Tuesday, June 8, 2010

अपमान झेलती प्रतिमाएं

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
ज्ञानपुर के गांधी उद्यान में स्थापित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा पर ३० मई की रात कुछ शरारती तत्वों ने शराब की बोतल फोड़कर एक फटा-पुराना कंबल लपेट दिया। राष्ट्रपिता के अपमान से जब स्थानीय कांग्रेसी भड़क उठे और धरना-प्रदर्शन करने लगे, तब प्रशासन ने जांच का आश्वासन देकर मामला रफा-दफा किया। इस घटना के एक दिन पहले ही मेरठ में चौधरी चरण सिंह की प्रतिमा के पास गंदगी का अंबार देखकर भाजपाई भड़क गए थे। इसकी वजह यह थी कि जब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की २३वीं पुण्यतिथि पर सांसद राजेंद्र अग्रवाल की अगुवाई में लोग श्रद्धांजलि देने कमिश्नरी पार्क पहुंचे, तो वहां प्रतिमा के आसपास काफी गंदगी पसरी हुई थी।
इसी तरह, २३ सितंबर, २००८ को जम्मू के मुबारक मंडी कांप्लेक्स में राष्ट्रपिता की मूर्ति के गले में रस्सी बांधकर रोशनी के लिए लाइट लटका दी गई थी। एक समारोह की तैयारियों में जुटे टेंट हाउस के कर्मचारी बापू की प्रतिमा पर चढ़ गए। पूरे देश में महापुरुषों की प्रतिमाओं की यही दशा है। समझ में नहीं आता कि जब हम प्रतिमाओं का सम्मान ही नहीं कर सकते, तो उन्हें स्थापित क्यों करते हैं? क्या महज राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए?
पूरी दुनिया में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई जाती हैं। भारत में भी बड़ी संख्या में महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। कोई शहर ऐसा नहीं, जहां प्रतिमाएं न हों। प्रतिमा स्थापित करने के पीछे दरअसल मंशा यही होती है कि लोग संबंधित महापुरुष के आदर्शों से प्रेरणा लें और उनके बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश के विकास में योगदान दें। इसके लिए जरूरी है कि प्रतिमा स्थापना के बाद उसके रखरखाव, सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए। प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी, तो कोई उनसे प्रेरित कैसे होगा? ज्यादातर प्रतिमाएं खुले में लगी हैं, जाहिर है, मौसम भी उनके रंग-रूप को बदरंग करता है। ऐसे मे, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कैसे महापुरुषों की प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा की जाए। यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
महापुरुषों के जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर पूरे देश में समारोह आयोजित होते हैं। कुछ महापुरुषों के जन्मदिवस या निर्वाण दिवस को सरकारी अवकाश भी दिया जाता है, ताकि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार कर सकें। लेकिन इन अवकाशों के मायने अब पूरी तरह बदल गए हैं। उस दिन लोग महापुरुष को याद करने के बजाय अपने दूसरे कामों में व्यस्त रहते हैं।
महापुरुषों के जीवन के विविध पक्ष नई पीढ़ी के लिए हमेशा से प्रेरणादायक रहे हैं। इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों को महापुरुषों के संस्मरण सुनाया करते थे। एकल परिवारों के युग में इसकी गुंजाइश ही नहीं बची। महापुरुषों की जीवनियां सिर्फ पाठ्यक्रमों में ही बच्चों को पढऩे को मिल पाती हैं, क्योंकि पुस्तक खरीदने की प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है। अत: हमें विचार करना होगा कि बच्चे कैसे महापुरुषों के जीवन से जुड़े विविध प्रसंगों से अवगत हो पाएंगे?
समाज में जिस तरह से नैतिकता का पतन हो रहा है, जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटकाव की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्कृतिक मान्यताओं व परंपराओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों के विचारों एवं आदर्शों का प्रचार-प्रसार करना होगा, तभी समाज सही दिशा में आगे बढ़ पाएगा।
(इस लेख को अमर उजाला के ८ जून २०१० के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर भी पढा जा सकता है । फोटो गूगल सर्च से साभार)

