Sunday, October 26, 2008

हुआ तिमिर का देश निकाला दीपक जलने से


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
सोने जैसा हुआ उजाला दीपक जलने से,
भाग गयाअँधियारा काला दीपक जलने से ।

आंगन आंगन, बस्ती बस्ती और सभी चौबारों पर,
सजती मोती जैसी माला दीपक जलने से ।

चमक उठे घर देहरी आंगन और गांव की चौपालें,
जगमग मन्दिर और शिवाला दीपक जलने से ।

ज्ञानोदय करने को निकली रूपहली िकरणें अंबर से,
हुआ तिमिर का देश िनकाला दीपक जलने से ।

मस्ती खुशबू, रुप सलोना और नए मीठे कुछ सपने,
जीवन बन जाता मधुशाला दीपक जलने से ।

सोने जैसी रातें लगती चांदी जैसे िदन सारे,
खुला खजाने का ताला दीपक जलने से ।

शब्दों से संगीत निकलता मन की वीणा पर रंजन,
समां गजल का बंधानिराला दीपक जलने से

(फोटो गूगल सर्च से साभार )

Friday, October 24, 2008

लडिकयों को खुद ही लडनी होगी अपनी लडाई

-डॉ अशोक प्रियरंजन
इस ब्लाग पर नारी िवमशॆ से जुडे िविभन्न मुद्दों को लेकर हुई िवचारोत्तेजक बहस में शािमल िटप्पिणयों के आधार पर यह िनष्कषॆ िनकलता है िक लडिकयों को अपनी लडाई खुद ही लडनी होगी । िजन्दगी को खुशनुमा बनाने के िलए तमाम कोिशशों की पहल उन्हीं को करनी होगी । उनकी इस लडाई में समाज और सरकार सहयोग दे तो उन्हें जल्दी मंिजल िमल जाएगी । मंिजल तक पहुंचने के िलए उन्हें समाज और सरकार की ओर देखने की अपेक्षा खुद को अिधक मजबूत करना होगा । इसके िलए सबसे जरूरी है िशक्षा । लडिकयों को इतनी िशक्षा हािसल करनी होगी जो उन्हें आत्मिनभॆर बना सके । दूसरे के सहारे िजंदगी बसर करने की िस्थित नारी को काफी कमजोर कर देती है । िशक्षा और किरयर के प्रित उन्हें बहुत सजग होने की जरूरत है । यह सजगता उन्हें आत्मिनभॆर बनाने में बहुत कारगर िसद्ध होगी । आत्मिनभॆर होने पर वह पूरे सम्मान, स्वािभमान और मनोवांिछत तरीके से िजंदगी को जी पाएंगी । िशक्षा की रोशनी उनकी पूरी िजंदगी में उजाला भर सकती है । इसमें कोई दोराय नहीं िक लडिकयों को िशक्षा हािसल करने के िलए भी एक पूरी लडाई लडनी होगी । घरवालों को अच्छी िशक्षा हािसल करने के िलए तैयार करना, स्कूल आते जाते समय मनचलों से िनपटना और िफर घर की िजम्मेदािरयों को िनभाते हुए पढाई में अच्छे नतीजे हािसल करना कोई आसान काम नहीं है । इससे भी मुिश्कल है नौकरी हािसल करना । नौकरी पा लेने के बाद पुरुषों के बीच कामयाबी हािसल करना भी जिटल चुनौती होती है । इन चुनौितयों को स्वीकार करके ही अपने अिस्तत्व को व्यापक फलक पर चमकाया जा सकता है ।
जीवनसाथी के चयन में भी जागरूकता जरूरी है । मां-बाप सही फैसला करते हैं लेिकन अगर कभी जीवनसाथी के चयन को लेकर फैसले में दोष िदखाई दे तो उस पर आपित्त करना, अपनी इच्छाओं को अिभव्यक्त करना और सही चयन के िलए तकॆ िवतकॆ करने में कोई बुराई नहीं है । एक बार की न अगर िजंदगीभर की खुिशयों के िलए हां बन सकती है तो एेसा कर लेना चािहए । जीवनसाथी से तालमेल बना रहेगा तो िजंदगी खुशगवार हो जाएगी ।
छेडछाड, दहेज उत्पीडन और पित-ससुराल वालों की ज्यादितयों से िनपटने के िलए अपने मनोबल को मजबूत करना होगा । मानवािधकारों और अपने अिधकारों के प्रित सचेत होना होगा । खुद को जूडो-कराटे जैसे प्रिशक्षण लेकर स्वयं छेडछाड से िनपटने का साहस जुटाना होगा । अन्य ज्यादितयों से कानूनी तरीके से लडाई लडी जा सकती है । इन सब लडाइयों को लडने के िलए साहस, आत्मिवश्वास और स्वाबलंबन की सबसे ज्यादा जरूरत होगी । इन सबके सहारे ही िजंदगी का मकसद हािसल िकया जा सकता है । नारी शिक्त की अथॆवत्ता और महत्ता को रेखांिकत करते हुए देश और समाज में योगदान िदया जा सकता है । िजंदगी को एेसा बनाया जा सकता है िजसमें उम्मीद की रोशनी हो, आत्मिवश्वास की मजबूती और स्वािभमान से सजे इंद्रधनुषी सपने हों और उन्हे पूरे करने की ललक आकार लेती िदखाई दे ।
(फोटो गूगल सचॆ से साभार)ं

