Friday, September 26, 2008

कहीं आतंकी तो कहीं अपराध, कैसे बढे पर्यटन

आज २७ सितंबर ो विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है । पूरी दुनिया में पर्यटन ो बढावा देने मकसद से आज के दिन अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं । इस बात पर विचार किया जाता है कि कैसे पर्यटन को बढावा दिया जाए । भारत पर्यटकों के लिए बडा मनोरम स्थल रहा है । यह ऐसा देश है जहां पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए सभी प्रकार के स्थल मौजूद हैं । यहां गोवा, मुंबई, चेन्नई, पांडिचेरी जैसे समुद्रतट, ताजमहल जैसी प्रेम प्रदर्शन की बेमिसाल खूबसूरत इमारत, ऊटी, कोडाईकनाल, शिमला, नैनीताल, मसूरी आदि मनमोहक पर्वतीय स्थल, कुतुबमीनार, लालकिला, हवामहल, आमेर का किला समेत अनेक ऐतिहासिक इमारतें, मीनाक्षी मंदिर, तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी, रामेश्वरम, जगन्नाथपुरी, द्वारिकापुरी, बद्रीनाथ जैसे व्यापक आस्था का केंद्र बने तीर्थस्थल, द्वादश ज्योर्तिलिंग का गौरव सहेजे पावनस्थल, हरिद्वार, इलाहाबाद, नासिक जैसे पावन नदियों के तट मौजूद हैं । भारत विविध संस्कृतियों का संगम है । इन सभी कारणों से विदेशियों के मन में भारत को देखने की गहरी इच्छा रहती है । इसीलिए भारत में पर्यटन की अपार संभावनाएं हैं
इन सब स्थितियों के बावजूद िवश्व में भारत की पर्यटन की दृष्टि से स्थिति संतोषजनक नहींहै । वर्ष २००७ में विश्व में पर्यटकों को लुभाने वाले स्थलों में ताजमहल ५०वें स्थान पर है । वर्ष २००६ में पर्यटकों की नजर में सबसे ज्यादा लोकप्रिय १५ नगरों में भारत का कोई शहर नहीं है । ये तथ्य इस बात पर मंथन करने केलिए विवश करते हैं कि कैसे भारत में पर्यटन का विकास किया जाए ? क्या वजह है कि भारत में पर्यटकों की संख्या उतनी नहीं होती जितनी अपेक्षित है ? क्या प्रयास किए जाएं कि भारत में पर्यटन की तस्वीर बदल जाए ?ं पर्यटकों की आमद को कैसे बढाया जाए ?
दरअसल, पर्यटन को विकसित करने के लिए देश में शांति, सुरक्षा और अपराध मुक्त वातावरण जरूरी है । पर्यटक पहले सुरक्षा चाहता है, बाद में दर्शनीय स्थल । उसे धन और जान-माल की सुरक्षा का मजबूत भरोसा चाहिए । भारत में निरंतर बढ़ रही आतंकवादी गतिविधियां, विविध प्रकार के खौफनाक अपराध, जनसुविधाओं का अभाव, बिजली आपूर्ति, सडकों और यातायात साधनों की खस्ताहालत विदेशी पर्यटकों का मोहभंग कर देती है । महिला पर्यटकों के साथ छेडछाड़, बलात्कार और लूटपाट की घटनाओं ने भी पर्यटन को प्रभावित किया है । कई ऐसे स्थल भी हैं जहां पर्यटकों की गैरजानकारी का लाभ उठाकर उनसे अधिक पैसा वसूला जाता है । कई बार पर्यटकों के साथ अभद्र व्यवहार भी किया जाता है । यह सब ऐसे कारण हैं, जो पर्यटकों को भारत आने से रोकते हैं ।
इसलिए जरूरी है कि ऐसा माहौल बनाया जाए जिससे पर्यटक भारत आने के लिए लालायित हों । जिन स्थानों पर पर्यटन का विकास होता है, वहां आर्थिक समृद्धि आती है । अनेक बेरोजगारों को रोजगार मिलता है । होटल, रेस्टोरेंट और टे्रवल कंपनियों की आमदनी बढती है । उन्नति का परिणाम यह होता है कि वे अपराध अपने आप घटने लगते हैं जिनके पीछे कुछ आर्थिक कारण होते हैं । पर्यटन के नए स्थल विकसित करने से उनकी आर्थिक तसवीर बदलने की पूरी संभावना रहती है । भारत की संस्कति का विस्तार होता है । इस सब बातों को ध्यान में रखते हुए जरूरी है कि पर्यटन के े विकास पर ध्यान दिया जाए । सरकार और जनता मिलकर आतंकवाद और अपराधों पर अंकुश लगाएं। देश में पर्यटकों के लिए सुविधाएं बढाई जाएं ताकि उन्हें कोई असुविधा न हो । वह निर्भीक पूरे देश के मनमोहक स्थलों पर विचरण कर सकें । ऐसा होने पर विदेशी मुद्रा की आवक बढेगी और देश की आर्थिक उन्नति होगी ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )

Wednesday, September 24, 2008

महापुरुषों का यह कैसा सम्मान ?

