Sunday, December 12, 2010

अमर उजाला ने किया डॉ. अशोक को सम्मानित

आज १२ दिसंबर को अमर उजाला के मेरठ संस्करण की रजत जयंती मनाई। इस मौके पर कार्यालय में आयोजित कार्यक्रम में डॉ. अशोक प्रियरंजन को उनकी सेवाओं के लिए सम्मानित किया गया। संपादक सूर्यकांत द्विेदी, महाप्रबंधक भवानी शर्मा और वरिष्ठ समाचार संपादक सुनील शाह ने संयुक्त रूप से यह सम्मान उन्हें प्रदान किया। सम्मान में अभिनंदनपत्र, प्रतीक चिह्न, नारियल, और उपहार प्रदान किया गया। अमर उजाला के मेरठ संस्करण का शुभारंभ १२ दिसंबर १९८६ को हुआ और डॉ. अशोक प्रियरंजन तभी से अमर उजाला से जुड़े हुए हैं। वर्तमान में मुख्य उपसंपादक पद पर कार्यरत डॉ. अशोक प्रियरंजन अपने वास्तविक नाम डॉ. अशोक कुमार मिश्र नाम से भी साहित्य सृजन, पत्रकारिता संबंधी लेखन, शोध कार्य और ब्लाग लेखन के माध्यम से अपनी रचनाधर्मिता को शब्दबद्ध कर रहे हैं। साहित्य, ब्लाग और पत्रकारिता संबंधी विषयों पर वह कई राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोधपत्र प्रस्तुत कर चुके हैं।

Tuesday, November 16, 2010

ब्लाग ने आम आदमी को भी बना दिया ताकतवर पत्रकार

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
महाराजा हश्चिंद्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय मुरादाबाद में १४-१५ नवंबर को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संपोषित राष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी में डॉ. अशोक कुमार मिश्र ने सूचना तकनीक और हिंदी पत्रकारिता विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत किया। शोधपत्र में उन्होंने इस तथ्य को भी स्थापित किया कि सूचना तकनीक की देन ब्लाग ने आम आदमी को पत्रकारिता की ताकत दे दी है। उन्होंने कहा कि आधुनिक युग में सूचना तकनीक ने हिंदी पत्रकारिता को बहुत गहराई से प्रभावित करते हुए जनसंचार माध्यमों के विकास में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। डॉ. मिश्र ने संगोष्ठी में कहा विज्ञान, कला और शिल्प से संवारा गया मीडिया का आधुनिक वैश्विक चेहरा न केवल जनता को लुभा रहा है बल्कि उसके लिए बहुउपयोगी बनकर जीवन व्यवहार में कई प्रकार के परिवर्तनों का कारक बन गया है। उन्होंने कहा कि सूचना तकनीक के उन्नत उपकरणों के कारण जनसंचार माध्यमों से समाचार तीव्र गति से बड़े आकर्षक कलेवर में जनता तक पहुंच जाते हैं। सूचना तकनीक ने न केवल समाचार संकलन, प्रेषण बल्कि उनके प्रस्तुतीकरण में भी सकारात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन कर दिया है। केवल कलम केसहारे पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों के स्थान पर अब सूचना तकनीक से लैस ऐसे संवाददाताओं का वर्चस्व है जो लैपटॉप, मोबाइल और इंटरनेट का भरपूर प्रयोग करते हुए दूरस्थ स्थलों से भी बहुत शीघ्रता से समाचार जनता को उपलब्ध करा देते हैं। पहले जहां पत्रकारिता के रूप में मुद्रित माध्यम की देन समाचार पत्र और पत्रिकाएं ही थीं वहीं आज सूचना तकनीक के चलते टेलीविजन, रेडियो, इंटरनेट, मोबाइल औ वीडियो मैगजीन भी उलब्ध हैं जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अत्यंत विश्वसनीय, तीव्रगामी, उपयोगी और वैश्विक बना दिया है। आधुनिक युग में व्यक्ति चाहे शिक्षित हो अथवा अनपढ़, शहर में हो अथवा सुदूर ग्रामीण अंचल में, वह सूचनाओं से वंचित नहीं है। सूचना के विस्फोट से अब कोई आदमी अछूता नहीं है। यह अलग बात है कि इसके कुछ नकारात्मक पक्ष भी हैं। इस राष्ट्रीय गोष्ठी के संयोजक डॉ. मुकेश चंद्र गुप्ता रहे।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, October 31, 2010

पलवल में आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में ब्लाग पर शोधपत्र

-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
हिंदी नवलेखन की विधाओं को विस्तार देने में ब्लाग एक महत्वपूर्ण मंच की भूमिका निभा रहा है। इसीलिए अकादमिक क्षेत्र में ब्लाग को गंभीरता से लिया जा रहा है। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा में ०९-१० अक्टूबर को ब्लागिंग की आचार संहिता विषय पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें ब्लाग के विविध पक्षों पर गंभीरता से मंथन किया गया। इसके बाद २२-२३ अक्टूबर को हरियाणा के पलवल स्थित गोस्वामी गणेश दत्त सनातन धर्म महाविद्यालय में बाजारवाद और आधुनिक हिंदी साहित्य विषय पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से संपोषित राष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की गई। गोष्ठी में हिंदी में नवलेखन के संदर्भ में ब्लाग पर भी वैचारिक विश्लेषण किया गया। इस राष्ट्रीय संगोष्ठी में मेरठ के डॉ. अशोक कुमार मिश्र ने ब्लाग का विधायी स्वरूप और उसकी भाषा संरचना विषय पर शोधपत्र प्रस्तुत किया। शोधपत्र में ब्लाग की प्रविधि केसंदर्भ में ब्लाग बनाने की सुविधा देने वाली वेबसाइट, एग्रीगेटर, यूनीकोड आदि के विषय में जानकारी देते हुए तथ्यपरक ढंग से स्थापित किया कि विगत कुछ वर्षों के मध्य ही विकसित हुई अंतर्जाल की इस आभासी दुनिया में आज नित नई साहित्यिक कृतियों का सृजन हो रहा है। ब्लाग पर रोजना समसामयिक विषयों पर आधारित विचारपूर्ण आलेख, कविताएं, कहानियां, लघुकथाएं, सूचनापरक रिपोर्ट, यात्रावृतांत, संस्मरण आदि लिखे जा रहे हैं। साहित्य की कोई विधा ऐसी नहीं है, जो ब्लाग के माध्यम से समृद्ध नहीं हो रही है। ब्लाग की भाषा संरचना के विषय में शोधपत्र में बताया गया कि परंपरागत साहित्यिक भाषा के स्थान पर जनभाषा की प्रकृति को धारण किए हुए चिट्ठों में दूसरी भाषाओं केशब्दों को आत्मसात करने की अद्भुत क्षमता दिखाई देती है। यही कारण है कि ब्लाग की भाषा में प्रयुक्त हो रही नित नवीन शब्दावली हिंदी भाषा और साहित्य को समृद्ध कर रही है। संयोजक डॉ. केशवदेव शर्मा ने संगोष्ठी का संचालन किया।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, October 24, 2010