Saturday, October 18, 2008

पुरुषवादी सोच में तबदीली से बदलेगी महिलाओं की जिंदगी

डॉ. अशोक प्रियरंजन
१२ अक्टूबर को इस ब्लाग पर िलखे अपने लेख-सुरक्षा ही नहीं होगी तो कैसे नौकरी करेंगी मिहलाएं- पर जो प्रितिक्रयाएं आईं उन्होने बहस को आगे बढाते हुए कई सवाल खडे कर िदए । इसके साथ ही वैचािरक मंथन से कुछ एेसे िनष्कषॆ भी िनकले िजन पर िवचार करना समय की जरूरत है । इसमें कोई दो राय नहीं िक पहले के मुकाबले लडिकयों और मिहलाओं की िस्थितयों में व्यापक सुधार हुआ है । समाज और सरकार दोनों स्तरों पर जो प्रयास हुए, उसी का नतीजा है िक आज लडिकयों का बहुत बडा वगॆ अपनी िजंदगी के सपनों में रंग भर सकता हैं और उन्हें दृढ संकल्पशिक्त के सहारे हकीकत में भी बदल सकता हैं । पहले की अपेक्षा लडिकयां अिधक िशिक्षत हुई हैं, उन्हें रोजगार के अवसर बढे हैं, स्वतंंत्र िनणॆय लेने के अवसर भी िमल रहे हैं । यह बदलाव बहुत सुखद संकेत है ।
इस सबके बावजूद अभी भी बहुत कुछ एेसा है जो उन्हें उनके कमजोर होने का अहसास करा देता है । यह अहसास ही एेसी पीडा है िजसको िमटाने के िलए अमृतमयी औषिध खोजनी होगी । यह औषिध समाज से ही हािसल होगी । समाज को पुरूषवादी सोच में बदलाव लाना होगा िजसके चलते संपूणॆ नारी जाित को कई तकलीफों का सामना करना पडता है ।
अब सवाल पैदा होता है िक पुृरुषवादी सोच क्या है ? इसका प्रभाव क्या है ? यह िवकास में िकस तरह से बाधक है और इसे कैसे दूर िकया जा सकता है ? दरअसल पुरुषवादी सोच ही है जो समाज और पिरवार के तमाम महत्वपूणॆ फैसलों में पुरुष की भूिमका को ही िनणाॆयक मानती है । मिहलाओं और लडिकयों के जीवन से जुडे फैसले भी पुरुष ही करते हैं । यह अलग बात है िक कई बार ये फैसले गलत हो जाते हैं पूरी उम्र वह लडकी इसका खािमयाजा भुगतती रहती है । पुरुषवादी सोच के चलते ही कोई नारी अपने जीवन के संबंध में स्वतंत्र िनणॆय नहीं ले पाती । उसकी प्रितभा का व्यापक फलक पर प्रदशॆन नहीं हो पाता । उसका आत्मिवश्वास घटता है । कदम कदम पर उसे समझौते करने के िलए िववश होना पडता है । पुरुषवादी सोच ही िकसी लडकी की पूरी िजंदगी की तस्वीर बदल देती है । अगर इस सोच में बदलाव आ पाए तो मिहलाओं की भूिमका, प्रितभा और आत्मिवश्वास व्यापक फलक पर चमककर देश और समाज के िलए और महत्वपूणॆ योगदान देने में समथॆ हो जाएगी ।
इस संबंध में रंजना की राय है िक शिक्षा अपने आप बहुत कुछ बदल देगी ।और इसके लिए जितना पुरुषों को आगे आना है उस से अधिक महिलाओं को आगे आना होगा। क्योंकि अभी जो शिक्षित स्त्रियाँ हैं और धनार्जन कर रही हैं वे अपने स्त्री समुदाय के लिए कुछ करने के बजाय अपने भौतिक सुख सुविधाओं के लिए ही धन व्यय करती हैं,अपने समाज के उत्थान की तरफ़ उनका ध्यान शायद ही जाता है स्त्रियों की दशा सुधरने में जितना कुछ पुरुषों को करना है उससे बहुत अधिक स्त्रियों को करना है । शोभा का मानना है िक नारी को स्वयं को बलवान बनाना होगा। अपनी लड़ाई वेह किसी की मदद के बिना भी जीत सकती है। उसमें अपार शक्ति है। कमी केवल उसके भीतर छिपे आतम विश्वास की है ।