मंगलवार ो जम्मू े मुबार मंडी ांप्लेक्स में राष्टï्रपिता महात्मा गांधी ी प्रतिमा े गले में रस्सी बांधर रोशनी े लिए लाइट लटा दी गई । ए समारोह ी तैयारियों में जुटे टेंट हाउस के र्मचारी बापू ी प्रतिमा पर चढ़ गए । उनंधे और सिर पर पैर भी रखे गए । उफ ! महापुरुषों ी प्रतिमाओं ी यह दशा । समझ में नहीं आता ि जब हम प्रतिमाओं ा पूरा सम्मान ही नहीं र पा रहे हैं तो फिर उन्हें स्थापित रने से क्या लाभ? पूरे देश में जगह-जगह महापुरुषों ी प्रतिमाएं लगी हुई हैं । ई स्थानों पर देखरेख े अभाव में प्रतिमाएं गंदगी से घिरी रहती हैं । उनी सफाई ी भी ोई व्यवस्था नहीं होती । विचार रना होगा ि इस हालत में प्रतिमाएं पूरे देश े लिए क्या संदेश देंगी ?
पूरी दुनिया में महापुरुषों ी प्रतिमाएं लगाई जाती हैं । भारत में भी बडी संख्या में महापुरुषों ी प्रतिमाएं स्थापित हैं । ोई शहर ऐसा नहीं जिसमें प्रतिमाएं न हों । प्रतिमा स्थापित रने े पीछे मंशा यह होती है ि समाज इनके आदर्शों से प्रेरणा ले । इन महापुरुषों े बताए मार्ग पर चलर समाज और देश े विास में योगदान दे । इसके लिए जरूरी है ि प्रतिमा स्थापना े बाद इनकी सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए । प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी तो ैसे दूसरों े लिए प्रेरणा जागृत र पाएंगी । अने प्रतिमाएं खुले में लगी हैं और मौसम ा मिजाज उने रंग-रूप ो बदरंग र देता है । ई बार उनी सुरक्षा न होने से भी अपमानजन स्थिति बन जाती है । ऐसे में यह सुनिश्चित रना होगा ि ैसे महापुरुषों ी प्रतिमाओं े सम्मान ी रक्षा ी जाए? उनी देखरेख ी भी पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए । सुरक्षा और देखरेख ी जिम्मेदारी िसी होगी, यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित िया जाना चाहिए ।
महापुरुषों े जन्मदिवस ो भी पूरे देश में मनाया जाता है और इस दिन अवाश भी दिया जाता है ताि हम उने व्यक्तित्व और ृतित्व पर विचार रें । उने राष्ट्रहित में िए गए ार्यों ो याद रें । लेिन इस अवाश े मायने भी अब बदलने लगे हैं । ुछ संस्थाओं में ही महापुरुषों के े जन्मदिवस पर महज औपचारि ार्य्रम होते हैं । अवाश पर लोगों ो महापुरुष याद आने के े बजाय दूसरे ाम या ार्य्रम याद आते हैं और वह उनमें व्यस्त रहते हैं ।
महापुरुषों े जीवन े विविध पक्ष नई पीढ़ी े लिए सदैव प्रेरणा ा माध्यम रहे हैं । इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों ो महापुरुषों े संस्मरण सुनाया रते थे । अब एल परिवार में बच्चों ो यह संस्समरण वाचि परंपरा से सुनने ो नहीं मिल पाते । महापुरुषों ी जीवनियां सिर्फ पाठ्य्रमों में ही उन्हें पढऩे ो मिल पाती हैं क्योंि पुस्त खरीदने ी प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है ? इस स्थिति में महापुरुषों के विषय में बहुत म जानारी बच्चों ो मिल पाती है । हमें विचार रना होगा ि बच्चे ैसे महापुरुषों े जीवन से जुडे विविध प्रसंगों से अवगत हों पाएंगे ?
समाज में जिस तरह से नैति पतन ी स्थितियां दिखाई दे रही हैं, जीवन मूल्यों ा अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटाव ी स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्ृति मान्यताओं और परंपराओं से खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों े विचारों और आदर्शों ा प्रचार प्रसार रना होगा तभी समाज सही दिशा में चल पाएगा ।

Monday, September 22, 2008

संस्कृत को समृद्ध नहीं करेंगे तो संस्कृति कैसेे बचेगी?

