-डॉ. अशोक प्रियरंजन
२५ जुलाई को १७८ महिलाओं ने देश में नया इतिहास रच दिया। इस दिन पहली बार सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) में शामिल होने के लिए १७८ महिला जवानों के फस्र्ट बैच ने होशियारपुर के गांव खड़कां स्थित सहायक प्रशिक्षण केंद्र में पास आउट किया । यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि अब इन महिला जवानों के केकंधों पर देश की सीमाओं की सुरक्षा करने की महती जिम्मेदारी होगी । पिछले साल ११ जून को जब सुरक्षा बल के जालंधर स्थित मुख्यालय में महिला जवानों भरती आयोजित की गई थी तब भी महिलाओं के देशभक्ति के जज्बे की मिसाल सामने आई थी । यह गौरव का विषय है कि विषम परिस्थितियों में फौजी दायित्वों को निभाने केलिए साढ़े आठ हजार महिलाओं ने आवेदन किया था । इनमें से ही ४८० का चयन किया गया था। इनका प्रशिक्षण गत वर्ष १० नवंबर से शुरू हुआ था और ३६ सप्ताह के कड़े प्रशिक्षण के बाद अब यह जवान तैनाती के लिए तैयार हैं । इन कांस्टेबल को मुख्यत: ५५३ किलोमीटर लंबी भारत-पाकिस्तान सीमा पर मौजूद ३०० गेटों पर गेट के आरपार आने जाने वाली महिलाओं की तलाशी के लिए तैनात किया जाएगा । इसके अलावा जरूरत के अनुसार बीएसएफ के सामान्य कामों, आंतरिक सुरक्षा ड्यूटी और आतंकवाद निरोधी आपरेशन में भी तैनात किया जाएगा ।
यह एक सुखद संकेत है कि फौज के प्रति लड़कियों का रुझान बढ़ रहा है । इसी केचलते अनेक छात्राएं एनसीसी कैडेट के रूप में प्रशिक्षण लेती हैं । सैन्य बलों में पिछले कुछ समय में बड़ी संख्या में हुई महिलाओं की भर्ती भी इसी का उदाहरण हैं । कुछ साल पहले तक सैन्य क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी नहीं होती थी। वे खुद भी इसे करियर के विकल्प के तौर पर नहीं लेती थीं। महिलाओं को शिक्षा, बैंकिग और सरकारी सेवा आदि क्षेत्र रोजगार केलिए बेहतर विकल्प लगते थे । लेकिन अब परिवेश बदला है। महिलाएं जोखिम भरे क्षेत्रों को भी सेवा और करियर केरूप में अपनाने लगी है। यही महिलाओं भविष्य में दुश्मनों केदांत खट्टे करके रानी झांसी लक्ष्मीबाई की वीरता की कहानियों की पुनरावृत्ति करेंगी । दरअसल, सैन्य बलों में वही महिलाएं भर्ती हो पाती हैं जिनमें देशसेवा का जज्बा होता है । बीएसएफ में भर्ती होने वाली इन महिलाओं में निसंदेह यह जज्बा है, इसीलिए ही उन्होंने करियर केरूप में यह विकल्प चुना है । इनके इस शानदार जज्बे को सलाम ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
Sunday, July 26, 2009
Monday, July 13, 2009
शिवभक्ति और आस्था का प्रवाह है कांवड़ यात्रा
-डॉ. अशोक प्रियरंजन
भगवान भोले शंकर की भक्ति, आस्था और श्रद्धा की प्रतीक है कांवड़ यात्रा । भोले के भक्त भगवान आशुतोष को प्रसन्न करने के लिए श्रावण माह में कांवड़ में पवित्र गंगाजल लाकर उससे भगवान आशुतोष का अभिषेक करते हैं । पिछले कुछ वर्षों में कांवड़ मेला विश्व के सबसे बड़े मेले के रूप में माना जाने लगा है । धार्मिक मान्यताओं के लिए पूरे विश्व में अलग पहचान रखने वाले भारतवर्ष के पश्चिमी उत्तरप्रदेश क्षेत्र में कांवड़ यात्रा के दौरान भोले के भक्तों में अद्भुत आस्था, उत्कट उत्साह और अगाध भक्ति के दिग्दर्शन होते हैं । कांवड़ यात्रा के दौरान राजमार्गों पर भगवा वस्त्रधारियों की अनंत श्रंखला बन जाती है । भोले बम के उद्घोष से राजमार्ग गूंजते रहते हैं । भीषण गर्मी में विषम परिस्थितियों कांवड़ लाने वालों में पुरुष, महिला और बच्चे सब शामिल रहते हैं । रंग-बिरंगी सजी कांवड़ों के संग भक्ति से झूमते श्रद्धालुओं का उत्साह देखते ही बनता है । कांवडिय़ों की सेवा के लिए लगने वाले शिविर जनमानस की सेवा भावना के प्रतीक हैं । कांवडिय़ों के लिए भोजन, जल, फल और रात्रि विश्राम की व्यवस्था इन शिविरों में होती है । विविध स्वयंसेवी संगठनों की ओर से आयोजित शिविरों में सेवा करके लोग स्वयं को धन्य महसूस करते हैं । कई बार लोगों के मन में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि कांवड़ क्यों लाई जाती है ? भगवान आशुतोष के जलाभिषेक का क्या महत्व है ?