Monday, May 31, 2010

घटता आत्मविश्वास, बढ़ती आत्महत्याएं

डॉ. अशोक प्रियरंजन
आजकल जिस तरह से विद्यार्थियों में आत्महत्याएं करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, उससे तो यही लगता है कि कहीं न कहीं आत्मविश्वास की कमी के चलते ही यह घटनाएं होती रहती हैं। सीबीएसई की १२वीं की परीक्षा में फेल होने पर रुड़की की आवास विकास कॉलोनी के प्रदीप चौधरी के बेटे १७ वर्षीय सुमित ने गोली मारकर आत्महत्या कर ली। ऐसा पहली बार नहीं हुआ, हर बार जब भी परीक्षा परिणामों की घोषणा होती है, तभी देश के हर हिस्सों से कुछ ऐसी ही खबरें आती हैं।
दरअसल, आज अभिभावक बच्चों से पढ़ाई और करियर को लेकर बहुत अधिक उम्मीदें रखने लगे हैं। माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए वे जी-तोड़ मेहनत भी करते हैं, लेकिन कई बार वे अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते हैं, तो निराशा में आत्महत्या कर लेते हैं। देश में हर साल करीब २४०० छात्र परीक्षा के तनाव या फिर फेल होने पर खुदकुशी करने जैसा कदम उठाते हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी की मेधा का निर्धारण करने का मानक अर्जित अंकों का प्रतिशत बन गया है। विद्यार्थी मेधावी है, लेकिन यदि उसके परीक्षाफल में अच्छे अंक नहीं आते तो कोई भी उसकी मेधा को स्वीकार नहीं करता है। यह अलग बात है कि कई बार दूसरे कारणों के चलते एक सामान्य विद्यार्थी अधिक अंक ले आता है, जबकि मेधावी विद्यार्थी इस मामले में पिछड़ जाता है। इसी सत्य को पहचान करके अंकों के बजाय ग्रेडिंग सिस्टम को अब तरजीह दी जा रही है। यह वक्त की जरूरत है और विद्यार्थियों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने के लिए बेहद जरूरी भी है।
वस्तुत: मौजूदा भौतिकवादी परिवेश में विविध प्रकार के दबाव कई बार कुछ युवाओं का आत्मविश्वास घटा देते हैं। अलबत्ता देश में बड़ी संख्या में हो रही आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं समाज केसभी तबके के लोगों के जीवन में बढ़ रही निराशा, संघर्ष करने की घटती क्षमता और जीने की इच्छाशक्ति की कमी की ओर संकेत करती हैं।
आजकल हर आदमी के अंदर अच्छा घर, कार और आधुनिक जीवन की सभी सुख-सुविधाएं हासिल करने कीलालसा बढ़ती जा रही है। इसके लिए वह जद्दोजहद भी करते हैं। वह अपने सपनों को जल्द पूरा करना चाहता है। सपने टूटते हैं और अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं, तो आत्मविश्वास की कमी के चलते लोग जिंदगी से मायूस हो जाते हैं। कभी प्रेम में निराशा मिलने पर, तो कभी आर्थिक तंगी या गृहकलह आत्महत्या की वजह बन जाती है। दरअसल, जीवन में सफलता प्राप्त करने केलिए आत्मविश्वास की शक्ति सर्वाधिक आवश्यक है। आत्मविश्वास के अभाव में किसी कामयाबी की कल्पना नहीं की जा सकती है। आत्मविश्वास के सहारे कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। विद्यार्थी आत्मविश्वास को जागृत करके और मजबूत बनाकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता अर्जित कर सकते हंै। वास्तव में आत्मविश्वास की शक्ति अद्भुत होती है।
परीक्षाफल और जिंदगी से मायूस हुए लोगों को सांत्वना देने का काम आस-पास के लोगों या परिजनों को करना चाहिए। बातचीत केमाध्यम से निराशाजनक स्थितियों से गुजर रहे मनुष्य के अंदर जीने की इच्छाशक्ति को मजबूत किया जाना चाहिए। उन्हें जीवन के संघर्ष से घबराने केबजाय मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। उनकेमन से निराशा का अंधेरा छंट गया तो निश्चित रूप से उनमें जीवन के प्रति ललक जागृत होगी। उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा, तो वे वह भविष्य में जिम्मेदार नागरिक बनकर देश केविकास में अपना योगदान दे पाएंगे।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, May 21, 2010