ब्लाग में आचार संहिता नहीं, स्वअनुशासन होना चाहिए



-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
महाराष्ट्र के वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में ०९-१० अक्टूबर को ब्लागिंग की आचार संहिता विषय पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी कई मायनों में बड़ी महत्वपूर्ण रही। आज जब पूरी दुनिया में साहित्यिक और पत्रकारिता संबंधी विधाओं के उन्नयन में ब्लाग एक महत्वपूर्ण मंच की भूमिका निभा रहा है, तो यह जरूरी हो जाता है कि उस पर प्रकाशित सामग्री का विविधि दृष्टिकोण से विश्लेषण किया जाए। संगोष्ठी के संयोजक विश्वविद्यालय केआंतरिक सम्परीक्षा अधिकारी सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने इस महत्वपूर्ण पक्ष को समझकर वर्धा में ब्लागरों को एकजुट किया। इस सम्मेलन के माध्यम से कई सवाल उठे और उनके जवाब तलाशे गए। संगोष्ठी का प्रारंभ करते हुए श्री त्रिपाठी ने ब्लाग की महत्ता को रेखांकित करते हुए इसकी संभावनाओं पर प्रकाश डाला और आचार संहिता के प्रश्न को उठाया। प्रति कुलपति प्रो. अरविंदाक्षन ने भी संगोष्ठी की उपादेयता प्रतिपादित की। उद्घाटन करते हुए कुलपति व प्रसिद्ध साहित्यकार विभूति नारायण राय ने सामयिक संदर्भों का उल्लेख करते हुए कहा कि ब्लाग को बहुत गंभीरता से लिए जाने की जरूरत है। ब्लाग के माध्यम से उपलब्ध अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहीं स्वच्छंदता में न परिवर्तित हो जाए, इसकेप्रति सचेत रहना होगा। उन्होंने कहा कि ब्लागर अपनी लक्ष्मण रेखा का स्वयं निर्धारण करें।
वस्तुत: अधिकतर ब्लागर इसी बात केपक्ष में दिखाई दिए। उनकी मान्यता थी कि ब्लाग पर यदि आचार संहिता का शिकंजा कस दिया जाएगा तो उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पक्ष समाप्त हो जाएगा जो कि उसकी सबसे बड़ी विशेषता है। कुछ चिट्ठाकारों की मान्यता थी कि ब्लाग पर प्रकाशित रचनाओं का यदि नियमन किया जाएगा तो इससे इसके सामाजिक सरोकारों और सार्थकता में वृद्धि हो जाएगी। बाद में, साइबर कानून विशेषज्ञ पवन दुग्गल ने ब्लागर केनिरंकुश होने से उत्पन्न खतरों से सचेत किया और संगोष्ठी के विषय की सार्थकता को स्थापित करते हुए स्पष्ट किया कि ब्लागरों के लिए भी निश्चित रूप से कुछ नियम कायदे होने चाहिए।
प्रतिष्ठित कवि आलोक धन्वा ने कहा कि ब्लाग विस्मयकारी करने वाला है। उनके लिए शब्दों का यह अद्भुत संसार है। उन्होंने कहा कि मौजूदा दौर बहुत कठिनाइयों भरा है जहां लोकतांत्रिक मूल्यों का निरंतर लोप होता जा रहा है। ऐसे में ब्लाग पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सदुपयोग करते हुए विचार तत्वों को विस्तार दिया जा सकता है। उन्होंने कहा ब्लाग जगत में पाखंड नहीं है, जो बहुत अच्छी बात है।
संगोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे हैदराबाद से आए प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा ने कहा कि ब्लाग पर प्रस्तुत शब्द संसार को आभासी नहीं वास्तविकता से जोड़कर ही देखा जाना चाहिए। इसलिए इसमें नैतिकता के प्रश्न पर विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने ब्लाग पर पनप रही दुष्प्रवृत्तियों को आड़े हाथ लेते हुए आचार संहिता की वकालत की।
लंदन से आई कविता वाचक्नवी ने ब्लागिंग की आचार संहिता का समर्थन करते हुए लेखन में संयम बरतने की बात कही। उन्होंने कहा लेखन के माध्यम से सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए निरंकुश आचरण नहीं किया जाना चाहिए। कथाकार डॉ. अजित गुप्ता ने इस बात पर जोर दिया कि ब्लागर एक पंचायत बनाकर लेखकीय नियमन का निर्धारण करें।
कानपुर से आए अनूप शुक्ल, दिल्ली के यशवंत सिंह और हर्षवर्धन ने ब्लाग में आचार संहिता की बात को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि इससे ब्लाग की मौलिक प्रवृत्ति ही नष्ट हो जाएगी। इसकेबाद अहमदाबाद के संजय बेगाणी और दिल्ली के शैलेश भारतवासी ने विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को ब्लाग बनाने का प्रशिक्षण दिया। जनसंचार विभागाध्यक्ष डॉ. अनिल कुमार राय अंकित ने धन्यवाद ज्ञापन दिया।

संगोष्ठी
का दूसरा दिन कई चिंतनपरक आयामों से गुजरा। सभी ब्लागरों के चार समूह बनाकर विविध विषयों पर विचार मंथन किया गया और उसके निष्कर्षों को समूह प्रतिनिधि ने मंच से प्रस्तुत किया। ब्लागिंग में नैतिकता व सभ्याचरण, हिंदी ब्लाग और उद्यमिता, आचार संहिता क्यों और किसके लिए, हिंदी ब्लाग और सामाजिक सरोकार विषयों पर गहन मंथन किया गया। चार ब्लागरों के अध्ययन पत्रों का भी प्रस्तुतीकरण किया गया। डॉ. अशोक कुमार मिश्र ने ब्लागरी में नैतिकता का प्रश्न और आचार संहिता की परिकल्पना विषय पर प्रस्तुत अपने अध्ययन पत्र में उल्लेख किया कि ब्लाग में स्वअनुशासन का होना बहुत जरूरी है। अनुशासन के दायरे में रहकर ही श्रेष्ठ लेखन संभव है। ब्लाग में नैतिकता के प्रश्न का वैचारिक विश्लेषण करते हुए कहा जा सकता है कि ब्लाग में आचार संहिता की परिकल्पना के पीछे चिट्ठाकारों में स्वअनुशासन की भावना को ही विकसित करना है। लखनऊ के रवींद्र प्रभात, ब्लाग पर पीएचडी कर रही इंदौर से आई गायत्री शर्मा, दिल्ली के अविनाश वाचस्पति ने भी अध्ययनपत्र प्रस्तुत किए। उज्जैन से आए सुरेश चिपलूनकर, लखनऊ के जाकिर अली रजनीश और बंगलौर से आए प्रवीण पांडे ने ब्लाग लेखन में शाब्दिक शालीनता बरतने, सार्थक टिप्पणियां करने, ब्लाग के माध्यम से समसामयिक प्रश्नों पर विचार करने और सामाजिक सरोकारों से जोडऩे पर जोर दिया। साहित्यकार राजकिशोर, प्रियंकर पालीवाल, महेश सिन्हा, जयराम झा, विवेक सिंह, संजीत त्रिपाठी, श्रीमती अनीता कुमार, रचना त्रिपाठी, विनोद शुक्ला की उपस्थिति ने कार्यक्रम को गरिमा प्रदान की।

Monday, October 4, 2010

प्राइमरी स्कूलों की संख्या संग गुणवत्ता भी बढ़ाएं

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
लखनऊ में १८ सितंबर को हुई बैठक में उत्तर प्रदेश सरकार ने तय किया कि अब ३०० लोगों की आबादी पर एक प्राइमरी स्कूल खोला जाएगा। शिक्षा का अधिकार अधिनियम में १४ वर्ष के तक बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा देने की व्यवस्था की गई है। इसकेअनुरूप बुनियादी शिक्षण संस्थान खोलने के लिए सूबे में कवायद की जा रही है। पहले सरकार ने तय किया था कि प्रदेश में स्कूल खोलने का मानक आबादी के बजाय क्षेत्रफल रहेगा। इसके मुताबिक एक किलोमीटर के दायरे में एक स्कूल खोला जाएगा लेकिन प्रदेश प्राइमरी स्कूलों की जो हालत है, उसके मुताबिक नीति में परिवर्तन किया गया है।
प्रदेश में मौजूदा समय में १ लाख ५ हजार ५०५ प्राइमरी और ४२ हजार ७४८ उच्च प्राइमरी स्कूल हैं। प्रदेश में मौजूदा समय में जितने स्कूल हैं, उनमें नए मानक के अनुसार ३.२५ लाख सहायक अध्यापकों की जरूरत होगी।
प्राइमरी शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ाने से इससे सूबे में शिक्षा का बुनियादी ढांचा निश्चित रूप से बहुत मजबूत हो जाएगा लेकिन इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि इन स्कूलों में पर्याप्त संसाधन मुहैया कराए जाएं। सूबे में चाहे शहरी इलाके के स्कूल हों, या सुदूर ग्रामीण अंचलों के, सभी में बुनियादी संसाधनों का निहायत अभाव दिखाई देता है।
बड़ी संख्या में स्कूल खस्ताहाल भवनों में चल रहे हैं। अनेक स्कूल किराए की ऐसी इमारतों में चल रहे हैं जिनमें पढ़ाई करना किसी खतरे को मोल लेने से कम नहीं हैं। जिन स्कूलों के अपने भवन भी हैं वहां भी ऐसी इमारतों की संख्या ज्यादा है, जो पुराने हो चुके हैं और मरम्मत न होने के कारण गिराऊ हालत में पहुंच चुके हैं। मेरठ में तो स्कूल की हालत इतनी जर्जर थी कि पड़ोस के एक व्याक्ति ने उसे खुद ही ध्वस्त करा दिया ताकि कोई हादसा न हो जाए। गाहे-बगाहे प्राइमरी स्कूल के जर्जर भवनों की छत आदि गिरने की खबरें अखबारों में छपती भी रहती हैं। कॉम्पैक्ट ने भी सूबे में पड़ताल की तो प्राइमरी स्कूलों की खस्ताहाल तस्वीर को उजागर हुई जहां मौत के साये में मासूम पढ़ाई कर रहे हैं। खतरों की पाठशाला बने ऐसे स्कूलों में बच्चे और शिक्षक दोनों ही दुर्घटना की आशंका से सहमे रहते हैं।
संसाधनों की भी भारी कमी प्राइमरी स्कूलों में दिखाई देती हैं। कहीं टाट-पट्टी फटी हुई हैं तो कहीं ब्लैक बोर्ड की खस्ताहालत है। शिक्षकों के बैठने के लिए कुर्सियां कहीं कम हैं तो कहीं पुरानी और जर्जर हैं। अनेक स्कूलों में टायलेट की व्यवस्था न होना भी विद्यार्थियों शिक्षकों केलिए परेशानी का सबब बन जाता है। स्कूलों में नियमित सफाई का भी इंतजाम नहीं हो पाता है। बिजनौर में १८ सितंबर को उच्च प्राइमरी स्कूल कुरी बंगर में गंदगी पर पाए जाने पर जिला बेसिक शिक्षाधिकारी वरूण कुमार सिंह हेड मास्टर को निलंबित कर दिया तथा अन्य स्टाफ को हटा दिया। बीएसए के मुताबिक निरीक्षण में बहुउददेशीय कक्ष की छत पर घास पाई गई तथा छत पर पानी भरा है दीवारों में सीलन एवं दरार आ गई है। शौचालय एवं मूत्रालय में भूसा एवं टूटी हुई कुर्सियां भरी पाई गर्इं।
शिक्षकों की भारी कमी प्राइमरी स्कूलों में है। ऐसे अनेक स्कूल हैं जो एक या दो शिक्षकों के सहारे चल रहे हैं। मौजूदा समय में सूबे में शिक्षकों की कमी के चलते १४ हजार २७४ एकल और १३८७ स्कूल बंद हो चुके हैं। इसकी एक वजह यह भी है कि बीच में कई वर्ष ऐसे रहे जब शिक्षक सेवानिवृत तो होते रहे लेकिन भर्ती नहीं की गई।
इन कारणों से प्राइमरी शिक्षा की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई। शिक्षकों की कमी का असर स्कूलों की विद्यार्थी संख्या पर पड़ा। स्कूलों में छात्र के प्रवेश घटे और जिन्होंने दाखिले लिए वे कक्षा में कम दिन उपस्थित रहते। इसका सीधा असर उनकी पढ़ाई पर पड़ा।
ऐसी स्थिति में जरूरी है कि स्कूलों की संख्या बढ़ाने के साथ ही संसाधनों को भी विकसित करने की ओर ध्यान दिया जाए। साथ ही स्कूलों में पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध कराई जाएं। अच्छे भवनों में विद्यार्थियों की पढ़ाई की व्यवस्था की जाए। शिक्षकों की संख्या भी छात्रों केअनुपात में हो। यह सब होगा तो विद्यालय में पढ़ाई में विद्यार्थियों का मन लगेगा और वह अच्छे शैक्षिक परिणाम देने में समर्थ होंगे। तभी शिक्षा की सार्थकता सिद्ध हो पाएगी और विद्यालय श्रेष्ठ नागरिक तैयार करने में समर्थ हो सकेंगे।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, September 12, 2010