स्वाित भी सोच में बदलाव की पक्षधर हैं । वह िलखती हैं िक यहाँ सिर्फ़ नारी की हिम्मत बढ़ाने की बात मत कीजिये । पुरूष-मानसिकता बदलाव की भी चर्चा कीजिये, जो इसका मूल कारन है । िववेक गुप्ता, हिर जोशी (इदॆ-िगदॆ), रचना िसंह, प्रीित वथॆवाल मानते हैं िक नारी को अभी और संघषॆ करना होगा । पलिअकारा का विचार है की लडाई तो लंबी चलेगी और महिलाओं को मजबूत होना ही होगा । मानसिकता में परिवर्तन भी धीरे धीरे ही आएगा ।
लडिकयों की सुरक्षा के संदभॆ में श्रुति की राय बडी महत्वपूणॆ है । उनका कहना है िक क्या लडकी की इज्जत और गौरवभान सिर्फ उसके शरीर से जुडा है । आत्मा की सच्चाई और दिमाग की शक्ति कोई मायने नहीं रखती । इसलिए अपनी सुरक्षा खुद कीजिए । बहार निकलिए आसमां को एक बार निहारिए अपने पंख फैलाइए और उड़जाइए । इस आसमां को फतह करने के लिए । कविताप्रयास कहती हैं आज की कामकाजी महिला को भी स्वयम रक्षा के लिए शारीरिक एवं मानसिक रूप से तैयार होना होगा | सचिन मिश्रा और रंजन राजन के मुताबिक रात में काम करने वाले सभी को सुरक्षा मिलनी चाहिए। ।
शमा की राय में लडिकयों को यह समझ लेना चािहए िक शरीर के मुकाबले उनकी रूह ज्यादा कीमती है । मिहलाओं को अपनी सुरक्षा खुद करनी होगी, समाज से उन्हें सुरक्षा की अपेक्षा छोडनी होगी । घरों में मिहलाओं की आत्मा को पल-पल घायल िकया जाता है, वहां कैसे सुरक्षा होगी ? सरीता लिखती हैं महिलाओं के लिए स्वतंत्रता की नहीं बल्कि स्वाव्लंबन की ज़रुरत है । बेहतर होगा कि आत्म निर्भर बनने के लिए महिलाएं स्वयं प्रयास करें । मुझे लगता है कि महिलाओं ्को सरकारी टेके की कोई दरकार नहीं । अपने अस्तित्व को समझते ही स्त्री संभावनाओं के आकाश में उडान भर सकेंगी ।
निर्मल गुप्त की राइ में बदलाव के लिए महिलाओं को ही पहल करनी होगी । डा कुमारेंद्र िसंह सेंगर और शैली खत्री का कहना है िक छेडछाड का मुंहतोड जवाब देकर ही असामािजक तत्वों के हौसले पस्त िकए जा सकते हैं । उनमें अगर यह भय पैदा हो गया िक लडकी थप्पड मार देगी तो वह छेडछाड का साहस नहीं कर पाएंगे । जमोस झल्ला का कहना है िक सभी लड़कियों को सुरक्षा देना सम्भव नही है, इसलिए उन्हे ख़ुद आत्मविश्वास से यह लडाई लड़नी होगी ।
राधिका बुधकर, अनिल पुसदकर, फिरदौस खान, डॉ अनुराग, प्रदीप मनोरिया, श्याम कोरी उदा, ममता, रेनू शर्मा, पारुल, लवली और डॉ वि ने भी महिलाओं के संघर्ष को रेखांकित किया
(फोटो गूगल सर्च से साभार )