मेरठ अंचल ने दिए हिंदी को अनमोल रतन

डॉ. अशोक प्रियरंजन
मेरठ क्षेत्र की सुदीर्घ साहित्यिक परंपरा रही है। यहां के साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य में न केवल इस क्षेत्र के जनजीवन के सांस्कृतिक पक्ष को अभिव्यक्त किया, बल्कि इस अंचल की भाषिक संवेदना को भी पहचान दी। इन साहित्यकारों के बिना हिंदी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता।
२६ अगस्त, १८९१ को बुलंदशहर के चंदोक में जन्मे आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ३२ उपन्यास, ४५० कहानियां और अनेक नाटकों का सृजन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने कई अविस्मरणीय चरित्र हिंदी साहित्य को प्रदान किए। सोमनाथ, वयं रक्षाम:, वैशाली की नगरवधू, अपराजिता, केसरी सिंह की रिहाई, धर्मपुत्र, खग्रास, पत्थर युग के दो बुत, बगुला के पंख उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। चार खंडों में लिखे गए सोना और खून के दूसरे भाग में १८५७ की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है। गोली उपन्यास में राजस्थान के राजा-महाराजाओं और दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है। अपनी समर्थ भाषा शैली के चलते शास्त्रीजी ने अद्भुत लोकप्रियता हासिल की और वह जन साहित्यकार बने।
मुजफ्फरनगर के ही एलम गांव में १३ जनवरी, १९११ को एक मध्यमवर्गीय जाट परिवार में पैदा हुए प्रगतिशील रचनाकार शमशेर बहादुर सिंह कवियों के कवि कहे गए। हिंदी के साथ-साथ उर्दू के विद्वान शमशेर को वर्ष १९७७ में चुका भी हूं मैं नहीं काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान से विभूषित किया गया। शमशेर की कविताओं में रोमानियत, जनतांत्रिकता, प्रेम, सौंदर्य, मानवीय करुणा, संवेदना की गहरी अभिव्यक्ति हुई है। हालांकि बिंबों और प्रतीकों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने वाले शमशेर की कविताएं कई बार इतनी जटिल हो जाती हैं कि उन्हें समझना सामान्य पाठक के लिए मुश्किल हो जाता है। लेकिन उनकी कविता गहरे बोध की रचनाएं हैं।
मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर में २१ जून, १९१२ को जन्मे मसीजीवी लेखक विष्णु प्रभाकर ने अद्र्धनारीश्वर और आवारा मसीहा जैसी कृतियों से जबर्दस्त ख्याति अर्जित की। साहित्य अकादेमी और पद्म विभूषण से सम्मानित विष्णु प्रभाकर ने उपन्यास, कहानी, निबंध विधाओं को अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। आवारा मसीहा तो हिंदी साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है।
पंडित नरेंद्र शर्मा मेरठ अंचल के ऐसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने हिंदी साहित्य और फिल्मों में समान रूप से योगदान दिया। वर्ष १९१३ में बुलंदशहर जिले के जहांगीरपुर में जन्मे नरेंद्र शर्मा ने करीब डेढ़ दर्जन किताबें लिखीं। उनके काव्य संग्रहों में प्रवासी और पलाशवन सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। फिल्म भाभी की चूडिय़ां के गीत ज्योति कलश छलके ने उन्हें अमर कर दिया। नरेंद्र शर्मा देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव भी रहे।