राष्ट्रभाषा चयन के लिए हो मतदान, हिंदी का बढ़ जाएगा मान


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
आजादी के ६३ सालों बाद भी देश में राष्ट्रभाषा घोषित न किया जाना सरकारों की कमजोरी का परिचायक है। इस दौरान कई सरकारें आईं और गईं लेकिन देश की नेतृत्व भाषा को पहचान देने की दिशा में कोई खास कदम नहीं उठाए गए। इसमें कोई दो राय नहीं राजभाषा हिंदी बोलने वाले लोगों की संख्या देश में सर्वाधिक है। विदेशों में भी इस भाषा को जानने और सीखने की ललक व्यापक स्तर पर दिखाई देती है। हिंदी भाषा का शब्दकोश समृद्ध है और विविध विधाओं में प्रचुर मात्रा में इसका साहित्य है। हिंदी में रोजगार की भी व्यापक संभावनाएं हैं। कंप्यूटर पर भी लिखने-पढऩे की सहूलियत भी इस भाषा में है। ऐसे में जरूरी है कि हिंदी को राष्ट्रभाषा घोषित कर दिया जाए। प्रश्न यह उठता है कि इस संबंध में क्या बाधाएं हैं और उसका समाधान कैसे हो?
सत्तारूढ़ दल अभी तक राजनीतिक तुष्टिकरण की नीति पर चलते हुए राष्ट्रभाषा घोषित करने से इसलिए बचते रहे क्योंकि वह अन्य भाषा भाषियों को नाराज नहीं करना चाहते हैं। कहीं से विरोध के स्वर न उठें, इसीलिए वह राष्ट्रभाषा केमुद्दे पर चुप्पी साधे रहते हैं?
मेरी दृष्टि में इस समस्या का आसान सा समाधान है जिसे सरकार सहजता से अमल भी कर सकती है। हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में जी रहे हैं। लोकतंत्र में जब कोई मुद्दा समस्या बन जाए, तो मतदान से उसका हल निकाला जा सकता है।
मेरी ओर से हिंदी दिवस के मौके पर यह सुझाव है कि राष्ट्रभाषा चुनने के लिए मतदान करा लिया जाए। इसके लिए अलग से व्यवस्था करने की जरूरत नहीं है, बल्कि आगामी संसदीय चुनावों के दौरान जब लोग अपना सांसद चुनें तभी उन्हें राष्ट्रभाषा चुनने के लिए भी एक दूसरा मतपत्र दे दिया जाए। संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं को मतपत्र में स्थान देकर राष्ट्रभाषा चुनने के पक्ष में मतदान करा लिया जाए। इस स्थिति में जो भी भाषा चुनकर आएगी, उस पर कहीं से विरोध की स्थिति नहीं रह जाएगी। यह अलग बात है कि हिंदी भाषियों की जिस तरह से संख्या बढ़ी है, उससे हिंदी केराजभाषा से राष्ट्रभाषा बन जाने की प्रबल संभावनाएं हैं। आपकी इस बारे में क्या राय है। हिंदी दिवस २०१० को सार्थक बनाने के लिए आप इस मुद्दे पर अपनी राय टिप्पणी के रूप में अवश्य लिखें।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Wednesday, August 25, 2010

राष्ट्रभाषा, राजभाषा, राष्ट्रमंडल खेल और राष्ट्रीय गौरव

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
किसी भी देश की अंतरराष्ट्रीय भाषाई पहचान के लिए जरूरी है कि उसकी एक राष्ट्रभाषा होनी चाहिए। यह भाषा ऐसी हो, जिसे सीखने, उसका साहित्य पढऩे की ललक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होनी चाहिए। भारत केसंदर्भ में यह विचारणीय विषय है कि अभी तक यहां हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा नहीं मिल सका है जबकि पूरी दुनिया में यह एक लोकप्रिय भाषा के रूप में उभरकर सामने आई है। इसकी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक है। हिंदी का साहित्य बहुत समृद्ध है। बहुत बड़ी संख्या में हिंदी बोलने वाले लोग है। मारीशस, फिजी, सिंगापुर, कनाडा आदि में तो हिंदी के प्रति व्यापक रुझान दिखाई देता है।
भारत में हिंदी को राजभाषा घोषित किया गया है लेकिन इसके व्यापक उपयोग को लेकर सरकार की उदासीनता दिखाई देती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में हिंदी केप्रति बरती जा रही उदासीनता है। संसद में भी राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी को बढ़ावा देने की मांग उठ चुकी है लेकिन आयोजक और सरकार नहीं चेती है। राजभाषा समर्थन समिति मेरठ इस दिशा में पहल करते हुए जनआंदोलन के तेवर अख्तियार किए हुए है लेकिन इसमें अन्य संगठनों की भागीदारी और व्यापक जनसमर्थन की जरूरत है।
राष्ट्रमंडल खेलों में राजभाषा हिंदी को बढ़ावा देना इसलिए भी जरूरी है कि उस दौरान कई देशों के लोग आयोजन में शामिल होंगे। उन्हें न केवल भारतीय संस्कृति की जानकारी दी जाए बल्कि पूरी दुनिया में लोकप्रिय हो रही राजभाषा हिंदी से भी परिचय कराया जाना चाहिए। ऐसा करके राष्ट्रीय गौरव को बढ़ाया जा सकता है। इस सत्य से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि देश में हिंदी बोलने वालों की संख्या सर्वाधिक है और पूरी दुनिया में हिंदी को लेकर व्यापक संभावनाएं परिलक्षित हो रही हैं। फिर देश के भाषाई गौरव केशिखर पर हिंदी को प्रतिष्ठित करने में देरी क्यों? राष्ट्रमंडल खेलों के माध्यम से हिंदी को बढ़ावा देना समय की जरूरत है। इसकेलिए राजभाषा समर्थन समिति मेरठ केसुझावों को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। समिति के सुझाव हैं-
1. राष्ट्रमंडल खेलों की वेबसाइट हिंदी में तुरंत बनाई जाए।
2. दिल्ली पुलिस और नई दिल्ली नगरपालिका द्वारा सभी नामपट्टों व संकेतकों में हिंदी का भी प्रयोग हो ।
3. राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान वितरित की जाने वाली सारी प्रचार सामगी हिंदी में भी तैयार की जाए।
4. राष्ट्रमंडल खेलों के आंखों देखे हाल के प्रसारण की व्यवस्था हिंदी में भी हो।
5. पर्यटकों व खिलाडियों के लिए होटलों व अन्य स्थानों हिंदी की किट भी वितरित की जाए।
6. उदघाटन व समापन समारोह भारत की संस्कृति व भाषा का प्रतिबिम्बित करते हों। सांस्कृतिक कार्यक्रम देश की गरिमा के अनुरूप हों। राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री व अन्य प्रमुख लोग अपनी भाषा में विचार व्यक्त करें।
7. राष्ट्रमंडल के देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्ययोजना तैयार की जाए।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Wednesday, August 11, 2010