Sunday, October 12, 2008

सुरक्षा ही नहीं होगी तो कैसे नौकरी करेंगी मिहलाएं

-डॉ अशोक प्रियरंजन
छह अक्टूबर को इस ब्लाग में िलखे अपने- लेख िकतनी लडाइयां लडंेगी लडिकयां -पर जो कमेंट्स आए, उन्होंने मेरे सामने कई सवाल खडे कर िदए । इन सवालों पर वैचािरक मंथन करने पर लगा िक यह िवषय अभी और िवस्तार की संभावना िलए हुए है । इस पर सार्थक बहस की गुंजाइश है । एक सवाल यह भी आया की क्या कामकाजी परिवेश महिलाओं के लिए अनुकूल है ? आज महिलाओं का शैक्षिक स्तर और रोजगार के अवसर बढे हैं, लेकिन कामकाजी परिवेश सुरक्षित नहीं है घर की चारदीवारी से बाहर निकलते ही महिलाओं को सुरक्षा की चिंता सताने लगती है । एसोचैम के ताजा सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ है कि देश की ५३ फीसदी नौकरीपेशा महिलाएं खुद को असुरक्षित मानती हैं । ८६ प्रतिशत नाइट शिफ्ट में आते-जाते समय परेशानी महसूस करती हैं । बीपीओ, आईटी, होटल इंडस्ट्री, नागरिक उड्डयन, नर्सिंग होम, गारमेंट इंडस्ट्री में लगभग ५३ प्रतिशत कामकाजी महिलाएं खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करती हैं । देश की राजधानी दिल्ली तक में ६५ फीसदी महिलाएं खुद को महफूज नहीं मानतीं हैं । बीपीओ तथा आईटी सेक्टर की महिलाओं को इसका सबसे ज्यादा खतरा सताता है । नर्सिंग होम और अस्पतालों में रात में काम करने वाली ५३ प्रतिशत महिलाओं को भी हर वक्त यही चिंता रहती है । ऐसी हालत में महिलाओं का पुरुषों के समान काम करने का सपना कैसे पूरा होगा । सच यह है की जब तक कर्येस्थालों पर सुरक्षा नहीं होगी, महिलाएं पूरे आत्मविश्वास के साथ नौकरी नौकरी नहीं कर पायेंगी ।
वास्तव में भारतीय समाज में महिलाओं का संघर्ष बहुत व्यापक है । इसकी अभिव्यक्ति ब्लॉगर के कमेंट्स से भी होती है । निर्मल गुप्त ने लिखा की इस लेख से सार्थक बहस की शुरुआत हो सकती है । इस बारे ें राधिका बुधकर का मानना है की यह समस्या समाज की हैं । स्त्री जो भी भुगत रही हैं वह संपूर्ण समाज की दुर्बल मानसिकता का परिचायक हैं । कुछ प्रबुद्ध पुरूष वर्ग स्त्री के विकास के लिए प्रयत्न कर रहा हैं ,किंतु यह नाकाफी हैं । स्त्री का जीवन तभी बदलेगा ,जब वह खुद इस दिशा में प्रयत्न करेगी । आखिर मुसीबते उसकी ही मंजिलो में रोड़ा बनकर खड़ी हैं । कुछ स्त्रियाँ ऐसा कर भी रही हैं ,किंतु कुछ के प्रयत्न करने से बहुत कुछ स्त्री विकास की आशा नही की जा सकती । सर्वप्रथम स्त्री को ही यह समझना होगा की उसे किस दिशा में व कैसे प्रयत्न करने हैं । उसे सामाजिक व आर्थिक दोनों क्षेत्रो में मजबूत होने के साथ ही ऐसे छेडछाड़ करने वाले लडको को दो थप्पड़खींच के देने हिम्मत भी करनी पड़ेगी । अगर लडकियों ने ऐसा करना शुरू किया तो इस तरह के लडको की हिम्मत भी नही रहेगी ऐसा करने की ।
समीर लाल (उड़न तश्तरी ) की राय में निश्चित ही इस दिशा में बदलाव आया है और अनेक बदलावों की आशा है । रचना ने तो ब्लागरों को ही आलोचना की । उनका कहना है की हिन्दी ब्लोगिंग मे कुछ गिने चुने ब्लॉगर ही हैं जो महिला आधारित विषयों पर महिला के दृष्टिकोण को रखते हैं । यहाँ ज्यादातर ब्लॉगर केवल और केवल एक रुढिवादी सोच से बंधे हैं जो महिला को केवल और केवल घर मे रहने वाली वास्तु समझते हैं । फिरदौस खान कहती हैं की हैरत की बात तो यह है कि पढ़े-लिखे लोग भी यह समझते हैं कि लड़किया कुछ नहीं कर सकतीं... हमारे ही ब्लॉग को कुछ ब्लोगर किसी पुरूष का ब्लॉग मानते हैं... क्या किसी लडकी को अपने विचार व्यक्त