सहारनपुर जिले के देवबंद कस्बे में २९ मई, १९०६ को जन्मे कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की सृजनशीलता ने भी हिंदी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकरÓ ने उन्हें शैलियों का शैलीकार कहा था। कन्हैयालाल जी ने हिंदी साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी व्यापक रूप से समृद्ध किया। उनके संस्मरणात्मक निबंध संग्रह दीप जले शंख बजे, जिंदगी मुस्कराई, बाजे पायलिया के घुंघरू, जिंदगी लहलहाई, क्षण बोले कण मुस्काए, कारवां आगे बढ़े, माटी हो गई सोना गहन मानवतावादी दृष्टिकोण और जीवन दर्शन के परिचायक हैं। नाटककार जगदीश चंद्र माथुर भी इसी अंचल के हैं। उनका जन्म बुलंदशहर के खुर्जा में हुआ था। ऐतिहासिक-सामाजिक नाटकों के साथ ही उन्होंने एकांकी की रचना की। कोणार्क, दशरथ नंदन, शारदीया, पहला राजा नाटक तथा भोर का तारा, ओ मेरे सपने एकांकी संग्रह हैं।
आठ जुलाई, १९३६ को मुजफ्फरनगर के जमींदार परिवार में जन्मे गिरिराज किशोर अद्भुत प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं। ढाई घर उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। पहला गिरमिटिया, लोग, जुगलबंदी, यथाप्रस्तावित, असलाह, तीसरी सत्ता, चिडिय़ाघर और दावेदार आदि उपन्यासों में उन्होंने समकालीन समाज में पनपते अंतर्विरोधों और सूक्ष्मतर संवेदनाओं को प्रखर रूप से अभिव्यक्त किया है। उनकी कहानियों में गहन राजनीतिक चेतना व सामाजिक विसंगतियों के चित्र मिलते हैं।
मुजफ्फरनगर के ही भीमसेन त्यागी ने भी अपनी औपन्यासिक कृतियों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की संस्कृति व लोकजीवन को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। उनके उपन्यास जमीन, वर्जित फल और कटे हुए हाथ सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। जमीन में उन्होंने आजादी के बाद ग्राम्य जीवन में आए बदलावों को रेखांकित किया है। इस उपन्यास में भूमिहीन किसानों की यातनापूर्ण स्थितियों का मर्मभेदी चित्रण किया गया है।
ऐतिहासिक उपन्यास कठपुतली के धागे, कुणाल की आंखें के लेखक आनंद प्रकाश जैन भी इसी जनपद के कस्बा शाहपुर के निवासी हैं। यहीं के निवासी पंडित सीताराम चतुर्वेदी का बेचारा केशव नाटक हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण कृति है। कथा साहित्य के दमदार हस्ताक्षर से.रा. यात्री भी यहीं के हैं। कवि भोपाल सिंह पौलस्य और कलीराम शर्मा मधुकर भी मुजफ्फरनगर के ही हैं।
मेरठ में जन्मे पद्मश्री रघुवीर शरण मित्र का उपन्यास आग और पानी हिंदी साहित्य में अलग पहचान रखता है। कवि बसंत सिंह भंृग, चौधरी मुल्कीराम, पंडित मुखराम शर्मा व हाइकूकार शैल रस्तोगी और ताराचंद हरित मेरठ के ही निवासी हैं। गाजियाबाद के क्षेमचंद्र सुमन, गीतकार देवेंद्र शर्मा इंद्र आदि ने भी हिंदी साहित्य को गौरवान्वित किया है।