संस्कृत सभी भारतीय भाषाओं की जननी है । देववाणी है, व्याप क्षेत्र में निवास र रहे जनमानस ी आस्था ा प्रती है । तमाम भारतीय पौराणि ग्रंथों ी रचना संस्कृत में हुई है, इसलिए इस भाषा े प्रति ए धार्मि श्रद्धा ा भी भाव है । भारतीय संस्कृति में हिंदू धर्म केे अनुयायियों े जन्म, विवाह से लेर मृत्यु त े तमाम र्मांड संस्कृत में ही संपन्न होते हैं । इस कारण इस भाषा े प्रति व्याप आदरभाव और भक्ति ी सीमा त ी अटूट आस्था है । भारतीय जनमानस ो सदियों से संजीवनी प्रदान र रहे वेदों ी ऋचाएं, भारतीय जीवन-दर्शन ा दर्पण श्रीमद्भगवद्गीता े श्लो और सभी पौराणि ग्रंथ संस्कृत में ही हैं । योग, ध्यान, भारतीय दर्शन और आयुर्वेद विदेशियों ो आर्षित रते हैं और इन विषयों से जुडी अने जानारियां संस्कृत में ही हैं । संस्कृत ी वैश्वि महत्ता भारतवासियों े लिए गौरव ा विषय भी है ।
विदेशों में भारतीय पुरोहितों, संस्कृत े विद्वानों और र्मांडी पंडितों ी मांग बढ़ी है । देश ी सीमाओं ो पार े जिन भारतवासियों ने विदेशों में अपना बसेरा बनाया है, उने लिए वहां संस्ार-र्म राने े लिए पंडितों ी जरूरत होती है । ऐसे में विदेश में संस्कृत ी पताा गर्व के साथ फहराने लगी है । लेिन यही अंतिम सत्य नहीं है ।
सच यह है ि आधुनि भारत में संस्कृत े विास े लिए उस तरह ाम नहीं हुआ, जैसा होना चाहिए था । संस्कृत पढऩे वालों े लिए न रोजगार े श्रेष्ठ अवसर उपलब्ध राए गए और न ही उसे प्रचार-प्रसार े लिए ठोस तरीे से ाम िए गए । जो संस्कृत विद्यालय देश में चल रहे हैं, उनी भी अपनी तमाम समस्याएं हैं । हीं अध्यापों ो वेतन नहीं है तो हीं भवन जर्जर पडे हैं । संस्कृत विद्यालयों ा आधुनिरण नहीं हुआ है । संस्कृत े विास े लिए गठित संस्थाएं आर्थि संट से गुजर रही हैं । संस्कृत पठन पाठन में भïिवष्य ी संभावनाएं घटने ारण उससे विद्यार्थियों ा मोहभंग हो रहा है ।
ऐसी हालात में जरूरी है ि संस्ृत ो प्रतिष्ठित रने और इस भाषा में डिग्री पाने वालों ो तरक्की े नए रास्ते खोलने े लिए ठोस दम उठाए जाएं । मौजूदा दौर में विषय ोई भी पढें लेिन ामाज में ंप्यूटर ए अनिवार्य जरूरत बन गया है । अधितर ंप्यूटरों पर अंग्रेजी में ाम िया जाता है । इसलिए संस्ृत े साथ ही अंग्रेजी ी जानारी अगर होगी तो और ैरियर संवारने में मदद ही मिलेगी । संस्कृत ी पढाई े साथ ंप्यूटर ी भी शिक्षा दी जाए ताि संस्कृत े विद्यार्थी आधुनि युग ी जरूरतों े अनुसार रोजगारोन्मुखी परिणाम दे सें । साथ ही ए अन्य भाषा ो सीखना भी उने लिए अनिवार्य र दिया जाए ताि वह उस भाषा क्षेत्र में संस्कृत ी महत्ता ो रेखांित र सें ।
संस्कृतसाहित्य ा अन्य भाषाओं में अनुवाद भी बडी संख्या में सुलभ राया जाना चाहिए । इससे उपभोक्तावादी इस युग में दूसरी भाषा े लोग संसृत ी महत्ता से परिचित होंगे । इसा लाभ संस्कृत से जुडे लोगों ो मिलेगा । संस्कृत ो पुराना गौरव वापस मिल गया तो भारतीय संस्कृति ी जडें और मजबूत होंगी । साथ ही भारतीय संस्कृति ो दुनिया में और विस्तार मिलेगा ।