करने का अधिकार नहीं है...? अनिल पुसादकर के अनुसार लडकियों को वाकई हर मोर्चे पर लडना पड रहा है । घर के बाहर भी और भीतर भी । वंश बढाने वाली बात भी अब गले नही उतरती । आश्रमों मे जाकर बुजूर्गों को देखो तो लगता है की एक नही चार पुत्र होने के बाद ये यंहा रहने पर मज़बूर हैं तो ऐसे पुत्रों का क्या फ़ायदा । उनसे तो बेटियां हज़ार गुना अच्छी हैं । जाकिर अली रजनीश कहते हैं की यह लडाई सिर्फ लडकियों की नहीं, मानसिकता की है । और ऐसी लडाइयों के लिए कभी कभी सदिया भी नाकाफी होती हैं । लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि लडाई छोड दी जाए । ध्‍यान रखें कि लडाई जितनी कठिन हो, मंजिल उतनी आनंददायक होती है ।
रक्षंदा का मत है की ये लड़ाई सदियों से चलती आरही है और अभी जाने कब तक चलती रहेगी क्योंकि मंजिल अभी काफी दूर है..लेकिन हौसले हैं की बढ़ते जारहे हैं...और जब साथ इतने मज़बूत हौसले हों तो मंजिल देर में सही, मिलती जरूर है... डॉ अनुराग मानते हैं की हौसलों के लिए कोई बंधन नही ......ऐसी कितनी लडकिया अनसंग हीरो की तरह रोजमर्रा के जीवन में अपनी लड़ाई लड़रही है । ज्ञान का कहना है की समस्यायें तो सभी जगह और सभी को है, लड़कियाँ उनसे अलग नहीं हैं । हाँ उनकी श्रेणी ज़रूर अलग है ।
प्रीती बर्थवाल के मुताबिक कि 'कदम कदम पर एक नई लङाई का सामना करना पङता है लङकीयों को । बदलाव की उम्मीद करते ही रहते है लेकिन कब तक होगा? कुछ बदलाव हुए है लेकिन वहां भी ऐसों की कमी नही होती जो राह में रोङे न अटकाते हों । सरीता का कहना है की संचार क्रांति के इस युग में मोबाइल जैसे उपकरणों ने समाज को बहुआयामी साधन मुहैया कराए हैं , लेकिन गैर ज़िम्मेदार तौर - तरीकों ने इस बेहतरीन संपर्क साधन को घातक बना दिया है । महिलाओं की तरक्की को रोकने की ये बेहूदा हरकतें कामयाब नहीं होंगी ।
रेनू शमा का मानना है िक इस तरह के लेख पढकर लगता है िक नारी की आवाज भी कोई सुन सकता है । तरूण का कहना है िक न जाने िकतनी लडिकयां हर रोज लडाइयां लडती हैं । शैली खत्री के मुतािबक लडिकयों के लडिकयों के मामले में बहुत कुछ सुधरा है पर अभी कई मोरचे जीतने बाकी हैं । इसमें समय लगेगा। क्योंिक कुछ बदलाव हर जगह समान रूप से नहीं हुआ है। ज्योित सराफ की राय में आज तो आलम यह है िक मिहला मुसीबतों की परवाह िकए िबना अपने लक्षय को पाने के िलए आगे बढ़ रही है । वहीं पुरुष अपनी झूठी शान बचाने के िलए प्रयत्नशील है । शोभा, सीमा गुप्ता, हिर जोशी, प्रदीप मनोिरया और सिचन िमश्रा ने भी लडिकयों के संघर्ष को रेखांिकत िकया ।
वास्तव में इसमे कोई दो राय नहीं िक िस्थितयां सुधरी हैं लेिकन अभी काफी कुछ सुधार की गुंजाइश है । मिहलाओं के संघर्ष को सार्थक बनाने के िलए केवल सरकार ही नहीं बिल्क समाज के िविवध वर्गों को भी प्यास करने होंगे । तभी वह पूरे सम्मान, िनभीॆकता और आत्मिवश्वास के साथ देश के िवकास में अपना योगदान दे पाएंगी
बहस के मुद्दे- इस मुद्दे पर बहस के िलए कई सवाल उभरकर सामने आए हैं िजन पर वैचािरक मंथन िकया जाना जरूरी है । इन सवालों पर बुिद्धजीिवयों की राय अपेिक्षत है-
१-छेडछाड से लडिकयां और मिहलाएं कैसे िनबटें ।
इसकी रोकथाम के िलए क्या उपाय और िकए जाने चािहए ।
२-काजकाम का पिरवेश अनुकूल बनाने के िलए क्या प्रयास िकए जाने चािहए ।
३-मिहलाओं की िस्थित सुधारने के िलए सरकार से क्या अपेक्षाएं हैं ।
४-समाज के दृिष्टकोण में िकस तरह के बदलाव की उम्मीद की जानी चािहए ।
(फोटो गूगल सर्च से साभार )