यूं तो कांवड़ यात्रा का कोई पौराणिक संदर्भ नहीं मिलता, लेकिन कुछ किवंदतियां हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम दिग्विजय के बाद जब मयराष्ट्र (वर्तमान मेरठ)से होकर निकले तो उन्होंने पुरा में विश्राम किया और वह स्थल उनको अत्यंत मनमोहक लगा । उन्होंने वहां पर शिव मंदिर बनवाने का संकल्प लिया। इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना करने के लिए पत्थर लाने वह हरिद्वार गंगा तट पर पहुंचे । उन्होंने मां गंगा की आराधना की और मंतव्य बताते हुए उनसे एक पत्थर प्रदान करने का अनुरोध किया। यह अनुरोध सुनकर पत्थर रुदन करने लगे । वह देवी गंगा से अलग नहीं होना चाहते थे। गंगा मां की शीतलता त्यागने का विचार उनके लिए अत्यंत कष्टदायक था। इस पर भगवान परशुराम ने आश्वस्त किया कि जो पत्थर वह ले जाएंगे, उस पर शिवरात्रि को गंगाजल से अभिषेक किया जाएगा । इस दिन सदैव वह मंदिर परिसर में विराजमान रहेंगे । इस आश्वासन के बाद हरिद्वार के गंगातट से भगवान परशुराम पत्थर लेकर आए और उसे शिवलिंग के रूप में पुरेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित किया । तब से ऐसी मान्यता है कि शिवरात्रि पर यहां गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक करने से शिव की कृपा प्राप्त होती है । इसी मान्यता के कारण शिवभक्त कांवडिय़े तमाम कष्टों को सहते हुए हरिद्वार से गंगाजल लाकर पुरा महादेïव में शिवलिंग पर अर्पित करते हैं । इस दिन यहां कांवडिय़ों का सैलाब उमड़ पड़ता है ।
आस्था का यह पर्व अब विराट रूप धारण कर चुका है। प्रतिवर्ष करीब एक करोड़ शिवभक्त कांवडिये हरिद्वार से जल लेकर आते हैं । अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति केलिए कांवड़ लाने वाले भोले के भक्त पुरा महादेव ही नहीं, अनेक शिवालयों में शिवरात्रि पर जलाभिषेक करते हैं। पुरा महादेव के बाद मेरठ में औघडऩाथ मंदिर की सर्वाधिक मान्यता है ।
इसी संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि भगवान आशुतोष देवी गंगा को ज्येष्ठ दशहरा को इस पृथ्वी पर लेकर आए थे। गंगा उनकी जटाओं में विराजमान हुईं। इसलिए भगवान शंकर को गंगा अत्यंत प्रिय हैं । गंगाजल के अभिषेक से वह अत्यंत प्रसन्न होते हैं । इसी के साथ दुग्ध, बेलपत्र और धतूरा अर्पित करने से भगवान आशुतोष भक्त पर प्रसन्न होते हैं और उस पर कृपा करते हुए मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं । श्रावण मास भगवान शिव की साधना का सर्वश्रेष्ठ समय है । इसीलिए श्रद्धालु श्रावण मास में सोमवार के व्रत रखते हैं और भगवान भोलेशंकर की आराधना करते हुए उनके प्रिय पदार्थ उन्हें अर्पित करते हैं। उत्तर भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में श्रावण मास में शिवभक्ति का विराट रूप और आस्था का अनंत प्रवाह कांवड़ यात्रा के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
भगवान भोले शंकर की भक्ति, आस्था और श्रद्धा की प्रतीक है कांवड़ यात्रा । भोले के भक्त भगवान आशुतोष को प्रसन्न करने के लिए श्रावण माह में कांवड़ में पवित्र गंगाजल लाकर उससे भगवान आशुतोष का अभिषेक करते हैं । पिछले कुछ वर्षों में कांवड़ मेला विश्व के सबसे बड़े मेले के रूप में माना जाने लगा है । धार्मिक मान्यताओं के लिए पूरे विश्व में अलग पहचान रखने वाले भारतवर्ष के पश्चिमी उत्तरप्रदेश क्षेत्र में कांवड़ यात्रा के दौरान भोले के भक्तों में अद्भुत आस्था, उत्कट उत्साह और अगाध भक्ति के दिग्दर्शन होते हैं । कांवड़ यात्रा के दौरान राजमार्गों पर भगवा वस्त्रधारियों की अनंत श्रंखला बन जाती है । भोले बम के उद्घोष से राजमार्ग गूंजते रहते हैं । भीषण गर्मी में विषम परिस्थितियों कांवड़ लाने वालों में पुरुष, महिला और बच्चे सब शामिल रहते हैं । रंग-बिरंगी सजी कांवड़ों के संग भक्ति से झूमते श्रद्धालुओं का उत्साह देखते ही बनता है । कांवडिय़ों की सेवा के लिए लगने वाले शिविर जनमानस की सेवा भावना के प्रतीक हैं । कांवडिय़ों के लिए भोजन, जल, फल और रात्रि विश्राम की व्यवस्था इन शिविरों में होती है । विविध स्वयंसेवी संगठनों की ओर से आयोजित शिविरों में सेवा करके लोग स्वयं को धन्य महसूस करते हैं । कई बार लोगों के मन में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि कांवड़ क्यों लाई जाती है ? भगवान आशुतोष के जलाभिषेक का क्या महत्व है ?