Sunday, September 21, 2008

टूटते रिश्ते, दरकते संबंध

भारत ऐसा देश रहा है जहां सामाजि और पारिवारि संबंधों ो विशेष महत्व दिया जाता रहा है । रिश्तों ी आत्मीयता भारतीय संस्ृति में रची बसी है । भारतीय संस्ृति में जीवित होने पर ही नहीं बल्ि मृत्यु होने े बाद भी रिश्ते ा निर्वाह िया जाता है । यह संबंधों े प्रति लगाव ही है ि भारत में पूर्वजों ी आत्मा ी शांति के लिए पितृपक्ष पर तर्पण की परंपरा है । भारतवासियों को सदैव रिश्ते निभाने की गौरवशाली परंपरा पर गर्व रहा है । विदेशियों के लिए भी भारतीय संसकिरिति का यह पक्ष बडा आर्षित रता रहा है । लेिन पिछले ुछ समय से स्थितियां बदली है ।
भौतितावाद, उपभोक्तावाद, आधुनिरण, वैश्वीरण, बाजारवाद, बदलते जीवन मूल्यों, नैति मूल्यों के पतन, संयुक्त परिवार के विघटन और नित नए आार लेती महत्वाांक्षाओं ने व्यक्ति ी मानसिता ो गहराई से प्रभावित िया है । यही वजह है रिश्तों ी आत्मीयता में जो गरमाहट थी, वह ुछ म होने लगी है । सामाजि संबंधों में जो निटता थी, वह घटने लगी है । ई बार ऐसा लगता है ि मौजूदा समय में रिश्ते टूटने लगे हैं और संबंध दरने लगे हैं।
२० सितंबर ो बिजनौर जिले में ए व्यक्ति ने दो सगे भाइयों े साथ अपनी मां और १० वर्षीय पुत्री ी धारदार हथियारों से हत्या र दी । वजह थी सिर्फ १४ बीघा जमीन जो मां के नाम थी । यह जमीन बेेटे हथियाना चाहते थे । इस घटना े संदर्भ बडे व्याप हैं और पूरे समाज े सामने ई सवाल खडे रते है ं। क्या आज संपत्ति मां और पुत्री से ज्यादा महत्वपूर्ण होने लगी है? क्या समाज में हिंस प्रवृत्तियां अधि प्रभावशाली होने लगी हैं? क्या हम भारतीय संस्ृति के मूलभूत सिद्धांतों ो भूलने लगे हैं? इन सवालों पर विचार रना जरूरी है । अगर भारतीय समाज में संबंधों ी जडें़मजोर हुईं तो इसा असर सीधा संस्ृति पर पडेगा ।
दरअसल बदले भौतिवादी परिवेश ने संयुक्त परिवार ी अवधारणा ो बहुत गहराई से प्रभावित िया है । रोजगार े सिलसिले और स्वतंत्र रूप से जीवनयापन ी इच्छाओं ने एल परिवार ी परंपरा ो बढावा दिया । इसा परिणाम यह हो गया ि अब सिर्फ पति, पत्नी और बच्चों ो ही परिवार ा हिस्सा माना जाने लगा है । अन्य रिश्तों े प्रति लगाव घटता जा रहा है । उनमें परस्पर आत्मीयता भी घटती जा रही है । तीज त्योहारों और विवाह आदि अवसरों पर ही संयुक्त परिवार ी झल दिखाई देती है । पारिवारि सदस्यों में दूरियां बढऩे से परस्पर संबंधों में दरार पडऩे लगी । ऐसे में ई बार रिश्ता गौण और स्वार्थ प्रमुख हो जाता है ।
पहले आर्थि समृद्धि जिन रिश्तों ो जोडती थी आज उनमें ईष्र्या पैदा र रही है । ए भाई अगर अमीर है और दूसरा गरीब तो फिर उनमें रिश्तों ी आत्मीयता ी जगह ए खास िस्म ी दूरी महसूस ी जा सती है । भारतीय समाज और संस्ृति के लिए यह अच्छे संेत नहीं है ं। इस बदलाव ी अभिव्यक्ति भी अब विविध माध्यमों से होने लगी है । बागवान फिल्म में रिश्तों में आ रहे इस बदलाव ो बडी लात्मता के साथ परदे पर उतारा गया है । सचमुच बदलते परिवेश में अब बच्चे दादा-दादी े प्यार, ताऊ-ताई े दुलार से वंचित होने लगे हैं । अपनी जिद पूरी राने े लिए अब उन्हें चाचा-चाची नहीं मिल पाते हैं । बुआ-फूफा, मामा-मामी, मौसा-मौसी से भी खास मौे पर ही मुलाात हो पाती है । अब हानियां सुनाने े लिए उने पास बुजुर्ग होते ही नहीं है ं। इन स्थितियों पर वैचारि मंथन ी जरूरत है । हमें इस ओर ध्यान देना होगा । नई पीढ़ी ो रिश्तों ा अहसास राना होगा । ऐसे प्रयास रने होंगे जिससे सामाजि और पारिवारि रिश्ते मजबूत हों । रिश्तों ी आत्मीयता, संवेदनशीलता और प्रेम गहरा होगा, तभी समाज मजबूत होगा ।