Wednesday, October 8, 2008

रावण तेरे िकतने रूप

-डॉ अशोक प्रियरंजन
हर साल िवजयदशमी पर रावण का पुतला जलाया जाता है । पूरे देश में कागज के पुतले तो जला िदए जाते हैं लेिकन समाज में मौजूद अनेक रावण अभी भी िजंदा हैं । कागज के पुतलों से अिधक जरूरी उन रावणों को जलाना है जो पूरे देश की जनता को परेशान िकए हैं और उनके िलए िचंता का सबब बने हुए हैं । तमाम कोिशशों के बाद भी इन रावणों को अभी तक नहीं जलाया जा सका है । देश और समाज में ये रावण िविवध रूपों में मौजूद हैं और अक्सर सामने आते रहते हैं । रामराज में भोली-भाली जनता और साधु संत राक्षसरूपी रावण से भयभीत थे । आज भी आतंकवाद रूपी रावण िसर उठाये पूरे देश के सामने खडा है । यह रावण कभी मुंबई, कभी हैदराबाद, कभी िदल्ली, कभी अहमदाबाद में तबाही मचाता है । न जाने िकतने लोगों की जानें इस रावण ने ले ली हैं । िकतने घरों को आतंकवाद ने तबाह कर िदया है । इसे खत्म करना जरूरी है ।
रावण ने सीता का अपहरण िकया और बाद में यही बात उसके संहार का कारण बनी । आज िस्थित गंभीर है । न जाने देश में िकतनी मिहलाओं और लड़कियों के अपहरण होते हैं लेिकन अपहरण करने वाले बेखौफ घूमते हैं अलबत्ता कई बार अपहरण की त्रासदी के कारण नारकीज िजंदगी की आशंका से पीिडत़मिहला जरूर अपनी िजंदगी से मुंह मोड़लेती है । आज के अपहरणकतार्ता रूपी रावण को िकसी राम का भय नहीं है ।
रावण अनाचार का प्रतीक था लेिकन आज तो पूरे देश में ही भ्रष्टाचार व्याप्त है । भ्रष्टाचार में भारत ने िवश्व पटल पर अपनी पहचान बनाई है । मनुष्य का आचरण हो या सरकारी गैरसरकारी कामकाज सभी पर भ्रष्टाचार की छाया है । हर आदमी भ्रष्टाचार से त्रस्त है, इसके बावजूद पूरा देश भ्रष्टाचार से ग्रसत है । इस भ्राष्चार रूपी रावण का जब तक अंत नहीं होगा तब तक लोगों को सुकून नहीं िमल पाएगा ।
अत्याचारके िलए भी रावण का नाम िलया जाता है । आज भी देश में पग पग पर अत्याचार व्याप्त है । कहीं गरीब सताए जा रहे हैं तो कहीं मजदूरों पर अत्याचार हो रहे हैं । अत्याचार रूपी रावण अपराधी की शक्ल में आकर हत्या, चोरी, डकैती जैसी घटनाओं का कारण बनता है । यहां तक की अब मरीजों के गुर्दे् और आंखें और अन्य अंग िनकालने का भी व्यवसाय िकया जा रहा है जो शायद रावण राज में भी नही होता था । सीधे शबद्ों में कहें तो अत्याचार के मामले में तो आधुिनक युग ने रावण राज को भी पीछे छोड़ िदया है ।
रावण अनैितकता का भी प्तीक था लेिकन आज के युग में तो अनैितकता पहले से अिधक है । आज सामािजक, राजनीितक समेत अनेक क्षेत्रों में नैितक मूल्यों का पतन हुआ है । यही वजह है िक आज भी अनैितकता का बोलबाला है । इसी कारण अनेक पिवत्र संबंध भी कलुिषत होने लगे हैं । कहीं अवैध संबंध पनपे हुए हैं तो कहीं िनजी स्वाथर् के िलए आत्मीय िरश्तों को ही ितलांजिल दे दी गई है । धन के सामने सारी नैितकता गौण होने लगी है ।
तमाम तरह की कुप्रथाएं भी रावण का ही एक रूप हैं । ं दहेज प्रथा रूपी रावण तो नारी जाित का सबसे बडा दुश्मन बना हुआ है । इसी के साथ महंगाई रूपी रावण जनता का सुख चैन छीने हुए है । कहीं संपरदायवाद तो कहीं जाितवाद के रूप में जो िदखाई देता है वह भी तो रावण ही है । इन तमाम रावणों का वध जब तक नहीं होगा तब तक जनता कैसे चैन से सोएगी । सच तो यह है िक इन रावणों का वध करने के िलए जनता को ही िमलजुलकर प्रयास करने होेगे । इसके िलए हर आदमी को संकल्प लेना होगा िक वह ििवध रूपों में जो रावण मौजूद हैं, उनके िखलाफ लडाई लडेगा । तभी िस्थितयां सुधरेंगी ।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

