-डॉ. अशोक प्रियरंजन
'भाई साहबÓ ! पूरा अमर उजाला परिवार इसी आत्मीय संबोधन से पुकारता था अतुलजी के लिए। आगरा से शुरू हुए अमर उजाला के सफर का दूसरा पड़ाव था बरेली। यहीं से अतुल माहेश्वरी ने अखबार जगत में पहचान बनानी शुरू की। इसके बाद प्रकाशित हुए मेरठ संस्करण की तो नींव ही उन्होंने रखी और हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में अमर उजाला को शानदार मुकाम दिया। अतुलजी अत्यंत व्यवहारकुशल, मृदुभाषी, सहृदय और अद्भुत प्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। उनका कर्मचारियों के साथ व्यवहार इतना आत्मीय था कि सभी को लगता था मानो वह उनके बड़े भाई हैं। यही वजह थी कि सहज ही हर व्यक्ति उन्हें 'भाई साहबÓ कहकर संबोधित करता था। यह संबोधन खुद उनके लिए भी बड़ा पसंद था। जब प्रबंध निदेशक के रूप में उनकी कामकाजी व्यस्तताएं बढ़ीं तो लंबे समय बाद संपादकीय सहयोगियों के साथ हुई एक मीटिंग में उन्होंने इस बात को दुहराया भी कि मैं तो आप लोगों के लिए 'भाईसाहबÓ ही हूं। चाहे व्यक्ति उम्र में बड़ा हो या छोटा उसके मुंह से सहज ही अतुलजी के लिए 'भाई साहबÓ ही निकलता। उन्होंने भी इस संबोधन का खूब मान रखा। १४ अप्रैल १९८७ को जब मेरठ में दंगे हुए तो देर रात तक संपादकीयकर्मी अखबार के दफ्तर में काम करते और आसपास के होटल बंद होने के कारण रात भोजन भी नहीं पाते थे। कई बार ऐसा हुआ कि अतुलजी खुद अपनी कार से संपादकीय कर्मियों को लेकर दूर स्थित होटल में रात को भोजन कराने लेकर गए। अमर उजाला परिवार के लोगों के बच्चों के जन्मदिन, विवाह समारोह व अन्य कार्यक्रमों में शामिल होकर वह अपनी आत्मीयता का अहसास भी कराते थे। कोई परेशानी हो, निसंकोच होकर लोग अतुल जी के सामने रखते और वह हर संभव उसका समाधान करते। शादी विवाह के लिए आर्थिक संकट हो या फिर बीमारी का इलाज कराने के लिए धन की जरूरत हो, वह कर्मचारियों के दिल की बात महसूस करते और कोई न कोई रास्ता निकाल ही देते थे। अपने कर्मचारियों के साथ संवाद का रास्ता उन्होंने सदैव खोले रखा। आम जनता की पीड़ा को भी वह गहराई से महसूस करते थे। यही वजह थी कि उत्तराखंड में जब भूकंप आया तो उनकी पहल पर पूरा अमर उजाला परिवार भूकंप पीडि़तों की मदद को आगे आया। निजी जीवन के साथ ही वह समाचारों में भी मानवीय मूल्यों के पक्षधर रहे और अमर उजाला के माध्यम से इसे सदैव अभिव्यक्त भी किया।
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