Friday, September 19, 2008

छेड़छाड़ पर हो सख्त सजा

मेरठ में चलती बस में एविदेशी युवती से छेड़छाड़ ी गई । यह युवती भारत ी जिस छवि ो अपने मन में लेर यहां आई होगी, निश्चित रूप से वह जाते समय बदल गई होगी । दरअसल, छेडछाड़ ी घटनाएं लगातार बढती जा रही हैं, जिसा बडा व्याप असर समाज में दिखाई दे रहा है । आधा समाज आज आशंा, दहशत और तनाव े बीच जिंदगी ा सफर तय रता है। आज लडियों ो पढ़ाने े प्रति जागरूता आई है लेिन उना स्ूल आना जाना पूरी तरह सुरक्षित नहीं है । स्ूल आते जाते उन्हें मनचलों और शोहदों ी फब्तियों ा सामना रना पड़ता है । लडियां और महिलाएं घर ी दहलीज से निर रोजगार े विविध क्षेत्रों में योगदान दे रही हैं लेिन घर से दफ्तर त ा सफर महफूज नहीं है । बसों त में लडियों और महिलाओं े साथ छेडछाड़ होती ह ै। ार्यस्थल पर भी महिलाओं े साथ छेडछाड़ी घटनाएं सामने आती रहती हैं? छेडछाड़ ा भय महिलाओं ो हमेशा सताता रहता है । विरोध रने पर उने साथ मारपीट ी जाती है। मेरठ में तो छेडछाड़ ा विरोध रने पर लडियोंं पर तेजाब डालने ी भी घटनाएं हुई हैं ।
छेडछाड़ ी अने घटनाओं ा तो जि्र महिलाएं या लडियां शर्म ारण परिजनों त से नहीं रती हैं। इसा परिणाम यह होता है ि मनचले बेखौफ हो जाते हैं । जिन घटनाओं ी रिपोर्ट दर्ज राई जाती है, उन्हें पुलिस ोई बहुत गंभीरता से नहीं लेती जिसा नतीजा यह होता है ि दोषियों के खिलाफ सख्त ार्रवाई नहीं हो पाती है ।
नारी स्वतंत्रता और उने विास े लिए देखे जा रहे सपनों पर छेडछाड़ ी घटनाएं ई सवाल खडे र देती हैं । क्या वर्तमान सामाजि परिवेश नारियों के आत्मविश्वास ो मजबूत रने में सहाय है? क्यों आज नारी पुरुष े समान निर्भी होर सड पर विचरण नहीं र पाती है? क्यों आशंाओं से मुक्त होर निडरता े साथ नौरी नहीं र पाती? क्यों उसे नारी होने ारण उत्पीडऩ और त्रासदीपूर्ण स्थितियों ा सामना रना पड़ता है? इस सवालों पर वैचारि मंथन े इने जवाब तलाश रने होंगे । तभी स्त्री विमर्श सार्थार ले पाएगा ।
दरअसल, आज छेड़छाड़ ी समस्या बहुत गंभीर हो गई है । ई लडियों ो छेडछाड़े डर से स्ूल-ॉलेज जाना मुश्िल हो जाता है । महिलाओं ार्यस्थल पर रहना ही जब त्रासदीपूर्ण लगने लगेगा तो वह रोजगारन्मुखी परिणाम ैसे दे पाएंगी? छेडछाड़ ो लेर जातीय तनाव भी पैदा होने लगा है और हिंस घटनाएं भी हुई हैं । छेडछाड़ से त्रस्त िशोरी े आत्महत्या र लेने ी दिल दहला देने वाली घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में छेडछाड़ रने पर सख्त सजा देने ा प्रावधान रना जरूरी है । बड़ी सजा न होने से छेडछाड़ रने वालों े हौसले बुलंद रहते हैं । इसे लिए पुलिस ो भी ऐसे मामलों ो गंभीरता से लेना चाहिए । लडियों और महिलाओं ो भी जूडो राटे जैसे रक्षात्म प्रशिक्षण हासिल रने चाहिए । अभिभावों ो लडियों े आत्मविश्वास ो मजबूत रने े लिए ऐसे प्रशिक्षण दिलाने में उनी मदद रनी चाहिए । तभी महिलाएं और लडियां निर्भी होर विास में अपना योगदान दे पाएंगी । अपने सपनों में ामयाबी े रंग भरर जीवन ो सुंदर बना पाएंगी ।