Friday, February 26, 2010

अंग्रेजों की जमीन पर हिंदी के फूल खिले


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
हिंदी भाषा और साहित्य से विदेशी भूमि भी आलोकित हो रही है। अंग्रेजी के लिए जाने जाना वाले इंग्लैंड तक में हिंदी के फूल खिल रहे हैं। यूरोप में हिंदी भाषियों की बड़ी संख्या है। भारतवंशी अनेक साहित्यकार विदेशों में हिंदी साहित्य सृजन कर रहे हैं। मेरठ में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से १२-१४ फरवरी तक आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी में आए भारतवंशी हिंदी साहित्यकारों ने विदेशी भूमि पर हिंदी की गौरवशाली सृजनशीलता से साक्षात्कार कराया।
इजराइल से आए गेनाल्डी स्लम्पोर वहां के विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर हैं। वह कई देशों में हिंदी शिक्षण का कार्य कर चुके हैं। उनकी हिंदी भाषा और साहित्य पर कई पुस्तकें हैं। उन्होंने बताया कि उनके देश में हिंदी सीखने की ओर रुझान है।
इंग्लैंड के नाटिंघम से आईं जया वर्मा की पहचान एक अच्छी कवयित्री के रूप में है। वह गीतांजलि बहुभाषी साहित्यिक समुदाय टैं्रथ की अध्यक्ष हैं। यह संस्था साहित्यिक गतिविधयों में सक्रिय है। संस्था की शुरुआत बर्मिंघम में १९९५ में हुई। नाटिंघम में २००३ में संस्था ने कामकाज प्रारंभ किया। यह संस्था हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता आयोजित करती है जिसमें यूरोप, मास्को, यूक्रेन समेत कई देशों के विद्यार्थी भाग लेते हैं। इसके विजेता बच्चों को भारत भ्रमण के लिए भी भेजा जाता है। जया वर्मा ने १५ सालों तक नाटिंघम के कला निकेतन स्कूल में हिंदी का शिक्षण कार्य किया। त्रैमासिक हिंदी पत्रिका पुरवाई और प्रवासी टुडे भी इंग्लैंड से प्रकाशित होती हैं। सप्लीमेंटरी स्कूलों में यहां ए लेवल अर्थात् १२वीं तक हिंदी पढ़ाई जाती है। जया वर्मा के मुताबिक टीवी पर हिंदी के अनेक प्रमुख चैनल इंग्लैंड में देखे जाते हैं जिनकी हिंदी को लोकप्रिय बनाने में खास भूमिका है। इसके साथ ही गीतांजलि की ओर से इंग्लैंड के सात शहरों लंदन, बर्मिंघम, नाटिंघम, लेस्टर, यार्क और मेनचेस्टर में हिंदी कवि सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है। कैंब्रिज, लंदन और योर्क यूनिवर्सिटी में बीए और एमए में हिंदी पढऩे वाले विद्यार्थी हैं।
कनाड़ा में बसी स्नेह ठाकुर के मुताबिक वहां हिंदी की स्थिति अच्छी है। वह छह वर्षों से त्रैमासिक पत्रिका वसुधा का संपादन व प्रकाशन कर रही हैं। संजीवनी, उपनिषद् दर्शन जैसी पुस्तकों की लेखिका स्नेह ठाकुर सद्भावना हिंदी साहित्यिक संस्था की अध्यक्ष हैं। यह संस्था हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय है। वहां से हिंदी अब्राड नामक समाचारपत्र का भी प्रकाशन होता है। मंदिरों में शनिवार को निजी प्रयासों से हिंदी स्कूल की कक्षाएं चलती हैं। विश्वविद्यालयों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है।
मारीशस मेें बसे भारतीय मूल के डॉ. हेमराज सुंदर मोका स्थित महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट से जुड़े हैं। वह वसंत और रिमझिम नामक पत्रिका का प्रकाशन भी करते हैं। इस इंस्टीट्यूट में एम फिल और पीएचडी तक की पढ़ाई होती है। हिंदी साहित्य सम्मेलन परीक्षाएं कराता है। डॉ. सुंदर के अनुसार मारीशस में माध्यमिक स्तर तक हिंदी पढ़ाई जाती है। लंदन यूनिवर्सिटी १२वीं तक की परीक्षा कराता है। आर्य सभा मारीशस भी धार्मिक परीक्षाएं कराता है। रेडियो पर २४ घंटे हिंदी के कार्यक्रम चलते रहते हैं। दूरदर्शन पर भी साहित्यिक कार्यक्रम और हिंदी फिल्में धडल्ले से चलती हैं। अलबत्ता हिंदी अखबारों की कमी खलती है। हिंदी जनता की भाषा के रूप में स्थापित है।