गधों का अंतरराष्ट्रीय बाजार

डॉ. अशोक प्रियरंजन
चीन का सामान यूज करते करते लपूझन्ना चीन का मुरीद हो गया था। उसका मन चीन जाने को हिलोरें मार रहा था और चीन से डिमांड आई है भारत के गधों की। वह अब कभी गधों को देखता है और कभी खुद को। उसका मन अभी तक खुद को गधों से कमतर मानने को राजी नहीं हो रहा। गधों का निर्यात करने वाली कंपनी देश में गधे की कीमत १० हजार मान रही है। विदेशी मुद्रा में एक गधा लाखों का बैठेगा। लपूझन्ना यहां केबाजार में ही अपनी कीमत तलाशने में विफल रहा तो फिर विदेशी बाजार में अपनी कीमत आंकने की हिमाकत कैसे कर सकता है। जब से उसे गधों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में मांग बढऩे की खबर मिली है, तब से उसे गधों से रश्क होने लगा है।
उसे इस बात का भी मलाल हो रहा है उसे किसी महिला ने कभी प्यार से नहीं देखा जबकि चीन में गधों की मांग महिलाओं की वजह से ही पैदा हुई है। चीन की महिलाओं को गधे के चमड़े से बने पर्स और जैकेट लुभा रहे हैं। लपूझन्ना का दिल दहाड़े मार-मारकर रोने को हो आता है जब वह सोचता है कि वह किसी महिला को गले नहीं लगा सका जबकि मरने के बाद भी गधे की खास का साजो सामान महिलाओं की गले की रौनक बनेगा। चीन की महिलाओं में गधे के चमड़े से बने पर्स और जैकेट अत्यधिक लोकप्रिय हैं।
लपूझन्ना को अपने बालों पर बड़ा गुरुर था लेकिन आज तक किसी ने उसके बालों की तारीफ नहीं की। चीन की निगाह इंडियन गधों के बालों पर लगी है। वहां के लोगों को गधों के बालों से बना खास किस्म का ब्रश खूब पसंद आ रहा है। लपूझन्ना का दिल कर रहा कि अपने बालों को मुंडाकर गंजा हो जाए, अपने इन नासपीटे बालों का तो कोई फायदा ही अब तक नजर नहीं आया। कभी उसने अपनी फोटो तक इसलिए नहीं खिंचाई कि भला फिजूलखर्ची से क्या फायदा लेकिन गधों ने उससे इसमें भी बाजी मार ली। चीन से जो आर्डर आया है उसमें इंडियन गधों की तस्वीरें भी भेजी गई हैं। लपूझन्ना सोच रहा है काश वह तस्वीर खिंचवा लेता तो उसकी भी कुछ मार्केट वैल्यू बन जाती लेकिन अब पछताए होत का जब चिडिय़ा चुग गई खेत।
कॉलेज के दिनोंं उसके दोस्त गधों की बड़ी तारीफ करते थे। कहते थे कि गधा सबसे बड़ा चिंतक होता है इसीलिए वह चुपचाप घंटों एक ही स्थान पर खड़े रहकर सोचता रहता है। वह अक्सर गधों की सहनशीलता से प्रेरणा लेने की बात कहते थे क्योंकि मारपीट, लानत मलामत और तमाम टीका टिप्पणियों को बड़े धैर्य से सहते थे और कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते थे। अब तो वह गधों की महानता का पूरी तरह कायल हो गया है। फिलहाल गुणवान गधों को देख-देखकर मलाल करने के अलावा लपूझन्ना पर कोई चारा नहीं बचा था।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Saturday, July 31, 2010

उफ ! फीस न दे पाने और स्कूल में पोंछा लगवाने पर छात्रा ने जान दी

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
सहारनपुर के नागल क्षेत्र के भलस्वा गांव में हुई १३ साल की लक्ष्मी की खुदकुशी की घटना न केवल हर आदमी को झकझोरने वाली है, बल्कि हमारी शिक्षा व्यवस्था और सरकारी सुविधाओं की पोल भी खोलती है। अभी तक मासूम लक्ष्मी की मौत के पीछे जो कारण बताए रहे हैं, वह हमारी व्यवस्था पर कई सवाल खड़े करते हैं। बताया जा रहा है कि तीसरी कक्षा की छात्रा लक्ष्मी को फीस न लाने के लिए स्कूल में प्रताडि़त किया गया था। दूसरा कारण ये बताया जा रहा है कि उससे स्कूल में जबरन झाड़ू पोंछा लगवाया जाता था। दरअसल लक्ष्मी का परिवार मुफलिसी का शिकार था। उसका पिता पांच साल से लापता है। आर्थिक संकट के चलते लक्ष्मी की मां रेनू स्कूल की फीस नहीं दे पा रही थी। यह भी गरीबी और सामाजिक रूप से कमजोर होने का ही नतीजा था कि घटना के बाद मौके पर जिलाधिकारी तो पहुंचे लेकिन मामले की रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई।
यह घटना इस बात की पोल खोलती है कि गरीबों को पढ़ाई का सपना पूरा करना आसान नहीं है। गरीबी के चलते ही न केवल उन्हें अपमानजनक और तिरस्कारपूर्ण स्थितियों का सामना करना पड़ता है बल्कि कई किस्म की लड़ाइयां रोजमर्रा की जिंदगी में लडऩी पड़ती हैं। यही कारण हैं कि मासूम आंखों के सपने आकार लेने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। जरूरी है कि सरकार ऐसा माहौल बनाए कि हर आंख में सपने सजें और वह पूरे भी हों।
( फोटो गूगल सर्च से साभार )

Wednesday, July 28, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी प्रयोग के लिए होगा संघर्ष, प्रस्ताव पारित

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
नई दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में 27 जुलाई की शाम जुटे हिंदीप्रेमियों ने एक स्वर में राष्ट्रमंडल खेलों में राजभाषा हिंदी का प्रयोग किए जाने के लिए संघर्ष करने का फैसला किया। इसे राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न मानकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीयता की पहचान को प्रखर बनाने के लिए सर्वसम्मति से कुछ प्रस्ताव पारित किए गए। राजभाषा समर्थन समिति मेरठ, अक्षरम एवं वाणी प्रकाशन की ओर से आयोजित गोष्ठी पारित प्रस्ताव निम्नांकित हैं-
1. राजभाषा समर्थन समिति मेरठ एवं अक्षरम के संयोजन में एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिंमंडल जिसमें सांसद, पत्रकार, साहित्यकार शामिल होंगे गृहमंत्री, गृहराज्यमंत्री, दिल्ली की मुख्यमंत्री, राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष, खेल मंत्री से मुलाकात कर राजभाषा हिंदी के प्रयोग का प्रश्न उनके संज्ञान में लाएगा।
2. संसद व मीडिया में इस प्रश्न को उठाने के लिए सांसदों तथा मीडियाकर्मियों से संपर्क किया जाए।
3. राष्ट्रमंडल खेलों की वेबसाइट हिंदी में तुरंत बनाई जाए।
4. दिल्ली पुलिस और नई दिल्ली नगरपालिका द्वारा सभी नामपट्टों व संकेतकों में हिंदी का भी प्रयोग हो ।
5. राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान वितरित की जाने वाली सारी प्रचार सामगी हिंदी में भी तैयार की जाए।
6. राष्ट्रमंडल खेलों के आंखों देखे हाल के प्रसारण की व्यवस्था हिंदी में भी हो।
7. पर्यटकों व खिलाडियों के लिए होटलों व अन्य स्थानों हिंदी की किट भी वितरित की जाए।
8. उदघाटन व समापन समारोह भारत की संस्कृति व भाषा का प्रतिबिम्बित करते हों। सांस्कृतिक कार्यक्रम देश की गरिमा के अनुरूप हों। राष्ट्रपति , प्रधानमंत्री व अन्य प्रमुख लोग अपनी भाषा में विचार व्यक्त करें।
9. राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी के प्रयोग के लिए एक जनअभियान चलाया जाए और सरकार द्वारा सुनवाई न किये जाने पर जंतरमंतर व अन्य स्थानों पर धरने व प्रदर्शन की योजना बनाए जाए।
10. इस अवसर का उपयोग करते हुए राष्ट्रमंडल के देशों में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए कार्ययोजना तैयार की जाए।
कार्यक्रम में डॉ. रत्नाकर पांडेय , कलराज मिश्र, हुक्मदेव नारायण यादव, प्रदीप टमटा , राजेन्द्र अग्रवाल ( सांसद) पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक, रामशरण जोशी, साहित्यकार डॉ. गंगा प्रसाद विमल, कमेट्रेटर जसदेव सिंह, रवि चतुर्वेदी, हिंदी सेवी महेश शर्मा, नारायण कुमार, प्रो. नवीन चंद्र लोहनी आदि ने अपने विचार व्यक्त किए। गोष्टी का संयोजन अक्षरम के अध्यक्ष अनिल जोशी ने किया।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, July 23, 2010

राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी का परचम फहराने को उठे हाथ

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर सभी भारतवासी उत्साहित हैं। इन खेलों से देश का गौरव बढ़ेगा। बड़ी संख्या में आने वाले विदेशी मेहमानों को भारतीय संस्कृति से रू-ब-रू होने का मौका मिलेगा। ऐसे में जरूरी है कि वह यहां की सर्वाधिक लोकप्रिय भाषा हिंदी से भी साक्षात्कार करें। इसकेलिए जरूरी है कि राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़ी समस्त भाषिक सामग्री हिंदी में भी उपलब्ध हो। इसकेलिए एकजुट होकर प्रयास होने चाहिए। मेरठ से बीती सात जुलाई को राजभाषा समर्थन समिति ने इसकेलिए मुहिम शुरू की। विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रोफेसर नवीन चंद्र लोहनी के प्रयासों से बृहस्पति भवन में आयोजित कार्यक्रम में सांसद राजेंद्र अग्रवाल समेत अनेक हिंदी प्रेमी वक्ताओं ने राष्ट्रमंडल खेलों में हिंदी को बढ़ावा देने की मांग जोरदार तरीके से उठाई।
अब २७ को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में सम्मेलन
दिल्ली स्थित इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में २७ जुलाई को सायं साढ़े पांच बजे आयोजित हिंदीसेवियों के सम्मेलन में इस मुहिम को आगे बढ़ाने की रणनीति बनेगी। समिति ने ज्यादा से ज्यादा लोगों से आयोजन में शामिल होने की अपील की है।
मुख्य मांग
खेलों में हिन्दी भाषा का प्रयोग विज्ञापनों/होर्डिंग्स/सरकारी प्रपत्रों तथा आयोजक संस्थाओं द्वारा अनिवार्यत: किया जाए, जिससे देश की गरिमा का आभास दुनियाँ को हो। न्यूयार्क में संपन्न आठवें अन्तरराष्ट्रीय विश्व हिन्दी सम्मेलन में हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर सुदृढ़ करने तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बनाने का अभियान प्रमुखता से लिया गया था । यह अवसर है कि हम उस विशिष्ट अवसर पर लिए गए संकल्प को लागू कराएँ।
राष्ट्रमण्डल खेल और हिन्दी की संभावनाएं
1. जब चीन में ओलंपिक खेलों के दौरान चीनी भाषा का प्रयोग हो सकता है तो भारत में आयोजित खेलों की नियमावली और होर्डिंग्स, सूचनाओं का आदान-प्रदान, प्रसारण तथा सरकारी एवं आयोजक संस्थाओं के प्रपत्रों का लेखन हिन्दी में क्यों नहीं हो सकता।
2. आयोजन में आने वाले गैर हिन्दी भाषी खिलाडिय़ों और प्रतिनिधियों को अनुवादक उपलब्ध कराए जा सकते हैं। जैसा कि प्राय: हर अन्तरराष्ट्रीय आयोजन में अन्य भाषा-भाषी लोग करते हैं।
3. राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग द्वारा हम भारत की छवि को पूरी दुनियाँ के सामने मजबूती के साथ स्थापित कर सकते हैं।
4. यदि हम राष्ट्रमण्डल खेलों में हिंदी प्रयोग करते हैं तो अनुवादकों की आवश्यकता पड़ेगी। इससे अनुवादकों को रोजगार प्राप्त होगा।
5. राष्ट्रमण्डल खेल हिन्दी भाषा के लिए बड़ी संभावनाओं को खोल सकते हैं, अगर हम हिंदी का इन खेलों के दौरान अधिक से अधिक प्रयोग करेंगे। इससे विदेशी लोगों का भी हिन्दी के प्रति आकर्षण बढ़ेगा तथा इससे हिंदी के शिक्षण, पठन-पाठन की विदेशों में भी संभावनाएं बढ़ेंगी।
6. अनुच्छेद 344 के अनुसार राष्ट्रपति हिंदी भाषा की बेहतरी के लिए भाषा आयोग का गठन करेंगे। राष्ट्रमण्डल खेल भारत में हो रहे हैं, परन्तु हिन्दी भाषा को संवर्धित करने के लिए संविधान में दी गई भाषा संबंधी व्यवस्था का पालन नहीं हो रहा है, ऐसे में जरूरी है कि जन जागृति द्वारा प्रबुद्ध नागरिक राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग को लेकर सरकार का ध्यान आकर्षित करें।
7. राष्ट्रमण्डल खेलों में हिन्दी के प्रयोग द्वारा हम उस रूढ़ मानसिकता पर भी चोट कर सकते हैं जो अंग्रेजी के प्रयोग द्वारा निज विशिष्टता सिद्ध करती रही है, यह हिंदी के भूगोल और मानसिकता को परिवर्तित करने का अवसर भी है।
समिति संपर्क सूत्र
राजभाषा प्रयोग के इस क्रान्तिकारी अभियान को परिणाम तक पहुँचाने के लिए राजभाषा समर्थन समिति व्यापक जनसहयोग चाहती है। आयोजन से जुड़े हुए सरकारी विभागों एवं संस्थाओं से भी आग्रह किया जाना चाहिए। समिति समपर्क सूत्र हैं -
नवीन चन्द्र लोहनी एवं समस्त साथी, राजभाषा समर्थन समिति,
हिन्दी विभाग, चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ (उ0 प्र0) मो.नं. 09412207200/09412885983/9758917725/9258040773/9897256278

Tuesday, June 8, 2010

अपमान झेलती प्रतिमाएं

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
ज्ञानपुर के गांधी उद्यान में स्थापित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की प्रतिमा पर ३० मई की रात कुछ शरारती तत्वों ने शराब की बोतल फोड़कर एक फटा-पुराना कंबल लपेट दिया। राष्ट्रपिता के अपमान से जब स्थानीय कांग्रेसी भड़क उठे और धरना-प्रदर्शन करने लगे, तब प्रशासन ने जांच का आश्वासन देकर मामला रफा-दफा किया। इस घटना के एक दिन पहले ही मेरठ में चौधरी चरण सिंह की प्रतिमा के पास गंदगी का अंबार देखकर भाजपाई भड़क गए थे। इसकी वजह यह थी कि जब पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की २३वीं पुण्यतिथि पर सांसद राजेंद्र अग्रवाल की अगुवाई में लोग श्रद्धांजलि देने कमिश्नरी पार्क पहुंचे, तो वहां प्रतिमा के आसपास काफी गंदगी पसरी हुई थी।
इसी तरह, २३ सितंबर, २००८ को जम्मू के मुबारक मंडी कांप्लेक्स में राष्ट्रपिता की मूर्ति के गले में रस्सी बांधकर रोशनी के लिए लाइट लटका दी गई थी। एक समारोह की तैयारियों में जुटे टेंट हाउस के कर्मचारी बापू की प्रतिमा पर चढ़ गए। पूरे देश में महापुरुषों की प्रतिमाओं की यही दशा है। समझ में नहीं आता कि जब हम प्रतिमाओं का सम्मान ही नहीं कर सकते, तो उन्हें स्थापित क्यों करते हैं? क्या महज राजनीतिक स्वार्थ पूर्ति के लिए?
पूरी दुनिया में महापुरुषों की प्रतिमाएं लगाई जाती हैं। भारत में भी बड़ी संख्या में महापुरुषों की प्रतिमाएं स्थापित हैं। कोई शहर ऐसा नहीं, जहां प्रतिमाएं न हों। प्रतिमा स्थापित करने के पीछे दरअसल मंशा यही होती है कि लोग संबंधित महापुरुष के आदर्शों से प्रेरणा लें और उनके बताए मार्ग पर चलकर समाज और देश के विकास में योगदान दें। इसके लिए जरूरी है कि प्रतिमा स्थापना के बाद उसके रखरखाव, सफाई और सुरक्षा पर भी पूरा ध्यान दिया जाए। प्रतिमाएं खुद बदहाल स्थिति में रहेंगी, तो कोई उनसे प्रेरित कैसे होगा? ज्यादातर प्रतिमाएं खुले में लगी हैं, जाहिर है, मौसम भी उनके रंग-रूप को बदरंग करता है। ऐसे मे, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि कैसे महापुरुषों की प्रतिमाओं के सम्मान की रक्षा की जाए। यह प्रतिमा लगाते समय ही सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
महापुरुषों के जन्मदिवस और पुण्यतिथि पर पूरे देश में समारोह आयोजित होते हैं। कुछ महापुरुषों के जन्मदिवस या निर्वाण दिवस को सरकारी अवकाश भी दिया जाता है, ताकि हम उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार कर सकें। लेकिन इन अवकाशों के मायने अब पूरी तरह बदल गए हैं। उस दिन लोग महापुरुष को याद करने के बजाय अपने दूसरे कामों में व्यस्त रहते हैं।
महापुरुषों के जीवन के विविध पक्ष नई पीढ़ी के लिए हमेशा से प्रेरणादायक रहे हैं। इसीलिए पहले बुजुर्ग बच्चों को महापुरुषों के संस्मरण सुनाया करते थे। एकल परिवारों के युग में इसकी गुंजाइश ही नहीं बची। महापुरुषों की जीवनियां सिर्फ पाठ्यक्रमों में ही बच्चों को पढऩे को मिल पाती हैं, क्योंकि पुस्तक खरीदने की प्रवृत्ति भी परिवारों में घट रही है। अत: हमें विचार करना होगा कि बच्चे कैसे महापुरुषों के जीवन से जुड़े विविध प्रसंगों से अवगत हो पाएंगे?
समाज में जिस तरह से नैतिकता का पतन हो रहा है, जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हो रहा है, नई पीढ़ी में दिशाहीनता और भटकाव की स्थितियां दिखाई दे रही हैं, सांस्कृतिक मान्यताओं व परंपराओं के साथ खिलवाड़ हो रहा है, उसे ध्यान में रखते हुए महापुरुषों के विचारों एवं आदर्शों का प्रचार-प्रसार करना होगा, तभी समाज सही दिशा में आगे बढ़ पाएगा।
(इस लेख को अमर उजाला के ८ जून २०१० के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर भी पढा जा सकता है । फोटो गूगल सर्च से साभार)