Wednesday, September 17, 2008

महिला संबंधी अपराधों के लिए जिम्मेदार केौन

े वैश्वीकरण से बदले परिदृश्य और आधुनिकता ी बयार ने महिलाओं ी महत्वाांक्षाओं और सपने में नए रंग भर दिए हैं । इसीलिए आज महिलाएं घर ी दहलीज से निर जिंदगी े रंगमंच पर विविध क्षेत्रों में प्रभावशाली भूमिा निभा रही हैं । रोजगार ोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहां महिलाएं अपना योगदान न दे रही हो ं। ल्पना चावला, इंदिरा नूई, सानिया मिर्जा जैसी अने प्रतिभाओं ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनार देश ा नाम रोशन िया है। लेिन इस सबे बावजूद देश में महिलाओं े साथ ऐसी घटनाएं होती हैं जो उने आत्मविश्वास मजोर र देती हैं ।
पूरे देश में महिला संबंधी अपराधों ी स्थिति बडी चिंताजन है । छेडछाड़, बलात्ार, अपहरण, दहेज उत्पीडऩ, घरेलू हिंसा और तस्री ी बढती घटनाएं महिला जीवन ी त्रासदी ो उजागर रती हैं। इन अपराधों ारण बडी संख्या में महिलाओं ो शर्मना स्थितियों ा सामना रना पडता है। इन घटनाओं ारण ई बार महिलाएं अपनी प्रतिभा ा देश और समाज े लिए पूर्ण योगदान नहीं दे पाती हैं।
नेशनल ्राइम रेार्ड ब्यूरो े अनुसार वर्ष २००६ में बलात्ार ी १९३४८, महिलाओं और लडियों े अपहरण ी १७४१४, यौन उत्पीडऩ ी ९९६६ तथा पति और परिजनों ्रूरता का े शिार होने ी ६३१२८ मामलों की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज ी गईं। देश ी राजधानी दिल्ली में ही जनवरी से अप्रैल २००८ े मध्य बलात्ार े १२१ मामले प्राश में आए । वर्ष १९७१ में बलात्ार के २४८७ मामलेे दर्ज िए गए थे । वर्ष २००६ त इनमें ६७८ प्रतिशत ी वृद्धि हो गई । महिला अस्मिता से खिलवाड़ ी ये लगातार बढ़रही घटनाएं देश और समाज के लिए बेहद शर्मना हैं । बड़ी संख्या में महिलाओं से छेडछाड ी घटनाएं होती हैं जिनमें से अनेक ी तो पुलिस में रिपोर्ट भी दर्ज नहीं होती है। स्कूल और ार्यस्थलों पर जाती अने लडियों और महिलाओं ो मनचलों ी अभद्र टिप्पणियों ा शिार होना पडता है। विरोध रने पर उने ऊपर तेजाब डालने जैसी घटनाएं भी हुई हैं । ऐसे में सहज ही यह सवाल उठता है ि इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार ौन है? इन घटनाओं ैसे रोा जाए?
वास्तव में िसी भी समाज ा विास नारी शक्ति े सहयोग े बिना संभव नहीं है । इसे लिए जरूरी है ि उन्हें निर्भी होर सम्मानसहित जीवनयापन े अवसर मिलें । आज जरूरी है ि लडियों ो पढाई े साथ ही ैरियर बनाने े लिए अच्छा माहौल मिले । जीवनसाथी चुनने ी आजादी मिले । सडों पर वह बेखौफ गुजर सकें । विास े लिए सुरक्षित सामाजि परिवेश होना आवश्य है। दहशत े बीच तरक्े सपनों में रंग नहीं भरे जा सते हैं । इसलिए पुलिस ो महिला संबंधी घटनाओं पर सख्ती से अंुश लगाना होगा । जनसाधारण ो इसमें सहयोग देना होगा। सम्मान से जीना हर लडा अधिार है लेकिन इसे साथ ही उन्हें अपनी वेशभूषा, हावभाव और रहन सहन पर भी पूरा ध्यान देना चाहिए । उनमें संस्ारों ी झल दिखाई दे, संस्ारहीनता से उपजी मानसिता नहीं । साथ ही असामाजि तत्वों से निपटने े लिए प्रशिक्षण भी पाना चाहिए । ऐसा होने पर ही महिलाएं अपने सपनों ो पूरा र पाएंगी ।