Saturday, February 13, 2010

मेरठ की माटी से महका साहित्य

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
हिंदी के चर्चित हस्ताक्षर गिरिराज किशोर के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास 'ढाई घर'की शुरुआत कुछ इस तरह होती है-'मेरा नाम भास्कर राय है। मैं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके के एक पुराने खाते-पीते राय खानदान का अंतिम राय हूं। अब मेरे बाद कोई राय नहीं होगा। मेरे बच्चे हैं पर जिस आधार पर हम लोग राय हुआ करते थे, वह एक बड़ी जमींदारी थी। वह कभी की खत्म हो गई।' दरअसल इस उपन्यास में जिस अंचल को केंद्रबिंदु बनाकर कथा का ताना-बाना बुना गया है, वह कोई और नहीं बल्कि मुजफ्फरनगर और मेरठ ही भूमि है। खड़ी बोली के लिए जाने जाना वाला मेरठ अंचल ही इस बहुचर्चित उपन्यास में जीवंत रूप में दिखाई देता है। मेरठ अंचल की परंपराएं, मान्यताएं और रीति रिवाज इस उपन्यास में हैं। प्रमुख पात्रों के संवाद खड़ी बोली में हैं और इसमें कौरवी के भी शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस उपन्यास में मेरठ और यहां के कुछ प्रमुख स्थलों के विषय में भी जानकारी दी गई है। इस साहित्यिक कृति में मेरठ कालेज और बुढ़ाना गेट का जिक्र है। उपन्यास के मुख्य पात्र हरिराय के शब्दों में-'मेरठ कॉलेज में भी साथ ही साथ पढ़े थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उस समय दो ही बड़े कॉलेज थे। एक शायद आगरा कॉलेज आगरा और दूसरा मेरठ कॉलेज मेरठ। आगरा का सेंट जान्स भी पुराने कॉलेजों में में है। पूरी कमिश्नरी के लड़केमेरठ ही पढऩे जाते थे। तब मेरठ कॉलेज इंटर तक था। लेकिन था काफी बड़ा। ' इसी क्रम में वह आगे बताते हैं कि, 'बुढाने दरवाजे पर एक मशहूर पान लगाने वाला था। वह उस जमाने में सौ-सौ रुपये का कुश्ते वाले पान बनाता था। रईस लोग अपनी ऐय्याशी को सही सलामत रखने के लिए उसका पान खाते थे।Ó गिरिराज किशोर के उपन्यास 'लोग' और 'जुगलबंदी' में भी मेरठ अंचल धड़कता दिखाई देता है।
उर्दू के मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो ने अपनी कलम से अनेक बेहतरीन कालजयी चरित्रों की रचना की है। ऐसा ही एक चरित्र मंटो ने रचा और उसका नाम रखा-मेरठ की कैंची। मंटो के १० कहानियों का संग्रह मेरठ की कैंची नाम से प्रकाशित हुआ है। इसकी प्रमुख कहानी मेरठ की कैंची की नायिका के बारे में वह लिखते हैं, '---अब पारो रोज स्टूडियो आने लगी। बहुत हंसमुख और मीठी आवाज वाली तवायफ थी। मेरठ उसका वतन था जहां वह शहर के करीब-करीब हर रंगीन मिजाज रईस की मंजूरे नजर थी। उसको ये लोग मेरठ की कैंची कहते थे। इसलिए कि वह काटती थी और बड़ा महीन काटती थी।' आगे वह लिखते हैं, '---पारो में आम तवायफों जैसा भड़कीला छिछोरापन नहीं था। वो महफिलों में बैठकर बड़े सलीके से बातें कर सकती थी। इसकी वजह यही हो सकती है कि मेरठ में उसके यहां आने-जाने वाले ऐरे-गैरे नत्थू -खैरे नहीं होते थे। उनका संबंध सोसाइटी के उस तबके से था जो नाशाइस्तगी की तरफ सिर्फ तफरीह की खातिर मायल होता है।'
हिंदी के प्रमुख साहित्यकार अमृतलाल नागर का उपन्यास 'सात घूंघट वाला मुखड़ा' मेरठ केसरधना की बेगम समरू को केंद्र में रखकर लिखा गया है। कालजयी उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास 'सोना और खूनÓ केदूसरे भाग में १८५७ की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का वर्णन किया गया है। यह भी बताया गया है कि कैसे पंजाब से आकर विस्थापितों ने मेरठ और उसके आसपास के इलाके में शरण ली। डॉ. सुधाकर आशावादी ने भी अपने उपन्यास 'काला चांद' में मेरठ का वर्णन किया है।