Monday, May 31, 2010

घटता आत्मविश्वास, बढ़ती आत्महत्याएं

डॉ. अशोक प्रियरंजन
आजकल जिस तरह से विद्यार्थियों में आत्महत्याएं करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है, उससे तो यही लगता है कि कहीं न कहीं आत्मविश्वास की कमी के चलते ही यह घटनाएं होती रहती हैं। सीबीएसई की १२वीं की परीक्षा में फेल होने पर रुड़की की आवास विकास कॉलोनी के प्रदीप चौधरी के बेटे १७ वर्षीय सुमित ने गोली मारकर आत्महत्या कर ली। ऐसा पहली बार नहीं हुआ, हर बार जब भी परीक्षा परिणामों की घोषणा होती है, तभी देश के हर हिस्सों से कुछ ऐसी ही खबरें आती हैं।
दरअसल, आज अभिभावक बच्चों से पढ़ाई और करियर को लेकर बहुत अधिक उम्मीदें रखने लगे हैं। माता-पिता की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए वे जी-तोड़ मेहनत भी करते हैं, लेकिन कई बार वे अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते हैं, तो निराशा में आत्महत्या कर लेते हैं। देश में हर साल करीब २४०० छात्र परीक्षा के तनाव या फिर फेल होने पर खुदकुशी करने जैसा कदम उठाते हैं। वर्तमान शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी की मेधा का निर्धारण करने का मानक अर्जित अंकों का प्रतिशत बन गया है। विद्यार्थी मेधावी है, लेकिन यदि उसके परीक्षाफल में अच्छे अंक नहीं आते तो कोई भी उसकी मेधा को स्वीकार नहीं करता है। यह अलग बात है कि कई बार दूसरे कारणों के चलते एक सामान्य विद्यार्थी अधिक अंक ले आता है, जबकि मेधावी विद्यार्थी इस मामले में पिछड़ जाता है। इसी सत्य को पहचान करके अंकों के बजाय ग्रेडिंग सिस्टम को अब तरजीह दी जा रही है। यह वक्त की जरूरत है और विद्यार्थियों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति को रोकने के लिए बेहद जरूरी भी है।
वस्तुत: मौजूदा भौतिकवादी परिवेश में विविध प्रकार के दबाव कई बार कुछ युवाओं का आत्मविश्वास घटा देते हैं। अलबत्ता देश में बड़ी संख्या में हो रही आत्महत्या की बढ़ती घटनाएं समाज केसभी तबके के लोगों के जीवन में बढ़ रही निराशा, संघर्ष करने की घटती क्षमता और जीने की इच्छाशक्ति की कमी की ओर संकेत करती हैं।
आजकल हर आदमी के अंदर अच्छा घर, कार और आधुनिक जीवन की सभी सुख-सुविधाएं हासिल करने कीलालसा बढ़ती जा रही है। इसके लिए वह जद्दोजहद भी करते हैं। वह अपने सपनों को जल्द पूरा करना चाहता है। सपने टूटते हैं और अपेक्षाएं पूरी नहीं होती हैं, तो आत्मविश्वास की कमी के चलते लोग जिंदगी से मायूस हो जाते हैं। कभी प्रेम में निराशा मिलने पर, तो कभी आर्थिक तंगी या गृहकलह आत्महत्या की वजह बन जाती है। दरअसल, जीवन में सफलता प्राप्त करने केलिए आत्मविश्वास की शक्ति सर्वाधिक आवश्यक है। आत्मविश्वास के अभाव में किसी कामयाबी की कल्पना नहीं की जा सकती है। आत्मविश्वास के सहारे कठिन से कठिन लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। विद्यार्थी आत्मविश्वास को जागृत करके और मजबूत बनाकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता अर्जित कर सकते हंै। वास्तव में आत्मविश्वास की शक्ति अद्भुत होती है।
परीक्षाफल और जिंदगी से मायूस हुए लोगों को सांत्वना देने का काम आस-पास के लोगों या परिजनों को करना चाहिए। बातचीत केमाध्यम से निराशाजनक स्थितियों से गुजर रहे मनुष्य के अंदर जीने की इच्छाशक्ति को मजबूत किया जाना चाहिए। उन्हें जीवन के संघर्ष से घबराने केबजाय मुकाबला करने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। उनकेमन से निराशा का अंधेरा छंट गया तो निश्चित रूप से उनमें जीवन के प्रति ललक जागृत होगी। उनमें आत्मविश्वास उत्पन्न होगा, तो वे वह भविष्य में जिम्मेदार नागरिक बनकर देश केविकास में अपना योगदान दे पाएंगे।
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Friday, May 21, 2010

