १२१ मामले प्रकाश में आए । वर्ष १९७१ में बलात्कार के २४८७ मामलेे दर्ज किए गए थे । वर्ष २००६ तक इनमें ६७८ प्रतिशत की वृद्धि हो गई । महिला अस्मिता से खिलवाड़ की ये लगातार बढ़रही घटनाएं देश और समाज के लिए बेहद शर्मनाक हैं । बड़ी संख्या में महिलाओं से छेडछाड की घटनाएं होती हैं जिनमें से अनेक की तो पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती है। स्कूल और कार्यस्थलों पर जाती अनेक लडकियों और महिलाओं को मनचलों की अभद्र टिप्पणियों का शिकार होना पडता है। विरोध करने पर उनके ऊपर तेजाब डालने जैसी घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में सहज ही यह सवाल उठता है कि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार कौन है? इन घटनाओं को कैसे रोका जाए?
वास्तव में किसी भी समाज का विकास नारी शक्ति के सहयोग के बिना संभव नहीं है । इसके लिए जरूरी है कि उन्हें निर्भीक होकर सम्मानसहित जीवनयापन के अवसर मिलें । आज जरूरी है कि लडकियों को पढाई के साथ ही कैरियर बनाने के लिए अच्छा माहौल मिले । जीवनसाथी चुनने की आजादी मिले । सडकों पर वह बेखौफ गुजर सकें । विकास के लिए सुरक्षित सामाजिक परिवेश होना आवश्यक है। दहशत के बीच तरक्की के सपनों में रंग नहीं भरे जा सकते हैं । इसलिए पुलिस को महिला संबंधी घटनाओं पर सख्ती से अंकुश लगाना होगा । जनसाधारण को इसमें सहयोग देना होगा। सम्मान से जीना हर लडकी का अधिकार है लेकिन इसके साथ ही उन्हें अपनी वेशभूषा, हावभाव और रहन सहन पर भी पूरा ध्यान देना चाहिए । उनमें संस्कारों की झलक दिखाई दे, संस्कारहीनता से उपजी मानसिकता नहीं । साथ ही असामाजिक तत्वों से निपटने के लिए प्रशिक्षण भी पाना चाहिए । ऐसा होने पर ही महिलाएं अपने सपनों को पूरा कर पाएंगी ।
Monday, September 15, 2008
भाषाओँ के बंद दरवाजे खोलें
ज्ञान के विस्तार के लिए सभी भाषाओं के प्रति सम्मान जरूरी है । जीवन के विविध क्षेत्रों में आगे बढऩे का सफर अब केवल एक़ही भाषा के सहारे पूरा नहीं किया जा सकता है । पूरी दुनिया में हिन्दी का जो विस्तार हो रहा है, उसके पीछे विदेशियों का भारतीय भाषाओं के प्रति उत्पन्न रुझान भी एक बड़ी वजह है । आज विश्व में ज्ञान के नित नए क्षेत्र विकसित हो रहे हैं । वैश्वीकरण के इस दौर में इन नए क्षेत्रों में कदम रखने के लिए भाषिक विविधता की महत्ता को समझना होगा और अन्य भाषाओं में भी संवाद करना होगा । अपनी मानसिकता को संकीर्णता से मुक्त करते हुए भाषा केे दृष्टिकोण को विकसित करना होगा । सीमाओं से मुक्त होकर ज्ञान के आदान-प्रदान के लिए खुद को तैयार करना होगा । भाषा को लेकर संकीर्ण मानसिक दायरा बना लेना अच्छा संकेत नहीं है । भविष्य की चुनौतियों के संदर्भ में स्वयं का परिष्कार करना होगा । ज्ञानके रास्ते और भाषाओं के सहारे भी खुलते हैं, यह हम नकार नहीं सकते हैं। हम दुनिया के किसी भी देश में जाएं, अगर अपने ज्ञान को बांटना है तो वहां के लोगों की ही भाषा में ही संवाद करना होगा । तभी हम अपनी भाषा गौरव पताका विदेश में भी फहरा पाएंगे । आज अगर लंदन, अमेरिका, मारीशस और फिजी से हिन्दी भाषा में पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, तो केेवल इसलिए कि पहले हम वहां केे लोगों को उनकेी भाषा में भारतीय भाषा से साक्षातकार कराते हैं । यही वजह है कि अनेक विदेशी विद्वानों ने भारतीय भाषाओं में साहित्य सृजन और अनुवाद किया है । यानी हमें भाषा को लेकर संकीर्ण मानसिकता त्यागनी होगी । भाषा को लेकर कोई विवाद को स्थिति भी नहीं होनी चाहिए ।