Sunday, February 7, 2010

मेरठ में तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी 12 से


-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
भारत का हृदयस्थल पश्चिमी उत्तर प्रदेश। इसी का सबसे महत्वपूर्ण शहर है मेरठ। पूरी दुनिया में यह शहर कई कारणों से मशहूर रहा है। अंगेजों के जमाने में इसी शहर से आजादी की लड़ाई की शुरुआत हुई। सन् 1857 की क्रांति का उद्गम स्थल माना जाना वाला यह शहर एक गौरवशाली अतीत को समेटे है। इसी शहर में लगता है नौचंदी मेला जो सांस्कृतिक विरासत और सांप्रदायिक एकता का प्रतीक है। राजधानी दिल्ली के निकट स्थित यह शहर कभी कैंची के लिए मशहूर रहा तो कभी खेल के सामान के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता रहा है। कभी इस शहर का नाम दंगे के कारण लोगों के जेहन में आया तो कभी विक्टोरिया पार्क जैसे हादसे के चलते चर्चा में आया। वजह कोई भी रही शहर हमेशा विश्व मानचित्र पर अपनी पहचान बनाए रहा।
अब हिंदी साहित्य जगत में भी यह शहर खास पहचान बना रहा है। इसका श्रेय जाता है विश्वविद्यालय में चल रहे हिंदी विभाग और इसकेअध्यक्ष डॉ. नवीन चंद्र लोहनी को। डॉ. लोहनी ने अपनी आधुनिक सोच से न केवल विद्यार्थियों में हिंदी के प्रति आत्मगौरव जागृत किया बल्कि उन्हें जमाने के साथ कदमताल करने केलिए तैयार भी किया। विभाग में आधुनिक कंप्यूटर लैब, मल्टीमीडिया लैब, पुस्तकालय और सुसज्जित संगोष्ठी कक्ष है जिसकी विद्यार्थियों के लिए व्यापक उपयोगिता है। इसके साथ ही विद्यार्थियों के ज्ञानवर्धन के लिए समय-समय पर विशेषज्ञ विद्वानों केव्याख्यान भी डॉ. लोहनी कराते रहे हैं। हिंदी के प्रचार प्रचार केलिए कई बड़े कार्यक्रम विभाग की ओर से आयोजित किए गए हैं।
इसी क्रम में इस बार डॉ. लोहनी अब तक का सबसे बड़ा आयोजन करने जा रहे हैं। विभाग की ओर से १२ से १४ फरवरी 2010 के मध्य 'भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी, विषय पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जा रही है जिसमें देश-विदेश के अनेक विद्वान, शोधार्थी, हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ और मीडिया से जुड़े लोग भाग ले रहे हैं। इस संगोष्ठी में 'अङ्क्षहदी भाषी राज्यों में हिंदी, 'प्रवासी क्षेत्रों में हिंदी, 'विदेशी लेखकों द्वारा हिंदी लेखन और प्रसार, 'हिंदी का लेखन और हिंदी साहित्य जैसे सत्र आयोजित किए जाएंगे। जिन लोगों में हिंदी के प्रति अनुराग है, उनके लिए इसमें भाग लेना सुखद अनुभव होगा, ऐसा विश्वास है। हालांकि पूर्व में स्वीकृति के उपरांत ही संगोष्ठी में भाग लेना संभव होगा। भाग लेने केलिए १० जनवरी तक सूचना भेजी जा सकती है।
प्रतिभागिता हेतु संपर्क करें-
प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी , विभागाध्यक्ष हिन्दी
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ।
nclohani@gmail.com, nclohani@yahoo.com
Phone & fax-01212772455, +919412207200
अन्य फोन नंबर एवं वेब पते-
विवेक सिंह ( शिक्षण सहायक)
गजेन्द्र सिंह ( शिक्षण सहायक)
+9258040773 ,9359770328

