Tuesday, September 22, 2009

उच्च शिक्षा में उपजे सवाल

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
इलाहाबाद विश्वविद्यालय परिसर में नौ सितंबर को छात्रों ने जो तांडव मचाया वह शिक्षा और राजनीति के समीकरणों से जुड़े कई सवालों पर मंथन करने के लिए विवश करता है। छात्रसंघ बहाली की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे उग्र छात्रों ने वीसी दफ्तर पर पथराव किया, कई स्थानों पर तोडफ़ोड़ की। पुलिस को लाठीचार्ज करना पड़ा। विश्वविद्यालय के आसपास के इलाकों में करीब डेढ़ घंटे तक छात्रों का यह तांडव चलता रहा। कई लोग घायल हुए। रैगिंग से परेशान होकर १५ सितंबर को लखनऊ के आजाद इंस्टीट्ïयूट ऑफ इंजीनियरिंग टेक्नोलॉजी में बीटेक प्रथम वर्ष की छात्रा पूनम ने कैंपस में छत से कूदकर जान दे दी। वास्तव में यह अराजक स्थिति है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग लगातार परिसरों में शैक्षिक वातावरण सृजन पर जोर दे रहा है लेकिन देश के अलग-अलग हिस्सों से विश्वविद्यालय परिसरों में हो रही ऐसी अराजक घटनाएं उसके मंसूबों पर पानी फेरती लगती हैं। बेहतर पढ़ाई के लिए पहली शर्त अनुशासन की होती है लेकिन परिसरों में इसकी कमी दिखाई देती है।
कभी छात्र राजनीति के चलते तो कभी शिक्षकों अथवा कर्मचारियों के आंदोलन के कारण विद्यार्थियों की पढ़ाई में बाधा पैदा हो जाती है। कुछ स्थानों पर शिक्षकों की कमी विद्यार्थियों केलिए परेशानी का सबब बन जाती है। कई विश्वविद्यालयों के छात्रावास भी असामाजिक गतिविधियों संचालित होने के कारण चर्चा में आए हैं। इन हॉस्टलों में पढ़ाई पूरी करने के बाद भी दबंग छात्र कई कई सालों तक जमे रहतेे हैं। नए छात्रों पर रौब गांठना, रैगिंग करना और उल्टे-सीधे काम करके अपना स्वार्थ सिद्ध करना ऐसे छात्रों का उद्देश्य होता है। मेधावी छात्र ऐसी स्थिति में हॉस्टल में अपनी पढ़ाई ढंग से नहीं कर पाते हैं।
वजह कुछ भी रही हो, लेकिन इन घटनाओं के संदर्भ और सूबे में विश्वविद्यालयों की स्थितियों को देखते हुए आज यह विचार करना नितांत जरूरी है कि कैसे परिसरों का माहौल ऐसा बनाया जाए जिससे विद्यार्थी पूरे मनोयोग से वहां पढ़ाई कर पाएं। आज ऐसी घटनाएं भी बढ़ी हैं जो ज्ञान केमंदिरों का माहौल दूषित कर रही हैं, उन्हें कैसे रोका जाए। मौजूदा दौर में उच्च शिक्षा में उपज रही चुनौतियों से जुड़े सवालों के जवाब तलाशने होंगे। यह विचार करना होगा कि क्या उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ाई का बेहतर माहौल है? क्या छात्रों की मानसिकता पढऩे की है या उसमें कुछ भटकाव भी शामिल हो गया है? क्या शिक्षक वर्ग अपने दायित्वों का सही प्रकार निर्वाह कर रहे हैं? क्या मोटा वेतन लेने के बदले वह विद्यार्थियों को अच्छी तरह पढ़ा रहे हैं? क्या छात्र राजनीति विश्वविद्यालयों का माहौल बना रही है या बिगाड़ रही है? अभिभावक अपनी मेहनत की कमाई से जो मोटी फीस अपने बच्चों की पढ़ाई केलिए विश्वविद्यालय को देते हैं क्या उसके बदले में विश्वविद्यालय उन्हें वह ज्ञान दे पाता है जिसकी आकांक्षा लेकर वह आते हैं? क्यों नई पीढ़ी में कई बार डिग्री लेने के बाद भी निराशा की अधिकता और आत्मïिवश्वास की कमी होती है?
(फोटो गूगल सर्च से साभार)