Monday, September 15, 2008

भाषाओँ के बंद दरवाजे खोलें

ज्ञान के विस्तार के लिए सभी भाषाओं के प्रति सम्मान जरूरी है । जीवन के विविध क्षेत्रों में आगे बढऩे का सफर अब केवल एक़ही भाषा के सहारे पूरा नहीं िया जा सता है । पूरी दुनिया में हिन्दी ा जो विस्तार हो रहा है, उसे पीछे विदेशियों ा भारतीय भाषाओं के प्रति उत्पन्न रुझान भी ए बड़ी वजह है । आज विश्व में ज्ञान े नित नए क्षेत्र विसित हो रहे हैं । वैश्वीरण के इस दौर में इन नए क्षेत्रों में दम रखने के लिए भाषि विविधता ी महत्ता ो समझना होगा और अन्य भाषाओं में भी संवाद रना होगा । अपनी मानसिता संकीर्णता से मुक्त रते हुए भाषा केे दृष्टिोण ो विसित रना होगा । सीमाओं से मुक्त होर ज्ञान े आदान-प्रदान के लिए खुद ो तैयार रना होगा । भाषा ो ले संकीर्ण मानसि दायरा बना लेना अच्छा संकेत नहीं है । भविष्य ी चुनौतियों के संदर्भ में स्वयं ा परिष्ार करना होगा । ज्ञानके रास्ते और भाषाओं के सहारे भी खुलते हैं, यह हम नार नहीं सते हैं। हम दुनिया के िसी भी देश में जाएं, अगर अपने ज्ञान को बांटना है तो वहां के लोगों की ही भाषा में ही संवाद करना होगा । तभी हम अपनी भाषा गौरव पताका विदेश में भी फहरा पाएंगे । आज अगर लंदन, अमेरिका, मारीशस और फिजी से हिन्दी भाषा में पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, तो केेवल इसलिए कि पहले हम वहां केे लोगों को उनकेी भाषा में भारतीय भाषा से साक्षातकार कराते हैं । यही वजह है कि अनेक विदेशी विद्वानों ने भारतीय भाषाओं में साहित्य सृजन और अनुवाद किया है । यानी हमें भाषा को लेकर संकीर्ण मानसिकता त्यागनी होगी । भाषा को लेकर कोई विवाद को स्थिति भी नहीं होनी चाहिए ।
अंग्रेज जब इस देश में आए थे तो सबसे पहली चोट उन्होंने भाषा पर ही की थी । उन्होने भारतीय भाषाओं केे प्रति हेय दृष्टिकोण पैदा करने के लिए साजिश केे तहत यहां अंग्रेजी को प्रतिष्ठित कर दिया । अंग्रेजी जानने वालों को उच्च पदों पर आसीन किया । इसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय भाषाएं स्वत: गौण हो गईं और महत्ता खोने लगी । धीरे-धीरे अंग्रेजी का वर्चस्व कायम होता चला गया । आजादी केे बाद विकास की जो हवा चली, उसमें अंग्रेजी उच्च वर्ग के सिर चढकर बोलने लगी । नतीजा पब्लिक स्कूलों की बाढ़आ गई और अभिजात्य वर्ग में अंग्रेजी ा दबदबा बढ़ गया । अंग्रेजी के सामने खडी हिन्दी ी भी महत्ता प्रभावित हुई । लेिन राजभाषा घोषित र देने से हिन्दी ी स्थिति मजबूत हुई । बाजारवाद े दबाव ने हिन्दी ो सबसे मजबूत भाषा े रूप में उभरने ा मौा दिया । भारत में आज सर्वाधि अखबार हिन्दी में प्राशित हो रहे हैं । बड़ी संख्या में हिन्दी टेलीविजन चैनल देखे जा रहे हैं । रेडियो के हिन्दी चैनल खूब लोप्रिय हो रहे हैं। हिन्दी फिल्में पूरी दुनिया में देखी जा रही हैं । ई हिन्दी फिल्मों े प्रीमियर तो विदेशों में पहले हुए, बाद में वे देश में दिखाई गईं । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढाई जा रही है । हिन्दी ी स्वीार्यता ो देखते हुए अन्य भाषाओं े प्रति भी हमारा दृष्टिोण उदार होना चाहिए । वैश्वीरण े े दौर में बदलते परिïवेश और विास ी नई ऊंचाइयां छूने े लिए यह जरूरी भी है।

Friday, September 12, 2008

अब बदलिए हिन्दी दिवस मनाने का उद्देश्य

पूरी दूनिया में हिन्दी के लिए जो स्िथियाँ बन रही हैं, वह काफी सुखद हैं । आज भारत में सबसे ज्यादा हिन्दी अखबार पढ़े जा रहे हैं । सबसे ज्यादा हिन्दी टेलिविज़न चैनल देखे जा रहे हैं । लोकप्रिय हो रहे एफ रेडियो चैनल भी हिन्दी में हैं । हिन्दी बोलने वालों की संख्या भी लगातार बढती जा रही है । बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी में ब्लॉग लिखे जा रहे हैं । सरकारी कामकाज में भी हिन्दी का प्रयोग बढ़ा है । बाजारवाद के दबाव में एक बडे वर्ग का हिन्दी को अपनाना मजबूरी है । अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है । विदेशों से अनेक हिन्दी पत्रिकाओं का प्रकाशन हो रहा है । हिन्दी भाषा के प्रचार प्रसार के लिए हिन्दी दिवस मनाने का निर्णय लिया गया था । लेकिन मौजूदा स्िथियों को देखते हुए कहा जा सकता है कि हिन्दी दिवस मनाने का यह उद्देश् तो काफी कुछ हद तक पूरा हो चुका है । हिन्दी का प्रयोग बढने के साथ ही अब उसके समक्ष कुछ संकट भी पैदा हो गए । इसलिए अब हिन्दी दिवस मनाने का उद्देश्बदल लेना चाहिए । आज विविध जनसंचार माध्यमों में जिस हिन्दी का प्रयोग किया जा रहा उसमें तमाम अिुद्धयां हैं । मीडिया का व्यापक प्रभाव होने के कारण ं आम जनता भी हिन्दी के इसी रूप को ग्रहण कर रही है । आज जो बोली जा रही है उसमें िुद्धों कि भरमार होती हैव्याकरण दोष भी रहता हैयह सिलसिला नहीं रुका तो इस महान भाषा के स्वरुप का ही संकट पैदा हो जाएगाइसलिए जरूरी है कि अब हिन्दी भाषा के मूल स्वरुप की रक्षा के लिए हिन्दी दिवस मनाया चाहिए हिन्दी दिवस पर शुद्ध हिन्दी बोलने और लिखने का संकल्प लेना चाहिएशुद्ध हिन्दी से आशय भाषा के क्लिष्ट रूप से नहीं हैदूसरी भाषाओँ के अनेक शब्दों को हिन्दी ने इस तरह आत्मसात कर लिया है कि वे अब हिन्दी के ही लगते हैंउनसे भी कोई परहेज नहीं हैहाँ, यह जरूर होना चाहिए कि हिन्दी के शुद्ध रूप में ही शब्दों को लिखा और बोला जाएएक शब्द जब कई तरीके से लिखा और बोला जाने लगता है तब कई लोगों के समक्ष भ्रम पैदा हो सकता हैखास तौर से बच्चों के समक्ष यह एक बडे संकट का रूप ले लेता हैएक ही शब्द जब कई अखबारों में अलग अलग से छपता है तो उन्हें यह तय करना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा शब्द सही है । इसलिय हिन्दी को प्रभावशाली बनाये रखने के लिए इसके मूल रूप कि रक्षा जरूरी हैअब हिन्दी दिवस पर हमें इसी ओर धयान देना चाहिए

