Wednesday, August 25, 2010

राष्ट्रभाषा, राजभाषा, राष्ट्रमंडल खेल और राष्ट्रीय गौरव

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
किसी भी देश की अंतरराष्ट्रीय भाषाई पहचान के लिए जरूरी है कि उसकी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। यह भाषा ऐसी हो, जिसे सीखने, उसका साहित्य पढऩे की ललक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए। भारत केसंदर्भ में यह विचारणीय विषय है कि अभी तक यहां हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका है जबकि पूरी दुनिया में यह एक लोकप्रिय भाषा के रूप में उभरकर सामने आई है। इसकी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक है। हिंदी का साहित्य बहुत समृद्ध है। बहुत बड़ी संख्या में हिंदी बोलने वाले लोग है। मारीशस, फिजी, सिंगापुर, कनाडा आदि में तो हिंदी के प्रति व्यापक रुझान दिखाई देता है।
भारत में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया है लेकिन इसके व्यापक उपयोग को लेकर सरकार की उदासीनता दिखाई देती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में हिंदी केप्रति बरती जा रही उदासीनता है। संसद में भी राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी को बढ़ावा देने की मांग उठ चुकी है लेकिन आयोजक और सरकार नहीं चेती है। राजभाषा समर्थन समिति मेरठ इस दिशा में पहल करते हुए जनआंदोलन के तेवर अख्तियार किए हुए है लेकिन इसमें अन्य संगठनों की भागीदारी और व्यापक जनसमर्थन की जरूरत है।
राष्ट्रमंडल खेलों में राजभाषा हिंदी को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है कि उस दौरान कई देशों के लोग आयोजन में शामिल होंगे। उन्हें न केवल भारतीय संस्कृति की जानकारी दी जाए बल्कि पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो रही राजभाषा हिंदी से भी परिचय कराया जाना चाहिए। ऐसा करके राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाया जा सकता है। इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि देश में हिंदी बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है और पूरी दुनिया में हिंदी को लेकर व्यापक संभावनाएं परिलक्षित हो रही हैं। फिर देश के भाषाई गौरव केशिखर पर हिंदी को प्रतिष्ठित करने में देरी क्यों? राष्ट्रमंडल खेलों के माध्यम से हिंदी को बढ़ावा देना समय की जरूरत है। इसकेलिए राजभाषा समर्थन समिति मेरठ केसुझावों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। समिति के सुझाव हैं-
1. राष्ट्रमंडल खेलों की वेबसाइट हिंदी में तुरंत बनाई जाए।
2. दिल्ली पुलिस और नई दिल्ली नगरपालिका द्वारा सभी नामपट्टों व संकेतकों में हिंदी का भी प्रयोग हो ।
3. राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान वितरित की जाने वाली सारी प्रचार सामगी हिंदी में भी तैयार की जाए।
4. राष्ट्रमंडल खेलों के आंखों देखे हाल के प्रसारण की व्यवस्था हिंदी में भी हो।
5. पर्यटकों व खिलाडियों के लिए होटलों व अन्य स्थानों हिंदी की किट भी वितरित की जाए।
6. उदघाटन व समापन समारोह भारत की संस्कृति व भाषा का प्रतिबिम्बित करते हों। सांस्कृतिक कार्यक्रम देश की गरिमा के अनुरूप हों। राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री व अन्य प्रमुख लोग अपनी भाषा में विचार व्यक्त करें।
7. राष्ट्रमंडल के देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्ययोजना तैयार की जाए।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Wednesday, August 11, 2010

गधों का अंतरराष्ट्रीय बाजार

डॉ. अशोक प्रियरंजन
चीन का सामान यूज करते करते लपूझन्ना चीन का मुरीद हो गया था। उसका मन चीन जाने को हिलोरें मार रहा था और चीन से डिमांड आई है भारत के गधों की। वह अब कभी गधों को देखता है और कभी खुद को। उसका मन अभी तक खुद को गधों से कमतर मानने को राजी नहीं हो रहा। गधों का निर्यात करने वाली कंपनी देश में गधे की कीमत १० हजार मान रही है। विदेशी मुद्रा में एक गधा लाखों का बैठेगा। लपूझन्ना यहां केबाजार में ही अपनी कीमत तलाशने में विफल रहा तो फिर विदेशी बाजार में अपनी कीमत आंकने की हिमाकत कैसे कर सकता है। जब से उसे गधों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में मांग बढऩे की खबर मिली है, तब से उसे गधों से रश्क होने लगा है।
उसे इस बात का भी मलाल हो रहा है उसे किसी महिला ने कभी प्यार से नहीं देखा जबकि चीन में गधों की मांग महिलाओं की वजह से ही पैदा हुई है। चीन की महिलाओं को गधे के चमड़े से बने पर्स और जैकेट लुभा रहे हैं। लपूझन्ना का दिल दहाड़े मार-मारकर रोने को हो आता है जब वह सोचता है कि वह किसी महिला को गले नहीं लगा सका जबकि मरने के बाद भी गधे की खास का साजो सामान महिलाओं की गले की रौनक बनेगा। चीन की महिलाओं में गधे के चमड़े से बने पर्स और जैकेट अत्यधिक लोकप्रिय हैं।
लपूझन्ना को अपने बालों पर बड़ा गुरुर था लेकिन आज तक किसी ने उसके बालों की तारीफ नहीं की। चीन की निगाह इंडियन गधों के बालों पर लगी है। वहां के लोगों को गधों के बालों से बना खास किस्म का ब्रश खूब पसंद आ रहा है। लपूझन्ना का दिल कर रहा कि अपने बालों को मुंडाकर गंजा हो जाए, अपने इन नासपीटे बालों का तो कोई फायदा ही अब तक नजर नहीं आया। कभी उसने अपनी फोटो तक इसलिए नहीं खिंचाई कि भला फिजूलखर्ची से क्या फायदा लेकिन गधों ने उससे इसमें भी बाजी मार ली। चीन से जो आर्डर आया है उसमें इंडियन गधों की तस्वीरें भी भेजी गई हैं। लपूझन्ना सोच रहा है काश वह तस्वीर खिंचवा लेता तो उसकी भी कुछ मार्केट वैल्यू बन जाती लेकिन अब पछताए होत का जब चिडिय़ा चुग गई खेत।
कॉलेज के दिनोंं उसके दोस्त गधों की बड़ी तारीफ करते थे। कहते थे कि गधा सबसे बड़ा चिंतक होता है इसीलिए वह चुपचाप घंटों एक ही स्थान पर खड़े रहकर सोचता रहता है। वह अक्सर गधों की सहनशीलता से प्रेरणा लेने की बात कहते थे क्योंकि मारपीट, लानत मलामत और तमाम टीका टिप्पणियों को बड़े धैर्य से सहते थे और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे। अब तो वह गधों की महानता का पूरी तरह कायल हो गया है। फिलहाल गुणवान गधों को देख-देखकर मलाल करने के अलावा लपूझन्ना पर कोई चारा नहीं बचा था।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)