अंग्रेज जब इस देश में आए थे तो सबसे पहली चोट उन्होंने भाषा पर ही की थी । उन्होने भारतीय भाषाओं केे प्रति हेय दृष्टिकोण पैदा करने के लिए साजिश केे तहत यहां अंग्रेजी को प्रतिष्ठित कर दिया । अंग्रेजी जानने वालों को उच्च पदों पर आसीन किया । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय भाषाएं स्वत: गौण हो गईं और महत्ता खोने लगी । धीरे-धीरे अंग्रेजी का वर्चस्व कायम होता चला गया । आजादी केे बाद विकास की जो हवा चली, उसमें अंग्रेजी उच्च वर्ग के सिर चढकर बोलने लगी । नतीजा पब्लिक स्कूलों की बाढ़आ गई और अभिजात्य वर्ग में अंग्रेजी का दबदबा बढ़ गया । अंग्रेजी के सामने खडी हिन्दी की भी महत्ता प्रभावित हुई । लेकिन राजभाषा घोषित कर देने से हिन्दी की स्थिति मजबूत हुई । बाजारवाद के दबाव ने हिन्दी को सबसे मजबूत भाषा के रूप में उभरने का मौका दिया । भारत में आज सर्वाधिक अखबार हिन्दी में प्रकाशित हो रहे हैं । बड़ी संख्या में हिन्दी टेलीविजन चैनल देखे जा रहे हैं । रेडियो के हिन्दी चैनल खूब लोकप्रिय हो रहे हैं। हिन्दी फिल्में पूरी दुनिया में देखी जा रही हैं । कई हिन्दी फिल्मों के प्रीमियर तो विदेशों में पहले हुए, बाद में वे देश में दिखाई गईं । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढाई जा रही है । हिन्दी की स्वीकार्यता को देखते हुए अन्य भाषाओं के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण उदार होना चाहिए । वैश्वीकरण के े दौर में बदलते परिïवेश और विकास की नई ऊंचाइयां छूने के लिए यह जरूरी भी है।
अंग्रेज जब इस देश में आए थे तो सबसे पहली चोट उन्होंने भाषा पर ही की थी । उन्होने भारतीय भाषाओं केे प्रति हेय दृष्टिकोण पैदा करने के लिए साजिश केे तहत यहां अंग्रेजी को प्रतिष्ठित कर दिया । अंग्रेजी जानने वालों को उच्च पदों पर आसीन किया । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय भाषाएं स्वत: गौण हो गईं और महत्ता खोने लगी । धीरे-धीरे अंग्रेजी का वर्चस्व कायम होता चला गया । आजादी केे बाद विकास की जो हवा चली, उसमें अंग्रेजी उच्च वर्ग के सिर चढकर बोलने लगी । नतीजा पब्लिक स्कूलों की बाढ़आ गई और अभिजात्य वर्ग में अंग्रेजी का दबदबा बढ़ गया । अंग्रेजी के सामने खडी हिन्दी की भी महत्ता प्रभावित हुई । लेकिन राजभाषा घोषित कर देने से हिन्दी की स्थिति मजबूत हुई । बाजारवाद के दबाव ने हिन्दी को सबसे मजबूत भाषा के रूप में उभरने का मौका दिया । भारत में आज सर्वाधिक अखबार हिन्दी में प्रकाशित हो रहे हैं । बड़ी संख्या में हिन्दी टेलीविजन चैनल देखे जा रहे हैं । रेडियो के हिन्दी चैनल खूब लोकप्रिय हो रहे हैं। हिन्दी फिल्में पूरी दुनिया में देखी जा रही हैं । कई हिन्दी फिल्मों के प्रीमियर तो विदेशों में पहले हुए, बाद में वे देश में दिखाई गईं । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढाई जा रही है । हिन्दी की स्वीकार्यता को देखते हुए अन्य भाषाओं के प्रति भी हमारा दृष्टिकोण उदार होना चाहिए । वैश्वीकरण के े दौर में बदलते परिïवेश और विकास की नई ऊंचाइयां छूने के लिए यह जरूरी भी है।