मेरठ अंचल ने दिए हिंदी को अनमोल रतन

डॉ. अशोक प्रियरंजन
मेरठ क्षेत्र की सुदीर्घ साहित्यिक परंपरा रही है। यहां के साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य में न केवल इस क्षेत्र के जनजीवन के सांस्कृतिक पक्ष को अभिव्यक्त किया, बल्कि इस अंचल की भाषिक संवेदना को भी पहचान दी। इन साहित्यकारों के बिना हिंदी साहित्य का इतिहास पूरा नहीं हो सकता।
२६ अगस्त, १८९१ को बुलंदशहर के चंदोक में जन्मे आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ३२ उपन्यास, ४५० कहानियां और अनेक नाटकों का सृजन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया। ऐतिहासिक उपन्यासों के माध्यम से उन्होंने कई अविस्मरणीय चरित्र हिंदी साहित्य को प्रदान किए। सोमनाथ, वयं रक्षाम:, वैशाली की नगरवधू, अपराजिता, केसरी सिंह की रिहाई, धर्मपुत्र, खग्रास, पत्थर युग के दो बुत, बगुला के पंख उनके महत्वपूर्ण उपन्यास हैं। चार खंडों में लिखे गए सोना और खून के दूसरे भाग में १८५७ की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का मार्मिक वर्णन किया गया है। गोली उपन्यास में राजस्थान के राजा-महाराजाओं और दासियों के संबंधों को उकेरते हुए समकालीन समाज को रेखांकित किया गया है। अपनी समर्थ भाषा शैली के चलते शास्त्रीजी ने अद्भुत लोकप्रियता हासिल की और वह जन साहित्यकार बने।
मुजफ्फरनगर के ही एलम गांव में १३ जनवरी, १९११ को एक मध्यमवर्गीय जाट परिवार में पैदा हुए प्रगतिशील रचनाकार शमशेर बहादुर सिंह कवियों के कवि कहे गए। हिंदी के साथ-साथ उर्दू के विद्वान शमशेर को वर्ष १९७७ में चुका भी हूं मैं नहीं काव्य संग्रह के लिए साहित्य अकादेमी सम्मान से विभूषित किया गया। शमशेर की कविताओं में रोमानियत, जनतांत्रिकता, प्रेम, सौंदर्य, मानवीय करुणा, संवेदना की गहरी अभिव्यक्ति हुई है। हालांकि बिंबों और प्रतीकों को प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने वाले शमशेर की कविताएं कई बार इतनी जटिल हो जाती हैं कि उन्हें समझना सामान्य पाठक के लिए मुश्किल हो जाता है। लेकिन उनकी कविता गहरे बोध की रचनाएं हैं।
मुजफ्फरनगर जिले के मीरापुर में २१ जून, १९१२ को जन्मे मसीजीवी लेखक विष्णु प्रभाकर ने अद्र्धनारीश्वर और आवारा मसीहा जैसी कृतियों से जबर्दस्त ख्याति अर्जित की। साहित्य अकादेमी और पद्म विभूषण से सम्मानित विष्णु प्रभाकर ने उपन्यास, कहानी, निबंध विधाओं को अपनी लेखनी से समृद्ध किया है। आवारा मसीहा तो हिंदी साहित्य में मील का पत्थर माना जाता है।
पंडित नरेंद्र शर्मा मेरठ अंचल के ऐसे साहित्यकार रहे, जिन्होंने हिंदी साहित्य और फिल्मों में समान रूप से योगदान दिया। वर्ष १९१३ में बुलंदशहर जिले के जहांगीरपुर में जन्मे नरेंद्र शर्मा ने करीब डेढ़ दर्जन किताबें लिखीं। उनके काव्य संग्रहों में प्रवासी और पलाशवन सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। फिल्म भाभी की चूडिय़ां के गीत ज्योति कलश छलके ने उन्हें अमर कर दिया। नरेंद्र शर्मा देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव भी रहे।
सहारनपुर जिले के देवबंद कस्बे में २९ मई, १९०६ को जन्मे कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर की सृजनशीलता ने भी हिंदी साहित्य को व्यापक आभा प्रदान की। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकरÓ ने उन्हें शैलियों का शैलीकार कहा था। कन्हैयालाल जी ने हिंदी साहित्य के साथ पत्रकारिता को भी व्यापक रूप से समृद्ध किया। उनके संस्मरणात्मक निबंध संग्रह दीप जले शंख बजे, जिंदगी मुस्कराई, बाजे पायलिया के घुंघरू, जिंदगी लहलहाई, क्षण बोले कण मुस्काए, कारवां आगे बढ़े, माटी हो गई सोना गहन मानवतावादी दृष्टिकोण और जीवन दर्शन के परिचायक हैं। नाटककार जगदीश चंद्र माथुर भी इसी अंचल के हैं। उनका जन्म बुलंदशहर के खुर्जा में हुआ था। ऐतिहासिक-सामाजिक नाटकों के साथ ही उन्होंने एकांकी की रचना की। कोणार्क, दशरथ नंदन, शारदीया, पहला राजा नाटक तथा भोर का तारा, ओ मेरे सपने एकांकी संग्रह हैं।
आठ जुलाई, १९३६ को मुजफ्फरनगर के जमींदार परिवार में जन्मे गिरिराज किशोर अद्भुत प्रतिभा संपन्न साहित्यकार हैं। ढाई घर उपन्यास के लिए उन्हें साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। पहला गिरमिटिया, लोग, जुगलबंदी, यथाप्रस्तावित, असलाह, तीसरी सत्ता, चिडिय़ाघर और दावेदार आदि उपन्यासों में उन्होंने समकालीन समाज में पनपते अंतर्विरोधों और सूक्ष्मतर संवेदनाओं को प्रखर रूप से अभिव्यक्त किया है। उनकी कहानियों में गहन राजनीतिक चेतना व सामाजिक विसंगतियों के चित्र मिलते हैं।
मुजफ्फरनगर के ही भीमसेन त्यागी ने भी अपनी औपन्यासिक कृतियों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की संस्कृति व लोकजीवन को प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया है। उनके उपन्यास जमीन, वर्जित फल और कटे हुए हाथ सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। जमीन में उन्होंने आजादी के बाद ग्राम्य जीवन में आए बदलावों को रेखांकित किया है। इस उपन्यास में भूमिहीन किसानों की यातनापूर्ण स्थितियों का मर्मभेदी चित्रण किया गया है।
ऐतिहासिक उपन्यास कठपुतली के धागे, कुणाल की आंखें के लेखक आनंद प्रकाश जैन भी इसी जनपद के कस्बा शाहपुर के निवासी हैं। यहीं के निवासी पंडित सीताराम चतुर्वेदी का बेचारा केशव नाटक हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण कृति है। कथा साहित्य के दमदार हस्ताक्षर से.रा. यात्री भी यहीं के हैं। कवि भोपाल सिंह पौलस्य और कलीराम शर्मा मधुकर भी मुजफ्फरनगर के ही हैं।
मेरठ में जन्मे पद्मश्री रघुवीर शरण मित्र का उपन्यास आग और पानी हिंदी साहित्य में अलग पहचान रखता है। कवि बसंत सिंह भंृग, चौधरी मुल्कीराम, पंडित मुखराम शर्मा व हाइकूकार शैल रस्तोगी और ताराचंद हरित मेरठ के ही निवासी हैं। गाजियाबाद के क्षेमचंद्र सुमन, गीतकार देवेंद्र शर्मा इंद्र आदि ने भी हिंदी साहित्य को गौरवान्वित किया है।

Friday, February 26, 2010

अंग्रेजों की जमीन पर हिंदी के फूल खिले


-डॉ. अशोक प्रियरंजन
हिंदी भाषा और साहित्य से विदेशी भूमि भी आलोकित हो रही है। अंग्रेजी के लिए जाने जाना वाले इंग्लैंड तक में हिंदी के फूल खिल रहे हैं। यूरोप में हिंदी भाषियों की बड़ी संख्या है। भारतवंशी अनेक साहित्यकार विदेशों में हिंदी साहित्य सृजन कर रहे हैं। मेरठ में चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की ओर से १२-१४ फरवरी तक आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी में आए भारतवंशी हिंदी साहित्यकारों ने विदेशी भूमि पर हिंदी की गौरवशाली सृजनशीलता से साक्षात्कार कराया।
इजराइल से आए गेनाल्डी स्लम्पोर वहां के विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर हैं। वह कई देशों में हिंदी शिक्षण का कार्य कर चुके हैं। उनकी हिंदी भाषा और साहित्य पर कई पुस्तकें हैं। उन्होंने बताया कि उनके देश में हिंदी सीखने की ओर रुझान है।
इंग्लैंड के नाटिंघम से आईं जया वर्मा की पहचान एक अच्छी कवयित्री के रूप में है। वह गीतांजलि बहुभाषी साहित्यिक समुदाय टैं्रथ की अध्यक्ष हैं। यह संस्था साहित्यिक गतिविधयों में सक्रिय है। संस्था की शुरुआत बर्मिंघम में १९९५ में हुई। नाटिंघम में २००३ में संस्था ने कामकाज प्रारंभ किया। यह संस्था हिंदी ज्ञान प्रतियोगिता आयोजित करती है जिसमें यूरोप, मास्को, यूक्रेन समेत कई देशों के विद्यार्थी भाग लेते हैं। इसके विजेता बच्चों को भारत भ्रमण के लिए भी भेजा जाता है। जया वर्मा ने १५ सालों तक नाटिंघम के कला निकेतन स्कूल में हिंदी का शिक्षण कार्य किया। त्रैमासिक हिंदी पत्रिका पुरवाई और प्रवासी टुडे भी इंग्लैंड से प्रकाशित होती हैं। सप्लीमेंटरी स्कूलों में यहां ए लेवल अर्थात् १२वीं तक हिंदी पढ़ाई जाती है। जया वर्मा के मुताबिक टीवी पर हिंदी के अनेक प्रमुख चैनल इंग्लैंड में देखे जाते हैं जिनकी हिंदी को लोकप्रिय बनाने में खास भूमिका है। इसके साथ ही गीतांजलि की ओर से इंग्लैंड के सात शहरों लंदन, बर्मिंघम, नाटिंघम, लेस्टर, यार्क और मेनचेस्टर में हिंदी कवि सम्मेलनों का आयोजन किया जाता है। कैंब्रिज, लंदन और योर्क यूनिवर्सिटी में बीए और एमए में हिंदी पढऩे वाले विद्यार्थी हैं।
कनाड़ा में बसी स्नेह ठाकुर के मुताबिक वहां हिंदी की स्थिति अच्छी है। वह छह वर्षों से त्रैमासिक पत्रिका वसुधा का संपादन व प्रकाशन कर रही हैं। संजीवनी, उपनिषद् दर्शन जैसी पुस्तकों की लेखिका स्नेह ठाकुर सद्भावना हिंदी साहित्यिक संस्था की अध्यक्ष हैं। यह संस्था हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए सक्रिय है। वहां से हिंदी अब्राड नामक समाचारपत्र का भी प्रकाशन होता है। मंदिरों में शनिवार को निजी प्रयासों से हिंदी स्कूल की कक्षाएं चलती हैं। विश्वविद्यालयों में भी हिंदी पढ़ाई जाती है।
मारीशस मेें बसे भारतीय मूल के डॉ. हेमराज सुंदर मोका स्थित महात्मा गांधी इंस्टीट्यूट से जुड़े हैं। वह वसंत और रिमझिम नामक पत्रिका का प्रकाशन भी करते हैं। इस इंस्टीट्यूट में एम फिल और पीएचडी तक की पढ़ाई होती है। हिंदी साहित्य सम्मेलन परीक्षाएं कराता है। डॉ. सुंदर के अनुसार मारीशस में माध्यमिक स्तर तक हिंदी पढ़ाई जाती है। लंदन यूनिवर्सिटी १२वीं तक की परीक्षा कराता है। आर्य सभा मारीशस भी धार्मिक परीक्षाएं कराता है। रेडियो पर २४ घंटे हिंदी के कार्यक्रम चलते रहते हैं। दूरदर्शन पर भी साहित्यिक कार्यक्रम और हिंदी फिल्में धडल्ले से चलती हैं। अलबत्ता हिंदी अखबारों की कमी खलती है। हिंदी जनता की भाषा के रूप में स्थापित है।