Friday, November 13, 2009

घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
बेहतर जिंदगी और श्रेष्ठ समाज के लिए सबसे जरूरी चीज है संवेदना । संवेदना यानी दूसरे की वेदना को खुद भी महसूस कर पाना । संवेदना ही मनुष्यता को विस्तार देती है । पारिवारिक सदस्यों में परस्पर संवेदनशीलता जितनी ज्यादा होगी, रिश्ते उतने ही गहरे और मजबूत होंगे । मनुष्य संवेदनशील हो, परिवार संवेदनशील हो और समाज संवेदनशील हो, तो काफी कुछ परेशानियां और दुख खुदबखुद खत्म हो जाएंगे । लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है । घरेलू हिंसा को लेकर जो ताजा सर्वेक्षण हुआ है, उसने परिवारों खास तौर से पति-पत्नी के रिश्तों में पैदा हो रही संवेदनशीलता की बड़ी खौफनाक तस्वीर पेश की है ।
वर्ष २००५ में बने घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम को लेकर राष्ट्रीय महिला आयोग और लॉयर्स कलेक्टिव नामक संस्था ने एक सर्वे कराया । इस सर्वे के मुताबिक कोई भी राज्य ऐसा नहीं है, जहां घरेलू हिंसा से संबंधित मामले सामने नहीं आए हों । घरेलू हिंसा के उत्तर प्रदेश में सर्वाधिक ३,८९२ मामले दर्ज किए गए, जबकि दिल्ली में ३,४६३ और केरल में ३,१९० मामले सामने आए। आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी घरेलू हिंसा से संबंधित काफी मामले दर्ज हुए हैं ।
घरेलू हिंसा कोई नई नहीं है । सदियों से यह भारतीय समाज में प्रचलित है । घर की चाहरदीवारी में कैद महिलाएं तमाम जुल्म और ज्यादतियों को चुपचाप सह जाती हैं । वह इसे अपने जीवन की नियति मान लेती हैं । मारपीट करने वाला पति उनके लिए देवता बना रहता है । इन स्थितियों के बीच क्यों घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम की जरूरत पड़ी ? दरअसल वक्त बदल रहा है । पहले महिलाएं इसलिए जुल्म सहती थीं क्योंकि उनका आर्थिक आधार होता ही नहीं था । पति की उनकी आर्थिक जरूरतों को पूरा करने का माध्यम था । अब महिलाएं स्वाबलंबी हो रही हैं । खुद अपने पैरों पर खड़ी हो रही हैं तो फिर क्यों पति का जुल्म बरदाश्त करें ? पहले शिक्षित लड़कियों और महिलाओं की संख्या कम थी ? लड़कियों को बाहर जाकर पढऩे लिखने की आजादी बहुत कम थी । अशिक्षा उनके आत्मविश्वास को इतना कमजोर कर देती थी कि वह कोई आवाज ही नहीं उठा पाती थीं । पति का जुल्म भी इसीलिए चुपचाप बरदाश्त करती थीं ।
अब लड़कियों और महिलाओं की जिंदगी में व्यापक बदलाव आ रहा है । वह पढ़ाई के लिए मनपसंद स्कूल-कालेजों में जा रही हैं । घर की दहलीज लांघकर नौकरी करने के लिए बाहर निकल रही हैं । आर्थिक रूप से भी मजबूत हो रही हैं। ऐसे में वह घरेलू हिंसा को क्यों सहन करें ?
गहराई से विचार करें तो पता चलेगा कि घरेलू हिंसा के मामलों का दर्ज होना अच्छा भी है और खराब भी । अच्छा इसलिए क्योंकि यह महिलाओं के साहस का भी प्रतीक है कि वह पति की ज्यादतियों का प्रतिकार कर रही हैं । अपने हक की लड़ाई के लिए आवाज बुलंद कर रही हैं । खराब इसलिए कि तमाम सामाजिक जागरूकता और शिक्षा के बाद भी घरों के अंदर ही अच्छा माहौल नहीं बन पा रहा। महिलाओं को यथोचित सम्मान नहीं मिल पा रहा । इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं घरेलू हिंसा का शिकार हो रही हैं। वह हिंसा जो महिला के तन को ही नहीं मन को भी घायल कर देती है । सभ्य समाज के लिए घरेलू हिंसा कलंक की ही तरह है। इसे रोकने के लिए गंभीरता से प्रयास होने चाहिए ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)