Friday, September 12, 2008
अब बदलिए हिन्दी दिवस मनाने का उद्देश्य
े पूरी दूनिया में हिन्दी के लिए जो स्िथतियाँ बन रही हैं, वह काफी सुखद हैं । आज भारत में सबसे ज्यादा हिन्दी अखबार पढ़े जा रहे हैं । सबसे ज्यादा हिन्दी टेलीिविज़न चैनल देखे जा रहे हैं । लोकप्रिय हो रहे एफएम रेडियो चैनल भी हिन्दी में हैं । हिन्दी बोलने वालों की संख्या भी लगातार बढती जा रही है । बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी में ब्लॉग लिखे जा रहे हैं । सरकारी कामकाज में भी हिन्दी का प्रयोग बढ़ा है । बाजारवाद के दबाव में एक बडे वर्ग का हिन्दी को अपनाना मजबूरी है । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है । विदेशों से अनेक हिन्दी पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है । हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था । लेकिन मौजूदा स्िथतियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि हिन्दी दिवस मनाने का यह उद्देश्य तो काफी कुछ हद तक पूरा हो चुका है । हिन्दी का प्रयोग बढने के साथ ही अब उसके समक्ष कुछ संकट भी पैदा हो गए । इसलिए अब हिन्दी दिवस मनाने का उद्देश्य बदल लेना चाहिए । आज विविध जनसंचार माध्यमों में जिस हिन्दी का प्रयोग किया जा रहा उसमें तमाम अशिुद्धयां हैं । मीडिया का व्यापक प्रभाव होने के कारण ं आम जनता भी हिन्दी के इसी रूप को ग्रहण कर रही है । आज जो बोली जा रही है उसमें अशिुद्धयों कि भरमार होती है । व्याकरण दोष भी रहता है । यह सिलसिला नहीं रुका तो इस महान भाषा के स्वरुप का ही संकट पैदा हो जाएगा । इसलिए जरूरी है कि अब हिन्दी भाषा के मूल स्वरुप की रक्षा के लिए हिन्दी दिवस मनाया जाना चाहिए । हिन्दी दिवस पर शुद्ध हिन्दी बोलने और लिखने का संकल्प लेना चाहिए । शुद्ध हिन्दी से आशय भाषा के क्लिष्ट रूप से नहीं है । दूसरी भाषाओँ के अनेक शब्दों को हिन्दी ने इस तरह आत्मसात कर लिया है कि वे अब हिन्दी के ही लगते हैं । उनसे भी कोई परहेज नहीं है । हाँ, यह जरूर होना चाहिए कि हिन्दी के शुद्ध रूप में ही शब्दों को लिखा और बोला जाए । एक शब्द जब कई तरीके से लिखा और बोला जाने लगता है तब कई लोगों के समक्ष भ्रम पैदा हो सकता है । खास तौर से बच्चों के समक्ष यह एक बडे संकट का रूप ले लेता है । एक ही शब्द जब कई अखबारों में अलग अलग तरह से छपता है तो उन्हें यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा शब्द सही है । इसलिय हिन्दी को प्रभावशाली बनाये रखने के लिए इसके मूल रूप कि रक्षा जरूरी है । अब हिन्दी दिवस पर हमें इसी ओर धयान देना चाहिए ।
Wednesday, September 10, 2008