Wednesday, September 10, 2008

उफ़! इतनी दहेज़हत्याएँ

राष्ट्रिय अपराध नियंत्रण ब्यूरो के तजा आंकडों के मुताबिक देश में हर रोज करीब १४ महिलाएं दहेज़की भेंट चढ़जाती हैं । बीते १२ सालों में दहेज़उत्पीडन के मामलों में १२० फीसदी बढोतरी हुई है । कड़े कानून और सरकार की तमाम कोशिशें दहेज सम्बन्धी अपराधों को रोकने में विफल रही हैं । किसी भी सभ्य समाज के माथे पैर दहेज़हत्याएँ और उत्पीडन की घटनाएँ कलंक के समान होती हैं । भारत में विकास की गति तेज है, शिक्षा का भी विस्तार हुआ है, आर्थिक समृधि भी आई है, महिलायें आत्मनिर्भर भी बनी हैं, दहेज़सम्बन्धी कानूनों में भी सुधार किया गया है, फिर क्यों दहेज सम्बन्धी अपराध नहीं रुक पा रहे हैं ? यह एक बडा सवाल है जिस पर विचार करना जरूरी है । इस सवाल के जवाब तलाशने होंगे । दरअसल तमाम विकास के बावजूद भारत समाज परम्परावादी मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है । यही वजह है कि मोटे तौर पर आज भी न तो पुरुषों को और न महिलाओं को दहेज लेने या देने में कुछ गलत दिखाई देता है । मानसिक रूप से दहेज कि स्वीकार्यता ही इस गंभीर समस्या को खत्म नहीं होने देती । हाँ, जब कोई अपना दहेज सम्बन्धी अपराध का शिकार बनता है, तब जरूर दहेज प्रथा को गलत बताकर इसकी आलोचना करते हैं । दहेज प्रथा सामाजिक सम्बन्धों पर असर डालती है । रिश्तों पर से भरोसा कम करती है, इसलिए जरूरी है कि इस समस्या का हल निकला जाए । इसके लिए व्यापक दृष्टिकोण से सोचने कि जरूरत हैनई पीढी को खास तौर से इस कुप्रथा के खात्मे के लिया आगे आना चाहिए । अगर नई पीढी दहेज़प्रथा मिटाने का संकल्प ले ले, तो काफी हद तक समस्या का समाधान सम्भव है

Friday, September 5, 2008

शिक्षकों का दयिएतव बढा

मौजूदा दौर में शिक्षकों का दाित् और बढ़ गया है । बेहतर शिक्षा देने के साथ ही उन्हें विद्यार्थिों को भविष्य की संभावनाओं के अनुरूप तैयार करना होगा । गुरुकुल तो नहीं रहे लेकिन गुरुकुल परंपरा की अच्छी बातों को जीवित रखना होगा । आज अनेक उच्च शिक्षण संस्थानों में विद्यार्थी हैं, शिक्षक हैं, लैब हैं, विशाल भवन हैं, पुस्तकालय हैं लेकिन पढ़ाई का माहौल नहीं है । इन शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का माहौल शिक्षक ही बना सकते हैं । शिक्षा के मंदिरों में अब ऐसे तत्व भी प्रवेश कर गए हैं जो विद्यार्थिों में भटकाव पैदा कर देते हैं । इस भटकाव से बचाकर विषम परिस्थित में अगर कोई शिक्षा दे सकता है तो वह गुरु ही है । आज बच्चों में शिक्षा, कैरियर और भविष्य को लेकर काफी चिंता रहती है । कई बार माता पिता भी उन पर अपनी इच्छा थोप देते हैं । ऐसे में उम्मीदें पूरी न कर पाने पर उनमें निराशा पैदा होती है और आत्मविश्वास घट जाता है । शिक्षकों का दाित् है, वे उन्हें आत्मविश्वास से इतना मजबूत कर दें की उनमें कभी निराशा ही पैदा न होने पाए । कैरियर को लेकर भी उचित मार्गदर्शन करें । ऐसा होने पर ही नई पीढी अपनी जिंदगी के सपनों में रंग भर पायेंगे ।