यूं तो कांवड़ यात्रा का कोई पौराणिक संदर्भ नहीं मिलता, लेकिन कुछ किवंदतियां हैं। ऐसी मान्यता है कि भगवान परशुराम दिग्विजय के बाद जब मयराष्ट्र (वर्तमान मेरठ)से होकर निकले तो उन्होंने पुरा में विश्राम किया और वह स्थल उनको अत्यंत मनमोहक लगा । उन्होंने वहां पर शिव मंदिर बनवाने का संकल्प लिया। इस मंदिर में शिवलिंग की स्थापना करने के लिए पत्थर लाने वह हरिद्वार गंगा तट पर पहुंचे । उन्होंने मां गंगा की आराधना की और मंतव्य बताते हुए उनसे एक पत्थर प्रदान करने का अनुरोध किया। यह अनुरोध सुनकर पत्थर रुदन करने लगे । वह देवी गंगा से अलग नहीं होना चाहते थे। गंगा मां की शीतलता त्यागने का विचार उनके लिए अत्यंत कष्टदायक था। इस पर भगवान परशुराम ने आश्वस्त किया कि जो पत्थर वह ले जाएंगे, उस पर शिवरात्रि को गंगाजल से अभिषेक किया जाएगा । इस दिन सदैव वह मंदिर परिसर में विराजमान रहेंगे । इस आश्वासन के बाद हरिद्वार के गंगातट से भगवान परशुराम पत्थर लेकर आए और उसे शिवलिंग के रूप में पुरेश्वर महादेव मंदिर में स्थापित किया । तब से ऐसी मान्यता है कि शिवरात्रि पर यहां गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक करने से शिव की कृपा प्राप्त होती है । इसी मान्यता के कारण शिवभक्त कांवडिय़े तमाम कष्टों को सहते हुए हरिद्वार से गंगाजल लाकर पुरा महादेïव में शिवलिंग पर अर्पित करते हैं । इस दिन यहां कांवडिय़ों का सैलाब उमड़ पड़ता है ।
आस्था का यह पर्व अब विराट रूप धारण कर चुका है। प्रतिवर्ष करीब एक करोड़ शिवभक्त कांवडिये हरिद्वार से जल लेकर आते हैं । अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति केलिए कांवड़ लाने वाले भोले के भक्त पुरा महादेव ही नहीं, अनेक शिवालयों में शिवरात्रि पर जलाभिषेक करते हैं। पुरा महादेव के बाद मेरठ में औघडऩाथ मंदिर की सर्वाधिक मान्यता है ।
इसी संदर्भ में एक तथ्य यह भी है कि भगवान आशुतोष देवी गंगा को ज्येष्ठ दशहरा को इस पृथ्वी पर लेकर आए थे। गंगा उनकी जटाओं में विराजमान हुईं। इसलिए भगवान शंकर को गंगा अत्यंत प्रिय हैं । गंगाजल के अभिषेक से वह अत्यंत प्रसन्न होते हैं । इसी के साथ दुग्ध, बेलपत्र और धतूरा अर्पित करने से भगवान आशुतोष भक्त पर प्रसन्न होते हैं और उस पर कृपा करते हुए मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं । श्रावण मास भगवान शिव की साधना का सर्वश्रेष्ठ समय है । इसीलिए श्रद्धालु श्रावण मास में सोमवार के व्रत रखते हैं और भगवान भोलेशंकर की आराधना करते हुए उनके प्रिय पदार्थ उन्हें अर्पित करते हैं। उत्तर भारत के पश्चिमी उत्तर प्रदेश क्षेत्र में श्रावण मास में शिवभक्ति का विराट रूप और आस्था का अनंत प्रवाह कांवड़ यात्रा के रूप में दृष्टिगोचर होता है ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)
Subscribe to:
Posts (Atom)