उफ़! इतनी दहेज़हत्याएँ
राष्ट्रिय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के ताजा आंकडों के मुताबिक देश में हर रोज करीब १४ महिलाएं दहेज़की भेंट चढ़जाती हैं । बीते १२ सालों में दहेज़उत्पीडन के मामलों में १२० फीसदी बढोतरी हुई है । कड़े कानून और सरकार की तमाम कोशिशें दहेज सम्बन्धी अपराधों को रोकने में विफल रही हैं । किसी भी सभ्य समाज के माथे पैर दहेज़हत्याएँ और उत्पीडन की घटनाएँ कलंक के समान होती हैं । भारत में विकास की गति तेज है, शिक्षा का भी विस्तार हुआ है, आर्थिक समृधि भी आई है, महिलायें आत्मनिर्भर भी बनी हैं, दहेज़सम्बन्धी कानूनों में भी सुधार किया गया है, फिर क्यों ़दहेज सम्बन्धी अपराध नहीं रुक पा रहे हैं ? यह एक बडा सवाल है जिस पर विचार करना जरूरी है । इस सवाल के जवाब तलाशने होंगे । दरअसल तमाम विकास के बावजूद भारतीय समाज परम्परावादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है । यही वजह है कि मोटे तौर पर आज भी न तो पुरुषों को और न महिलाओं को दहेज लेने या देने में कुछ गलत दिखाई देता है । मानसिक रूप से दहेज कि स्वीकार्यता ही इस गंभीर समस्या को खत्म नहीं होने देती । हाँ, जब कोई अपना दहेज सम्बन्धी अपराध का शिकार बनता है, तब जरूर दहेज प्रथा को गलत बताकर इसकी आलोचना करते हैं । दहेज प्रथा सामाजिक सम्बन्धों पर असर डालती है । रिश्तों पर से भरोसा कम करती है, इसलिए जरूरी है कि इस समस्या का हल निकाला जाए । इसके लिए व्यापक दृष्टिकोण से सोचने कि जरूरत है। नई पीढी को खास तौर से इस कुप्रथा के खात्मे के लिया आगे आना चाहिए । अगर नई पीढी दहेज़प्रथा मिटाने का संकल्प ले ले, तो काफी हद तक समस्या का समाधान सम्भव है ।
Friday, September 5, 2008
शिक्षकों का दयिएतव बढा
मौजूदा दौर में शिक्षकों का दाियत्व और बढ़ गया है । बेहतर शिक्षा देने के साथ ही उन्हें विद्यार्थियों को भविष्य की संभावनाओं के अनुरूप तैयार करना होगा । गुरुकुल तो नहीं रहे लेकिन गुरुकुल परंपरा की अच्छी बातों को जीवित रखना होगा । आज अनेक उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थी हैं, शिक्षक हैं, लैब हैं, विशाल भवन हैं, पुस्तकालय हैं लेकिन पढ़ाई का माहौल नहीं है । इन शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का माहौल शिक्षक ही बना सकते हैं । शिक्षा के मंदिरों में अब ऐसे तत्व भी प्रवेश कर गए हैं जो विद्यार्थियों में भटकाव पैदा कर देते हैं । इस भटकाव से बचाकर विषम परिस्थित में अगर कोई शिक्षा दे सकता है तो वह गुरु ही है । आज बच्चों में शिक्षा, कैरियर और भविष्य को लेकर काफी चिंता रहती है । कई बार माता पिता भी उन पर अपनी इच्छा थोप देते हैं । ऐसे में उम्मीदें पूरी न कर पाने पर उनमें निराशा पैदा होती है और आत्मविश्वास घट जाता है । शिक्षकों का दाियत्व है, वे उन्हें आत्मविश्वास से इतना मजबूत कर दें की उनमें कभी निराशा ही पैदा न होने पाए । कैरियर को लेकर भी उचित मार्गदर्शन करें । ऐसा होने पर ही नई पीढी अपनी जिंदगी के सपनों में रंग भर पायेंगे ।
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