Sunday, September 13, 2009

रोजगार और बाजार से जुड़ी हिंदी, जगा रही अपार संभावनाएं

-डॉ. अशोक प्रियरंजन
हिंदी के प्रति अब नजरिया बदल रहा है । अब तक अंग्रेजी इसलिए ज्यादा पढ़ी जाती थी क्योंकि उसे रोजगार दिलाने में सहायक माना जाता था । अब हिंदी भी रोजगार और बाजार से जुड़ रही है। ऐसे में हिंदी के विस्तार की अपार संभावनाएं पैदा हो रही हैं । इसलिए समय आ गया है कि अब हम हिंदी दिवस पर इस गौरवशाली भाषा की दुर्दशा को रेखांकित करने की बजाय इसके प्रयोग में शुद्धिकरण और मानकीकरण पर विचार करें । मौजूदा दौर में सर्वाधिक अखबार हिंदी के बिक रहे हैं । हिंदी चैनल देखने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है । रेडियो सुदूर अंचलों में हिंदी माध्यम से ही अपनी बात जनमानस तक पहुंचाता है । इन तीनों माध्यमों में बड़ी संख्या में हिंदी वाले रोजगार हासिल कर रहे हैं । पहले की तरह वे अल्पवेतनभोगी नहीं हैं बल्कि अच्छा वेतन प्राप्त कर रहे हैं । सरकारी विभागों में हिंदी अधिकारी और अनुवादक जैसे पद सृजित हुए हैं । प्रतियोगी परीक्षाओं में हिंदी के माध्यम से कामयाबी की कहानी लिखी जा रही है । भारतीय प्रशासनिक सेवा में हिंदी विषय ने अनेक प्रतियोगियों का बेड़ा पार किया। विदेशों में हिंदी के प्रति रुझान बढ़ रहा है। अनेक विदेशी विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है ।
हिंदी भाषी बाजार भी संभावनाएं जगा रहा है । विदेशी कंपनियों को अपने उत्पाद भारत में बेचने केलिए हिंदी में विज्ञापन बनाना मजबूरी है । हिंदीभाषियों तक उत्पाद की गुणवत्ता बताने के लिए उन्हें वही अधिकारी तैनात करने पड़ रहे हैं जो हिंदी जानते हैं । कई टेलीविजन चैनलों ने इसी बाजार के दबाव में अंग्रेजी का चोला बदलकर हिंदी को अपनाया। सरकारी कामकाज में भी हिंदी का बोलबाला बढ़ रहा है ।
ऐसे में हिंदी को और विस्तार देने के लिए प्रयास करने होंगे । उसे सिर्फ साहित्य की भाषा के दायरे से बाहर निकालकर विज्ञान, तकनीक, वाणिज्य आदि विषयों से जोडऩा होगा । ऐसे तमाम विषयों का पठन-पाठन हिंदी में होने लगे तो हिंदी का परचम पूरे देश में लहराने लगेगा। हिंदी की पुस्तकें पढऩे और खरीदने की प्रवृत्ति भी विकसित करनी होगी । हिंदी पुस्तकें पढऩे का संस्कार विकसित हो गया तो भाषा का पक्ष काफी मजबूत होने लगेगा ।
अव वक्त है कि हिंदी भाषा को शुद्ध लिखने, पढऩे और बोलने की ओर ध्यान केंद्रित किया जाए । ईमेल, एसएमएस और इंटरनेट पर हिंदी लेखन में बढ़ रही अशुद्धियों को रोकने पर विचार किया जाए । हिंदी को रोमन लिपि में लिखने की बढ़ती प्रवृत्ति नहीं रोकी गई तो देवनागरी लिपि को खतरा पैदा हो जाएगा । हिंदी को राष्ट्रीय भाषा मानकर इसके प्रति समर्पण भाव जागृत करने की दिशा में काम किया जाए । ऐसा होने पर हिंदी पढऩा लिखना प्रत्येक व्यक्ति के लिए सम्मान का विषय होगा । हिंदी जनमानस के जीवन और कर्म से जुड़ेगी,तभी हिंदी अपना वास्तविक गौरव हासिल कर पाएगी ।
(चित्र गूगल सर्च से साभार)