Saturday, February 13, 2010

मेरठ की माटी से महका साहित्य

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
हिंदी के चर्चित हस्ताक्षर गिरिराज किशोर के साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित उपन्यास 'ढाई घर'की शुरुआत कुछ इस तरह होती है-'मेरा नाम भास्कर राय है। मैं उत्तर प्रदेश के पश्चिमी इलाके के एक पुराने खाते-पीते राय खानदान का अंतिम राय हूं। अब मेरे बाद कोई राय नहीं होगा। मेरे बच्चे हैं पर जिस आधार पर हम लोग राय हुआ करते थे, वह एक बड़ी जमींदारी थी। वह कभी की खत्म हो गई।' दरअसल इस उपन्यास में जिस अंचल को केंद्रबिंदु बनाकर कथा का ताना-बाना बुना गया है, वह कोई और नहीं बल्कि मुजफ्फरनगर और मेरठ ही भूमि है। खड़ी बोली के लिए जाने जाना वाला मेरठ अंचल ही इस बहुचर्चित उपन्यास में जीवंत रूप में दिखाई देता है। मेरठ अंचल की परंपराएं, मान्यताएं और रीति रिवाज इस उपन्यास में हैं। प्रमुख पात्रों के संवाद खड़ी बोली में हैं और इसमें कौरवी के भी शब्दों का प्रयोग किया गया है। इस उपन्यास में मेरठ और यहां के कुछ प्रमुख स्थलों के विषय में भी जानकारी दी गई है। इस साहित्यिक कृति में मेरठ कालेज और बुढ़ाना गेट का जिक्र है। उपन्यास के मुख्य पात्र हरिराय के शब्दों में-'मेरठ कॉलेज में भी साथ ही साथ पढ़े थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उस समय दो ही बड़े कॉलेज थे। एक शायद आगरा कॉलेज आगरा और दूसरा मेरठ कॉलेज मेरठ। आगरा का सेंट जान्स भी पुराने कॉलेजों में में है। पूरी कमिश्नरी के लड़केमेरठ ही पढऩे जाते थे। तब मेरठ कॉलेज इंटर तक था। लेकिन था काफी बड़ा। ' इसी क्रम में वह आगे बताते हैं कि, 'बुढाने दरवाजे पर एक मशहूर पान लगाने वाला था। वह उस जमाने में सौ-सौ रुपये का कुश्ते वाले पान बनाता था। रईस लोग अपनी ऐय्याशी को सही सलामत रखने के लिए उसका पान खाते थे।Ó गिरिराज किशोर के उपन्यास 'लोग' और 'जुगलबंदी' में भी मेरठ अंचल धड़कता दिखाई देता है।
उर्दू के मशहूर कथाकार सआदत हसन मंटो ने अपनी कलम से अनेक बेहतरीन कालजयी चरित्रों की रचना की है। ऐसा ही एक चरित्र मंटो ने रचा और उसका नाम रखा-मेरठ की कैंची। मंटो के १० कहानियों का संग्रह मेरठ की कैंची नाम से प्रकाशित हुआ है। इसकी प्रमुख कहानी मेरठ की कैंची की नायिका के बारे में वह लिखते हैं, '---अब पारो रोज स्टूडियो आने लगी। बहुत हंसमुख और मीठी आवाज वाली तवायफ थी। मेरठ उसका वतन था जहां वह शहर के करीब-करीब हर रंगीन मिजाज रईस की मंजूरे नजर थी। उसको ये लोग मेरठ की कैंची कहते थे। इसलिए कि वह काटती थी और बड़ा महीन काटती थी।' आगे वह लिखते हैं, '---पारो में आम तवायफों जैसा भड़कीला छिछोरापन नहीं था। वो महफिलों में बैठकर बड़े सलीके से बातें कर सकती थी। इसकी वजह यही हो सकती है कि मेरठ में उसके यहां आने-जाने वाले ऐरे-गैरे नत्थू -खैरे नहीं होते थे। उनका संबंध सोसाइटी के उस तबके से था जो नाशाइस्तगी की तरफ सिर्फ तफरीह की खातिर मायल होता है।'
हिंदी के प्रमुख साहित्यकार अमृतलाल नागर का उपन्यास 'सात घूंघट वाला मुखड़ा' मेरठ केसरधना की बेगम समरू को केंद्र में रखकर लिखा गया है। कालजयी उपन्यासकार आचार्य चतुरसेन शास्त्री के उपन्यास 'सोना और खूनÓ केदूसरे भाग में १८५७ की क्रांति के दौरान मेरठ अंचल में लोगों की शहादत का वर्णन किया गया है। यह भी बताया गया है कि कैसे पंजाब से आकर विस्थापितों ने मेरठ और उसके आसपास के इलाके में शरण ली। डॉ. सुधाकर आशावादी ने भी अपने उपन्यास 'काला चांद' में मेरठ का वर्णन किया है।

Sunday, February 7, 2010

मेरठ में तीन दिवसीय अंतरराष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी 12 से


-डॉ. अशोक कुमार मिश्र
भारत का हृदयस्थल पश्चिमी उत्तर प्रदेश। इसी का सबसे महत्वपूर्ण शहर है मेरठ। पूरी दुनिया में यह शहर कई कारणों से मशहूर रहा है। अंगेजों के जमाने में इसी शहर से आजादी की लड़ाई की शुरुआत हुई। सन् 1857 की क्रांति का उद्गम स्थल माना जाना वाला यह शहर एक गौरवशाली अतीत को समेटे है। इसी शहर में लगता है नौचंदी मेला जो सांस्कृतिक विरासत और सांप्रदायिक एकता का प्रतीक है। राजधानी दिल्ली के निकट स्थित यह शहर कभी कैंची के लिए मशहूर रहा तो कभी खेल के सामान के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता रहा है। कभी इस शहर का नाम दंगे के कारण लोगों के जेहन में आया तो कभी विक्टोरिया पार्क जैसे हादसे के चलते चर्चा में आया। वजह कोई भी रही शहर हमेशा विश्व मानचित्र पर अपनी पहचान बनाए रहा।
अब हिंदी साहित्य जगत में भी यह शहर खास पहचान बना रहा है। इसका श्रेय जाता है विश्वविद्यालय में चल रहे हिंदी विभाग और इसकेअध्यक्ष डॉ. नवीन चंद्र लोहनी को। डॉ. लोहनी ने अपनी आधुनिक सोच से न केवल विद्यार्थियों में हिंदी के प्रति आत्मगौरव जागृत किया बल्कि उन्हें जमाने के साथ कदमताल करने केलिए तैयार भी किया। विभाग में आधुनिक कंप्यूटर लैब, मल्टीमीडिया लैब, पुस्तकालय और सुसज्जित संगोष्ठी कक्ष है जिसकी विद्यार्थियों के लिए व्यापक उपयोगिता है। इसके साथ ही विद्यार्थियों के ज्ञानवर्धन के लिए समय-समय पर विशेषज्ञ विद्वानों केव्याख्यान भी डॉ. लोहनी कराते रहे हैं। हिंदी के प्रचार प्रचार केलिए कई बड़े कार्यक्रम विभाग की ओर से आयोजित किए गए हैं।
इसी क्रम में इस बार डॉ. लोहनी अब तक का सबसे बड़ा आयोजन करने जा रहे हैं। विभाग की ओर से १२ से १४ फरवरी 2010 के मध्य 'भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी, विषय पर अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी आयोजित की जा रही है जिसमें देश-विदेश के अनेक विद्वान, शोधार्थी, हिंदी साहित्य के मर्मज्ञ और मीडिया से जुड़े लोग भाग ले रहे हैं। इस संगोष्ठी में 'अङ्क्षहदी भाषी राज्यों में हिंदी, 'प्रवासी क्षेत्रों में हिंदी, 'विदेशी लेखकों द्वारा हिंदी लेखन और प्रसार, 'हिंदी का लेखन और हिंदी साहित्य जैसे सत्र आयोजित किए जाएंगे। जिन लोगों में हिंदी के प्रति अनुराग है, उनके लिए इसमें भाग लेना सुखद अनुभव होगा, ऐसा विश्वास है। हालांकि पूर्व में स्वीकृति के उपरांत ही संगोष्ठी में भाग लेना संभव होगा। भाग लेने केलिए १० जनवरी तक सूचना भेजी जा सकती है।
प्रतिभागिता हेतु संपर्क करें-
प्रो० नवीन चन्द्र लोहनी , विभागाध्यक्ष हिन्दी
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ ।
nclohani@gmail.com, nclohani@yahoo.com
Phone & fax-01212772455, +919412207200
अन्य फोन नंबर एवं वेब पते-
विवेक सिंह ( शिक्षण सहायक)
गजेन्द्र सिंह ( शिक्षण सहायक)
+9258040773 ,9359770328