Monday, October 6, 2008

कितनी लडाइयां लडेंगी लडकियां

-डॉ. अशोक़प्रियरंजन
मेरठ के सरधना क्षेत्र के वपारसी केे ग्रामीणों ने पंचायत के बाद जो फैसला लिया वह यह सवाल खडे करता है कि लडकियों को अपनी जिंदगी की राह में तरक्की के फूल खिलाने के लिए कितनी लडाइयां लडऩी होंगी । कॉलेज पढऩे जाते समय वपारसी की एक लडकी के कुछ छात्रों ने मोबाइल से फोटो खींच लिए थे । इसी बात से आहत होकर वपारसी के लोगों ने गांव में पंचायत की और साफ कहा कि माहौल सुधरने पर ही छात्राओं को कॉलेज भेजेंगे । छेडछाड की समस्या वास्तव में इतनी गंभीर हो गई है कि उसे बहुंत गंभीरता से लेना जरूरी है । अभी थोडे दिन पहले ही मेरठ में विदेशी युवती से बस में छेडछाड़की घटना ने जिले को शर्मसार किया । मेरठ में कई बार लडकियों के लिए कॉलेज आना जाना बहुत तकलीफदेह साबित होता है क्योंकि उन्हें कई बार मनचलों की छेडछाड़और अभद्र टिप्पणियों का सामना करना पडता है । इसी मेरठ शहर में छेडछाड़का विरोध करने पर युवती के ऊपर तेजाब डालने तक की घटना हुई है । मेरठ में वर्ष २००७ में छेडछाड़की १३६ घटनाएं दर्ज हुईं । छेडछाड़की घटनाओं की एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि लोकलाज के कारण बहुत बडी संख्या में ऐसे मामलों की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं कराई जाती है । इस कारण मनचलों के हौसले बुलंद रहते हैं । लडकियों की घटती जनसंख्या ही बड़ी चिंता का विषय बनता जा रहा है । ऊपर से ऐसी घटनाएं उनकी तरक्की में बाधा बन जाती है । उन्हें हर कदम पर आगे बढऩे के लिए संघर्ष करना होता है ।
वंश को आगे बढाने के े लिए लडके के प्रति मोह की मानसिकता, दहेजप्रथा जैसी बुराइयां समाज में प्रचलित होने के कारण कन्या भ्रूण हत्या के मामले बढ़ रहे हैं । कन्या भ्रूण हत्या रोकने के लिए भी पुख्ता व्यवस्थाएं नहीं हैं । इसी का नतीजा है कि मेरठ में एक हजार लडकों के मुकाबले लडकियों की संख्या ८५७ रह गई है । लडकियों के जन्म के बाद ही उनकी लडाई शुरू हो जाती है । भारतीय परंपरागत समाज में अभी भी लडका-लडकी का भेद बहुत गहराई से अपनी जडें जमाए हुए है । शिक्षा और विकास की तमाम स्थितियों के बाद भी लडकियों के साथ भेदभाव अभी खत्म नहीं हो पा रहा है । खासतौर से ग्रामीण अंचलों में यह समस्या गंभीर है । इसी कारण गांवों में अनेक लडकियां शिक्षा से वंचित रह जाती हैं । कई बार मां-बाप पढाना भी चाहें तो गांव में विद्यालय नहीं होते और दूसरे गांवों में वे उन्हें पढऩे नहीं भेजते । किशोरावस्था में भी उन्हें कदम कदम पर लडकी होने का अहसास कराया जाता है और इस कारण उन पर अनेक बंधन भी लगाए जाते हैं ।
उच्च शिक्षा ग्रहण करने में भी कई बार उन्हें अपनी इच्छाओं को तिलांजलि देकर परिजनों की इच्छा के अनुरूप राह चुननी होती है । कन्या महाविद्यालयों की कमी के चलते लडकियों को कई बार पढाई के सही अवसर नहीं मिल पाते हैं । कैरियर को लेकर भी उन्हें पूरी स्वतंत्रता नहीं मिल पाती है । रोजगार के कई क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें उनके े लिए कम अवसर होते हैं । जहां वह रोजगार पा लेती हैं, वहां भी उन्हें लडकी होने के नाते असुरक्षा का बोध होता रहता है । दफ्तरों में भी स्त्री पुरुष भेद की मानसिकता के कारण महिलाओं को असुविधा होती है । यही स्थिति विवाहके ामले में रहती है । विवाह के सम्बन्ध में स्वतंत्र निर्णय लेने की स्थिति लडकी की नहीं रहती है । उसकी जिंदगी का फैसला परिवार के लोग करते हैं । जीवन साथी के चयन में आजादी न मिलने के कारन कई बार उन्हें त्रासदी का सामना करना पडता है।
यह बहुत सुखद है कि इन तमाम लडाइयों को लडकर भी लडकियां तेजी से आगे बढ़रही हैं । हाल ही में घोषित उत्तराखंड न्यायि। सेवा सिविल जज (जूडि) के परिणाम के मुताबिक मुजफ्फरनगर के कांस्टेबल की बेटी ज्योति जज बन गई है । इसी मेरठ शहर की अलका तोमर ने कुश्ती, गरिमा चौधरी ने जूडो, आभा ढिल्लन ने निशानेबाजी, दौड़में पूनम तोमर ने विश्वस्तर पर महानगर का नाम रोशन किया है । लेकिन अगर लडकियों को समस्याओं से मुक्ति दिला दी जाए तो वह पूरे आत्मविश्वास के साथ कामयाबी की नई इबारत लिख सकती हैं ।

( अमर उजाला काम्पैक्ट , मेरठ के अक्टूबर २००८ के अंक में प्रकाशित )
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

Thursday, October 2, 2008

इस देश के हालात से बापू उदास हैं


दंगे औ फसादात से बापू उदास हैं,
इस देश के हालात से बापू उदास हैं ।

सपनों की जगह आंख में है मौत का मंजर,
हिंसक हुए जजबात से बापू उदास हैं ।

बढते ही जा रहे हैं अंधेरों के हौसले,
जुल्मों की लंबी रात से बापू उदास हैं ।

बंदूक बोलती है कहीं तोप बोलती,
हिंसा की शह और मात से बापू उदास हैं ।

तन पे चले खंजर तो कोई मन पे करे वार
हर पल मिले सदमात से बापू उदास हैं ।

आंसू कहीं बंटते तो कहीं दर्द मिल रहा,
ऐसी अजब सौगात से बापू उदास हैं

रंजन तुम्हारी आंख में क्यों आ गए आंसू,
इतनी जरा सी बात से बापू उदास हैं

-
डॉ. अशोक प्रियरंजन

( फोटो गूगल सर्च से साभार )